रविवार, 29 जून 2014

बच्चों को बताएँ कि सिर्फ एक फूल क्यों नहीं

-गणेश पाण्डेय
 
कुछ राजे-रजवाड़े या रईस लोगों के बच्चों की तरह मेरी प्रारंभिक शिक्षा घर पर विशेष शिक्षकों की देख-रेख में नहीं हुई और न तो बहुत नामी-गिरामी अर्थात किसी दूसरी जगह के अमीरों के बच्चों वाले स्कूल में हुई। कविता का सबसे पहला पाठ घर पर नीम की छड़ी से ,  जो पिता जी के हाथ में थी। मैं स्कूल जाना नहीं चाहता था, बहुत से बच्चों की तरह खेलने- कूदने को ही जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा समझता था। असल में यह उम्र ही ऐसी थी। तब स्कूल भी ऐसे कहाँ थे जिनमें सबसे छोटी कक्षा में जाने पर चॉकलेट मिलती ? हाँ, उस वक्त मेरे बहुत छोटे-से कस्बे में जो एक ग्रामसभा थी, दो स्कूल थे, एक प्राइमरी स्कूल था जो सरकारी था और एक गैर सरकारी। उस गैर सरकारी स्कूल के कर्ताधर्ता तेलिया पंडिज्जी थे, हम सब उन्हें इसी नाम से जानते थे। साँवला चेहरा, दरमियाना कद, धोती-कुर्ते की पोशाक और कड़क आवाज, बाद में ऐसी ही एक शानदार आवाज सबसे ऊँची कक्षा में दुबले-पतले और नाटे कद के एक कवि-आलोचक गुरु में दिखी थी। तेलिया पंडिज्जी की आवाज तो बहुत अच्छी थी ही, ज्ञान-वान की पहचान भला हम बच्चों को उस वक्त कहाँ थी, पर सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली बात उनकी लिखावट थी। श्यामपट्ट पर क्या मोती जैसे सुंदर अक्षर लिखते थे। उन्हीं सुंदर अक्षरों ने कुछ सीखने के लिए प्रेरित किया। वे हाथ पकड़कर भी पटरी पर खड़िया मिट्टी से लिखवाते थे। भाषा को सीखना ही मेरे लिए कविता के देश में जाने का पहला पासपोर्ट था। हालाँकि कविता लिखना कुछ और वक्त बाद शुरु किया। उठो लाल अब आँखें खोलो जैसी कविताओं से होते हुए आगे बढ़े। तेलिया पंडिज्जी के स्कूल में सिर्फ कक्षा चार तक की पढ़ाई होती थी, पाँचवीं में दाखिले के लिए प्राइमरी स्कूल में जाना पड़ा। वहाँ रामप्रकाश पंडिज्जी मिले। कड़क वे भी थे। सामने रेलवे लाइन थी और बगल में स्टेशन। पाँचवीं के बच्चे शरारती इतने थे कि रेल पर बिना टिकट बैठ कर पश्चिम के स्टेशन चिल्हिया नंबर एक करने चले जाते थे तो कभी पूरब के स्टेशन उस्का दो करने। रामप्रकाश पंडिज्जी ने एक ऐसे ही शरारती बच्चे को पीठ पर रेल की पटरी के पत्थर से जरा-सा ही कस कर मारा था और उसके आसपास के बच्चे ंके बस्ते भीग गये थे। कहना यह कि ऐसे ही बच्चों के बीच से निकल कर जब कस्बे के इंटर कालेज में दाखिला लिया तो वहाँ के प्रधानार्य आरछी सिंह तो बहुत धाकड़ प्रिसिंपल थे, पर मेरा ध्यान उनकी जगह हिन्दी के अध्यापक रमेश सिंह गुरु जी की तरफ आकर्षित हुआ। पहली बार जब मैंने ग्रामजीवन पर निबंध लिखा और उस पर रमेश गुरु जी ने जो तीन शब्दों का एक छोटा-सा वाक्य टीप के रूप में दर्ज किया, कई दिनों तक उस कापी को अपने सीने से लगाए रहा।  इसके तनिक पहले ही कविता लिखने की कोशिश में तुकबंदी शुरु कर दी, पर असल में कविता के प्रति अनुराग और प्रगाढ़ कस्बे में होने वाले मुशायरों और कविसम्मेलनो से हुआ। मेरे लिए पारंपरिक स्कूल ही नहीं साहित्य के पारंपरिक आयोजन भी साहित्य के स्कूल बने। किशोर जीवन में कृष्णबिहारी नूर जैसे शायर के शेरों ने मेरे भीतर न सिर्फ कविता, बल्कि जीवन के प्रति नजरिया भी बदला-
मैं एक कतरा हूँ मेरा वुजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।
  राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन ने भी जीवन को देखने की नयी दृष्टि दी। बुद्ध का घर मेरे घर से कुछ कोस की दूरी पर था। एक सबसे बड़ी चीज थी रात में गर्मियों में नीम के पेड़ के नीचे चारपाई डालकर सोना पड़ता था, कस्बे में किसी के घर बिजली थी नहीं, हाँ, सिंचाई विभाग की कॉलोनी में कोई बड़ा-सा जनरेटर था, जिससे सड़कों पर स्ट्रीट लाइट जल जाती थी। एक खम्भा मेरे घर के सामने भी था। बस रात में कागज-कलम लेकर बिस्तर पर लेटे-लेटे कुछ लिखता रहता। हालाँकि कविता सोचने की कुछ ऐसी जगहें भी होती थीं, जिनका जिक्र नहीं किया जा सकता। आशय यह कि पारंपरिक स्कूलों ने और गैर पारंपरिक स्कूलों ने कविता के प्रति रुचि पैदा की। भक्तिकाल और आधुनिककाल की कविताओं ने ही नहीं, मुशायरों और कविसम्मेलनों की कविताओं ने भी काव्यरचना के लिए प्ररित किया। मेरे कस्बे में कविता के लिए कोई कार्यशाला नहीं लगती थी। कुछ संस्थाएँ बनी जिन्होंने कवितायात्रा के अगले पड़ाव तक पहुँचाया। मैं, नजीर, सत्यप्रकाश, असलम और दूसरे कई साथियों ने मिलकर एक संस्था बनायी, एक छोटी-सी पत्रिका निकाली, पर यह सब साहित्य के मेरे पहले गुरु जो पेशे से चिकित्सक हैं, श्रद्धेय डा. सच्चिदानंद मिश्र के संरक्षण में हुआ। कविता लिखने की शुरुआत आदिकवि की तरह क्रौंच पक्षी के वध जैसी किसी घटना को देखकर नहीं हुआ, बल्कि जीवन की एक स्वाभाविक गति में आप से आप। हालाँकि एक तथ्य यह भी है कि मेरी कुंडली में कवि होना लिखा भी था। मेरे पिता जी ने जब एक जानकार को मेरे सामने ही दिखाया तो मैंने भी सुना। बहरहाल कुंडलियों में बहुत-सी बातें होती हैं, सब सही होतीं तो कोई बेरोजगार या दुखी रहता ? निराला जी की कुंडली में दो विवाह लिखे ही थे, पर हुआ ? कविजीवन के निर्माण की अपनी प्रक्रिया होती है, कुछ धीमी होती है।
        असल में कविजीवन का अपना वैशिष्ट्य होता है। पहला तो यह कि कवि की आँख उसे बेचैन करती रहती है, दूसरा उसका दिल। विशेष ये आशय सिर्फ यह कि दिखे सबकी तरह और हो तनिक-सा हटकर। हर कवि अपने जीवन में एक अर्थ में अपनी कविता का ही जीवन जीता है। कवि का जीवन और कविता का जीवन, दोनों में संगति ही अच्छी कविता को संभव करती है। हाँ, अच्छी कविता की समझ बनने में भी वक्त लगता है। मैं भूलता नहीं हूँ कि बहुत पहले एक बार विश्वनाथ जी पूछा कि अच्छी कविता लिखने के लिए क्या करना चाहिए ? उन्होंने बड़ी सहजता और विनम्रता से उत्तर दिया था कि अरे गणेश जी, यह सब लिखते-लिखते अपने आप हो जाता है। क्यों प्रश्न को टाल गये, इसका जवाब उनकी चिर-परिचित जासूस मुस्कान में ढ़ूँढ़ना चाहिए था,सोचता हूँ किसी दिन उनके घर जाऊँ और फिर से ढ़ूँढ़ू ? बहरहाल, यह विनोद ऐसे ही।
          मैं अपने बच्चों को कक्षा में कविता भिन्न प्रकार से पढ़ाता हूँ। आचार्यों की बात कहना जरूरी होता है तो भी कोशिश करता हूँ कि ऐसे कहूँ कि मेरी बात उन तक पहुँच जाय। उनके जीवन के आसपास की चीजों को उठाकर उन्हें बताना चाहता हूँ। ऐसा इसलिए कि पूर्वांचल के बच्चे, जेएनयू के बच्चे नहीं होते हैं। यहाँ तो सबसे ऊँची उपाधि लेने के बाद भी बच्चा एक साधारण प्रार्थना-पत्र ठीक से नहीं लिख पाता है। जिस अंचल में पीएचडी करके बच्चे पाँच-सात हजार की नौकरी करेंगे, वहाँ पढ़ाई का माहौल और स्तर भला क्या होगा ? जहाँ विश्वविद्यालयों के आचार्य हिन्दी की उन्नति की जगह ईर्ष्या-द्वेष और संस्थान की राजनीति में लगे रहेंगे तो यह सब नित्य देखकर बच्चे अच्छे कैसे बनेंगे ? हाँ तो कह रहा था कि कविता को कैसे समझाएँ! कोलरिज की इस बात को समझाने के लिए कि कविता उचित शब्दों का उचित क्रम है, उदाहरण देता हूँ कि नाई तुम्हारे बाल कैसे बनाता है, कान के बिल्कुल पास बहुत छोटा, फिर ऊपर थोड़ा-सा बड़ा, फिर ऐसे ही वह बालों को उचित क्रम देता है। यह भी बताता हूँ कि वह कितनी बार कैंची चलाता है, कितनी बार हाथ उठाता है, कितनी बार बाएँ-दाएँ, आगे-पीछे होता है। यह भी बताता हूँ कविता पान की पीक की तरह एकबार में बाहर नहीं हो जाती है, समय देना होता है। घुलाना होता है। पान की पीक है भी नहीं कविता, बहुत खास चीज है। बताता हूँ कि तुम्हारे जैसे बच्चे कितनी बार शीशे के सामने खड़े होकर कंघा करते हैं
           एकबार में जब कंघा नहीं हो पाता है तो कविता कैसे ? कई बार लड़के बिजली की गति से हजार बार कंघे को आगे-पीछे ले जाते हैं। इतना ही नहीं, जब वे पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं और जूते पैरों में डाल कर निकल रहे होते हैं, उस वक्त भी मुड़कर अपने बालों को एकबार फिर देख लेते हैं। बच्चों को यह भी बताता हूँ कि कोई-कोई बच्चे रात में सोने के पहले भी एक बार कंघा करना पसंद करते हैं। ऐसे बनती है कविता। इतना समर्पण , इतनी दीवानगी और सुदर दिखने की इतनी इच्छा से ही कविता भी सुदर बनती है। केवल आचार्य शुक्ल का ‘कविता क्या है’ निबंध ही नहीं महावीर प्रसाद द्विवेदी के  निबंध ‘कवि-कर्तव्य’ को भी ध्यान में रखना पड़ता है।
          जहाँतक बात लेखन कार्यशालाओं की है, इसे बहुत अच्छा माध्यम मानता हूँ, लेकिन जैसे कविता को जनता से जोड़ने के माध्यम मुशायरों और कविसम्मेलनों का पतन हुआ है, उसी तरह आज कविता की कार्यशालाएँ भी वह नहीं कर पा रही हैं जो उन्हें करना चाहिए। देखिए अपवाद भी है। कुछ कार्यशालाएँ अच्छी भी होंगी। मैं मानता हूँ कि छोटे बच्चों के लिए कार्यशालाएँ जिस रूप में चल रही है, उसके कुछ अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं, लेकिन किशोर या युवा कवियों के लिए, कविता की रचना-प्रक्रिया पर ही नहीं कविजीवन की रचना-प्रक्रिया पर भी कुछ बताना चाहिए। बताना चाहिए कि कवि भी भ्रष्ट और गंदा हो सकता, ऐसा होने से बचने के तरीके क्या हैं, ऐसे गंदे लोगों को कविता का प्रवक्ता या प्रशिक्षक बनने से कैसे रोकें, जिसे साहित्य अकादमी मिल गयी वह कविता का मान्य प्रशिक्षक कैसे बन गया ? जिसने जीवन भर इंजीनियरी करके खूब धंधा किया, करोड़ों कमाए और सड़के और भवन सब खराब बनाया, वह अच्छी कविता कैसे सिखएगा, जो अस्सी साल के बाद बच्चों का पुरस्कार पाने के लिए मचलेगा, वह अच्छी कविता कैसे बताएगा ? वह कैसे बताएगा कि अच्छी कविता के लिए एक कवि को नौ महीने तक प्रसव के लिए की गयी प्रतीक्षा की तरह घैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना पड़ता है। वह कैसे बताएगा कि आलोचना के लिए ही नहीं, कविता के लिए भी ईमान, धीरज और साहस की जरूरत होती है ?
      सच तो यह कि आज सृजनात्मकता के विकास के लिए ऐसी कार्यशलाओं की जरूरत है, जो बच्चों और युवाओं में कविता या रचना की किसी भी विधा के चरित्र और स्वभाव को ही नहीं, लेखक के चरित्र और स्वभाव से भी परिचित कराएँ। बताएँ कि बच्चों जब तुम्हारे माता पिता ने तम्हें जन्म देते समय किसी पुरस्कार की कामना नहीं की, बल्कि माना कि तुम्हारा आना ही उनके जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार है तो ये गंदे कवि अपनी कविता के लिए पुरस्कारकामना में मरे क्यों जाते हैं ? बताएँ कि अच्छा कवि अपनी कविता को ही कविजीवन का सच्चा पुरस्कार मानता है। पुरस्कार में सिर्फ एक कलम क्यों नहीं ? सिर्फ एक फूल क्यों नहीं ? सिर्फ पाठक का प्यार क्यों नहीं ?

(श्री महेश पुनेठा के बच्चों की कार्यशाला और पत्रिका के बहाने)







सोमवार, 23 जून 2014

बिगाड़ के डर से पुरस्कार का सच न कहें ?

-गणेश पाण्डेय
          मुझे ऐसा लगता है कि अपने समय में कवि, कविता और पुरस्कार का पूरा सच न तो पत्रिकाएँ छाप पाती हैं और न इस माध्यम पर आ पाता है। एक तीसरा माध्यम भी है मित्रो, जिसे समय कहते हैं। मूल्यांकन के मामलें में तो साहित्य का यह माध्यम अपने समय में बिल्कुल ही नहीं काम करता। यह काम तब करता है, जब काफी पानी सिर से गुजर चुका होता है। काफी कुछ बीत चुका होता है। काफी लोग किसी और लोक में कविता लिखने या आलोचना का धंधा करने जा चुके होते हैं। आशय यह कि जब उम्रदराज कवि और उनके चेले-चापड़ और उपकृत जन इस पृथ्वी से कूच कर चुके होते हैं। कवियों की मालाएँ, रुपये और शाल इत्यादि, मिट्टी में मिल चुके होते हैं या खर्च हो चुके होते हैं या उनके उत्तराधिकारी उसे फेंक-फाँक या फेँक-फाँक चुके होते हैं। तब साहित्य का सच्चा और निर्मम आलोचक समय प्रकट होता है और  अपना काम शुरू करता है।
        साहित्य का यह सबसे बड़ा और विश्वसनीय आलोचक ‘समय’ नहीं आता रहता तो बहुत से लेखकों ने अपने समय में धारा के विरुद्ध लिखना ही छोड़ दिया होता। बहुत से लेखक अच्छा लिखने के साथ खुशामद न करने की जिद छोड़ चुके होते। वे सब अपने वक्त की कविता के देवताओं की बैठक और आलोचना के दारोगाओं के थाने में उठक-बैठक करते हुए पूरी उम्र बिता चुके होते और उन्हें खुश करने के लिए न सिर्फ उनका अँगरखा धुलते रहते, बल्कि उनके सेवकों और दलालों की खुशामद की कला में अपने समय के तमाम कवियों की तरह पारंगत होते। बचाया किसने ? बस वही साहित्य के ‘समय’ जी ने।
           मित्रो, आप सोच रहे होंगे कि मैं काफी समय बाद फिर कवि, कविता, पुरस्कार पर क्यों कुछ कह रहा हूँ। असल में हुआ यह कि अभी बिल्कुल अभी हमारे समय के हिन्दी के एक अच्छे कवि को ज्ञानपीठ मिला है। यहाँ जो कुछ भी कहूँगा, पुरस्कृत कवि के प्रति असम्मान व्यक्त करने के लिए नहीं। यह बात स्पष्ट कर देना जरूरी है। केदार जी हमारे समय के तीन-चार अति महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। जिस पुरस्कार के बहाने बात कर रहा हूँ, उसे आज की तारीख में हिन्दी कवियों को देना हो तो जाहिर है कि यही नाम होंगे। यहा इन नामों से तनिक भी विरोध नहीं है। विरोध पुरस्कार की संस्कृति से है। आज की तारीख में पुरस्कार इन कवियों को नहीं, यदि भगवान को भी मिलता तो तब भी इस तरह की बातें होतीं। असल में हिन्दी कविता में पुरस्कार की संस्कृति के साथ ही अनुयायीपन भी खूब फैला है। कबीर, निराला, मुक्तिबोध के समय उनके इतने अनुयायी न रहे होंगे। ये अनुयायी इतना शोर करने लगते हैं कि लगता है कि आसमान सिर पर उठा लेंगे। इतना ही नहीं, ये अपने प्रिय कवि को महान ही नहीं मानते हैं, बल्कि बाकायदा उनकी कविता की नकल शुरू कर देते हैं। जाहिर है कि यह प्रवृत्ति हिन्दी कविता के सहज विकास की बाधक बनती है। अपने समय को प्रभावित करती है। अपने समय के साहित्यिक मूल्य को नुकसान पहुचाती है। ऐसे में साहित्य का जो अँधेरा ये निर्मित करते हैं, उसके मूल में हजार-पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर बड़े-बड़े पुरस्कार शामिल हैं। पहले कविता के इतने बच्चे पुरस्कार न थे कि हर युवा कवि एक पुरस्कार का बैट-बाल लेकर घूमे। इधर पुरस्कारों की दुकानें खुल गयी हैं। बहुत बड़ी दुकान भी खुल गयी हैं। ज्ञानपीठ हो, व्यास हा, साहित्य अकादमी हो, पुरस्कारों की एक लंबी पंक्ति है। ज्ञानपीठ ग्यारह शायद ग्यारह लाख रुपये का पुरस्कार है। अभी दो-चार दिन पहले विमल जी ने या किसी ने कहा कि यह पुरस्कार पाँच रुपये का होता तो क्या होता! असल में पत्रकार का दिमाग केवल कविता और आलोचना लिखने वालों से कुछ अधिक चलता है। ठीक चलता है।
   आखिर ज्ञानपीठ पुरस्कार को क्या भगवान ने खुद गढ़ा है ? उसकी निणार्यक समितियों में अपने समय के लेखक-अलेखक ही होते हैं या सीधे ईश्वर खुद आकर बैठते हैं ? दूसरी समितियों में भी तो ऐसे ही लोग बैठते हैं या अन्य पुरस्कारों की दूसरी समितियों में मिट्टी की मूर्तियाँ बैठती हैं ? फर्क केवल पैसे का है या और कुछ ? तो अब पुरस्कार के पैसे से तय होगा कि कौन अपने समय का बड़ा लेखक है ? रचनाओं से तय नहीं होगा ? केदार जी हों या कोई और, किसी भी हिन्दी कवि को यह पुरस्कार मिला होता तो वह कवि अपनी रचनाओं से बड़ा या छोटा नहीं होता ? फिर यह पुरस्कार क्यों ? कवि की कविता का सम्मान पाठक के हाथ में जाने से है या पुरस्कार की जूरी के सामने जाने से ? पुरस्कार को लेकर यह तो पृथ्वी की सबसे बड़ी नासमझी है भाई। संतोष की बात यह कि इस तरह की नासमझी हिन्दी के सभी लेखकों में नहीं है। उन लेखकों में ही है जो औसत लेखक हैं या पुरस्कारवादी लेखक हैं या जिन्होंने पुरस्कार को साहित्य का सबसे बड़ा सच और मूल्य मान लिया है या जो खुद हजार-पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर कुछ हजार या लाख के पुरस्कारों की कतार में हैं, न सिर्फ एक कतार में हैं, बल्कि कई कतार में हैं। किसी कतार में सिर फँसाया है तो किसी में हाथ, किसी में पैर, किसी में कुछ। ये पुरस्कारकामी लेखक हिन्दी के मर्द कवि नहीं है। जानता हूँ कि ऐसा कहते ही कई मित्र नाराज हो सकते हैं, पर क्या बिगाड़ के डर से पुरस्कार का सच नहीं कहूँगा ? स्पष्ट करना चाहता हूँ कि पुरस्कारकामी सिर्फ उन्हें नहीं समझता हूँ जो अपने घर में बैठे रहते हैं और कुछ लिखने के आधार पर पुरस्कार की कामना करते हैं। पुरस्कारकामी उन्हें कह रहा हूँ जो बाकायदा पुरस्कारों के लिए जहाँ-तहाँ नाक रगड़ते हैं। हद दर्जें की तिकड़म करते हैं। जाने दीजिए, क्या-क्या नहीं करते हैं। किसी ने एक दिन कवि के जीवन की बात की थी, कुछ ने कवि के जीवन को अदेख करने की बात की थी। शायद ऐसा ही कुछ था। न भी रहा हो, बस इतना कि हिन्दी में बड़ी कविताएँ कवि के बड़े जीवन के बिना संभव नहीं हुईं हैं। कवि का जीवन ही नहीं, बड़ी कविता के लिए साहित्य का बड़ा मूल्य भी जरूरी होता है। भक्तिकाल की महान कविता में पुरस्कार या अशर्फियों के लिए कहीं जगह है ? बाद की कविता में भी बड़ी कविता के सामने कहाँ ठहरती है पुरस्कारकामना ? इससे पहले कि कुछ और कहूँ, मर्द कवि के बारे में साफ कर दूँ कि शमशेर ने ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका लिखते हुए मुक्तिबोध को मर्द कवि कहा है। शमशेर न भी कहते मुक्तिबोध को मर्द कवि तो कबीर, निराला, मुक्तिबोध जैसे तमाम कवियों को बड़े मजबूत कवि के रूप में ही हम देखते। यह मजबूती दरअसल कहीं न कहीं कवि के जीवन से आती है। कबीर जब यह कह सके कि आन बाट ह्वै काहे न आया, तो इसमे उनके खरे जीवन की शक्ति शामिल थी। बहरहाल, कहना यह है कि मजबूत कवि होना और अच्छा कवि होना दोनों दो तरह की बातें हैं। अच्छे कवि तो बिहारी भी हैं, पर मजबूत कवि नहीं हैं। बात पुरस्कार की कर रहा था। ज्ञानपीठ की बात कर रहा था। अभी बिल्कुल अभी, हिन्दी के एक अच्छे कवि को मिला है। केदार जी हमारे समय में दिये जाने वाले इस पुरस्कार से खराब कवि नहीं हैं। यहा जो कुछ कह रहा हूँ सिर्फ पुरस्कार संस्कृति के विरोध में कह रहा हूँ। केदार जी के विरोध में नहीं।
     इस पुरस्कार को लेकर कई तरह की बातें इस माध्यम पर की गयी हैं। तमाम लोगों ने बल्लियों उछलकर स्वागत किया है, यह अच्छी बात है। कोई अपना या निकट का है या जिससे कुछ संबंध है, उसे मिले पुरस्कार पर बिल्कुल सकारात्मक प्रतिक्रया देना सही है। खुश होने का पूरा हक है ऐसे लोगों को जिन्हें पुरस्कृत कवि ने खुद कभी पुरस्कृत किया हो। यह साहित्य के शिष्टाचार का तकाजा है। जिस कवि को मिला है, निश्चित रूप से भले कवि हैं। भला केदार जी को भला आदमी कौन नहीं कहेगा ? कभी कहीं कोई लड़ाई-सड़ाई नहीं, सबसे मधुर संबंध। ऐसे कवि का अनिष्ट भला कौन चाहेगा ? पृथ्वी के सारे पुरस्कार केदार जी को मिल जाएँ तो भी किसी को तनिक भी दुख नहीं होना चाहिए। चिंता और प्रश्न यह कि पुरस्कार सबके लिए होते कहाँ हैं भाई ? मुक्तिबोध को मिला ? क्या मिला ? कई महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला। इसका अर्थ यह नहीं कि साहित्य के समाज में इन पर चर्चा नहीं होगी। कुछ तो लोग कहेंगे ही कहेंगे। कोई डरेगा नहीं तो इन बकवास पुरस्कारों का पूरा सच ही कहने लगेगा। जो डरेगा या जिसका स्वार्थ कभी सधा होगा या सधने वाला होगा या सधने की उम्मीद होगी या जिसे साहित्य में अपनी जाति सबको बताने की जल्दी होगी कि भाई लोग देख लो मैं भी पुरस्कारवादी हूँ, इसलिए बहुत खुश हूँ, ऐसे लोग ऐसे मौके पर पुरस्कारों कर सच्चाई पर बात नहीं करेंगे।
      बात केदार जी के प्रसंग के बहाने ही पुरस्कारों पर चल रही है।मैं केदार जी का मान कम करने की हिमाकत नहीं कर रहा हूंँ। कुछ प्रश्न और चिंताएँ है और विश्लेषण प्रश्नोंऔर चिंताओं की धरा पर ही संभव है। मैं एक छोटा-सा उदाहरण यहाँ रखना चाहता हूँ। केदार जी पूर्वांचल के कवि है। यह शहर पूर्वांचल का ही हिस्सा है। यहाँ से केदार जी का निकट रिश्ता रहा है। रिश्ता तो उनका यहाँ के कवि देवेंद्र कुमार बंगाली से भी रहा है। उन्होंने अपने प्रयास से बंगाली जी पर साहित्य अकादमी पर एक कार्यक्रम भी कराया। कुछ-कुछ बंगाली जी का प्रिय था मैं। बंगाली जी केदार जी को प्रिय थे। फिर मेरे और केदार जी के बीच कुछ तो प्रेम का रिश्ता होना चाहिए था ? पर केदार जी एक बहुत अच्छे कवि होकर अकवियों या कुकवियों या सिर्फ प्राध्यापकों या दूसरे तरह के लोगों से क्यों घिरे रहे ? इस अवसर पर क्या कहना चाहिए या क्या नहीं, यह पीछे छूट चुका है। जो सामने है कह देना है। जिसने बंगाली जी को हीर कविता से प्रेम करते अनुभव किया वह कवि उस काय्रक्रम से दूर था। इसलिए कि कुछ लोग या कोई गिरोह मेरे विरोध में था। यह अपने मान-अपमान की कथा नहीं कह रहा हूँ, सिर्फ केदार जी के कविता प्रेम और साहस की कथा कह रहा हूँ। बातें तमाम हैं, पर मैं कुछ और नहीं कह रहा हूँ। केदार जी में वह कम है, जो किसी कवि को बड़ा कवि बनाता है। सिर्फ यह कहने के लिए यहाँ का तनिक-सा प्रसंग उद्धृत किया। इस उदाहरण के पीछे मेरी कोई अन्य मंशा नहीं। इसलिए बात आगे बढ़ाता हूँ। किसी बडे से बड़े कविव्यक्तित्व के लिए न्यूनतम यह है कि वह किसी छोटे से छोटे कवि के साथ अनादर और अन्याय न होने दे। कोई स्वाभिमानी कवि ऐसा होने नहीं देगा। स्वाभिमान के नाटक भी बहुत होते हैं। वह भी पता है। आप किस तरह के लोगों के सामने झुक जाते हैं, किस तरह के लोगों के साथ रहते हैं, यह सब आपके कविव्यक्तित्व को बनाता है। केदार जी में बहुत मुलायमियत दिखी। कोमलता इतनी की पूछिये मत। यह हर समय दुर्गुण नहीं होता है। कभी-कभी हो जाता है। एक बात यहाँ साफ कर देना बहुत जरूरी है कि कुछ तो कमी मुझमें भी रही होगी। वह क्यो न बताऊँ ? मेरी कमी यह कि केदार जी जब भी यहाँ आते मैं उनसे मिलने नहीं जाता था। शायद एक या दो बार उनसे मिलने जाना हुआ होगा, पर वह बाहर जब भी और जहाँ भी मिलते अपनी कविता की सबसे लंबी मुस्कान लिए मिलते। बहुत प्यार से। यह जो सामने दिखता था, उनका गुण था। कुछेक शामें भी कई मित्रोंऔर नामी-गिरामी लेखकों के बीच गुजरीं। यह सब उनका गुण था। एक कवि के रूप में भी उनमें कम गुण नहीं हैं। रेशम के धागे से बुनी उनकी कविताएँ भला किसे अच्छी नहीं लगेंगी ?
         मुझे कहना ही हो केदार जी के कविरूप पर तो कहूँगा कि केदार जी हमारे समय सबसे सुदर, सबसे कोमल और सबसे ज्यादा उजले-धुले इकलौते खरगोश कवि हैं। हमारे समय की हिन्दी कविता के अरण्य में अपने कोमल पग में नूपुर डाल कर सबसे तेज दौड़ने वाले कवि। सबसे चतुर कवि। सबसे चौकन्ने कवि। यह केदार जी हैं और जो नहीं हैं, पूरा कहने का अधिकारी तो नहीं हूँ, पर कुछ अनुभव करता हूँ। केदार जी में जीवन का वह खुरदरापन नहीं देख पाया जो पहले के दूसरे कवियों के यहाँ है। वह संघर्ष नहीं देख पाया। यह मेरी सीमा रही होगी कि पहले के कवियों कबीर, फिर निराला, फिर मुक्तिबोध को पसंद करता रहा। मैं केदार जी को उन कवियों की पंक्ति में रखकर नहीं देख सकता। केदार जी मुझे इसके लिए क्षमा करेंगे। हालांकि केदार जी खुद भी इतने अज्ञानी नहीं हैं कि अपने को उन कवियों की पंक्ति में रखकर देखेगें। यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि पीछे चलने वाले नये कवियों की फौज सिर्फ इस माध्यम पर ही नहीं, बाहर भी कुछ इस अंदाज में जयकार करती है कि जैसे केदार जी ने कोई पुरस्कार पाकर कविता का कोई किला जीत लिया। अरे भाई पुरस्कार कविता का किला नहीं है। धंधा है। शुद्धरूप से धंधा। आखिर ज्ञानपीठ हो या अज्ञानपीठ या कोई भी पीठ, यदि वह सचमुच साहित्य को सम्मानित करने के लिए पुरस्कार देती है तो अपने समय के कवियों को क्यों ? क्यों नहीं जो पहले के महान कवि हैं उनके वंशजों और उत्तराधिकारियों में जो हों उन्हें बुलाकर सबसे पहले सम्मानित करती ? उसे भी छोड़िये। पहले के कवियों को पुरस्कार नहीं तो अब क्यों ? यह उम्र के आखिरी पड़ाव पर या शुरू में ही कवियों को पुरस्कृत करने की जरूरत क्यों ? उनकी रचनाओं के प्रकाशन और संरक्षण और जनसुलभ बनाने की कोशिशों की जगह ये पुरस्कार क्यों ? आज हिन्दी प्रकाशन जगत लूटमार का अड्डा बना हुआ है। किताबों के चयन में हजार बेईमानियाँ हैं। एक लेखक के महत्व को सीध्रो प्रकाशक नहीं समझता है, उसे कोई माध्यम चाहिए। कोई हो जो बताए कि यह अच्छा या खराब है। वह चाहे तो किसी अच्छे को खराब बताए और खराब को अच्छा। यह हिन्दी का सबसे भयानक है कि एक लेखक अच्छा लिखे और उसके बाद प्रकाशक और आलोचक के चरणों में सिर नवाये। लानत है ऐसे हिन्दी लेखक समाज पर। पुरस्कारों को लेकर भी क्या कम गंदगी है ? ऐसे में इस अँधेरे को दूर करने की जगह पुरस्कारों के प्रति यह आकर्षण क्यों ? या इसलिए कि आज के कवि पहले से बेहतर हैं ? या इसलिए कि आपके पास कुछ पैसों की व्यवस्था है तो आप साहित्य के पुरस्कारों का धंधा कर सकते हैं ? सच तो यह हमारे समय के पुरस्कारों ने साहित्य में इंसेफेलाइटिस फैलाया है, जिससे साहित्य के बच्चे विकलांग होते जा रहे हैं। इंसेफेलाइटिस पर मेरी कविता है, केदार जी की बनारस पर है। क्षमा करेंगे मुझे अपनी कविता का नाम नहीं लेना चाहिए था। पर कहना यह था कि केदार जी हमारे समय के तमाम कवियों से अच्छे कवि हैं, बल्कि बहुत अच्छे कवि हैं, बल्कि सबसे अच्छे कवि हैं, पर यह जरूरी तो नहीं कि पहाड़ की मिट्टी में वह तत्व हो ही जो तराई के किसी ढ़ेले में हो। हाँ कहना जरूरी है कि मुझे भी केदार जी की कविता मुग्ध करती है, पर नशा हर समय अच्छा हो जरूरी नहीं। केदार जी की कविता मुग्ध करती है, पर मुक्तिबोध की कविता उठाकर कंधे पर बैठा लेती है। केदार जी को किसी और तरह से कहना हो तो यथार्थ का नर्स कहना जरूरी चाहूँगा और मुक्तिबोध को सर्जन। एक बड़ी चीर-फाड़, बहुत सारा खून और फिर एक जीवन को संभव बनाता दृश्य। समाज को बेहतर बनाने का उपक्रम करता कवि। अपने समय के सच को फटकार कर कहता कवि। जोखिम उठाता कवि। मैं यह सब कह क्या रहा हूँ ? यह सब कहने की कोई जरूरत थी ? भला मुक्तिबोध का नाम लेने की क्या जरूरत थी ? केदार जी तो उस पंक्ति में हैं ही नहीं। क्या इसलिए कह रहा हूँ कि उनके अनुयायी बल्लियों उछल रहे हैं ? उछलें न क्या फर्क पड़ता है ? केदार जी से भला मुझे क्या ईर्ष्या ? वे अस्सी के मैं साठ के करीब ? बंगाली जी उनकी बड़ी इज्जत करते थे, भला उनके प्रति मेरे मन में असम्मान कहाँ से आ सकता है ? बंगाली जी की आत्मा मुझे डाँटेगी। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता। हाँ, यह जो कुछ कह रहा हूँ सिर्फ पुरस्कार को लेकर फैली महामारी के बारे में कह रहा हूँ। केदार जी का बहाना है, बस। ‘साहित्यिकमुक्ति का प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो’ में पुरस्कार से मुक्ति की बात कर चुका हूँ, पर वह बात केदार जी जैसे लोगों के लिए नहीं के बराबर और नये लोगों के लिए ज्यादा है। अखबार के लोग गँवरई करें तो बात समझ में आती है कि उन्हें कविता समझ में नहीं आती है, वे छोटे-बड़े पुरस्कारों के आधार पर ही किसी कवि का मूल्य तय करते हैं, लेकिन जब कविता करने वाले लोग ऐसी गँवरई करते हैं तो तकलीफ होती है। कहना सिर्फ इतना है कि यह नासमझी है कि ज्ञानपीठ पाने से या कोई भी पुरस्कार पाने से केदार जी हो या कोई भी कवि वह बदल नहीं जाता है। उसकी कविता जितनी अच्छी या खराब रहती है, पुरस्कार के बाद भी उतनी ही अच्छी या खराब रहती है। किसी कवि की कसौटी पुरस्कार नहीं उसकी रचनाएँ होती हैं। केदार जी को अच्छा कहें या बड़ा कहें, उनकी रचनाओं के आधार पर कहें। पुरस्कारों के आधार पर कवियों की पूजा साहित्य की सबसे बड़ी नासमझी है।
      कर्णसिंह चौहान की दो पुरानी पोस्ट से बात खत्म करना चाहता हूँ -
‘ पहली पोस्ट :
पुरस्कार प्रकरण
साहित्यिक भ्रष्टाचार के स्रोत
1-पुरस्कार लेना गलत है।
2-पुरस्कार देना गलत है ।
3-पुरस्कार समितियों में होना गलत है ।
4-पुरस्कारों पर बधाई देना और लेना गलत है ।
5-पुरस्कारों पर चर्चा करना गलत है
ये सब साहित्य में भ्रष्टाचार के स्रोत हैं ।
दूसरी पोस्ट :
पुरस्कार राशि का सदुपयोग
1-जितने सरकारी, अर्द्ध सरकारी, स्वायत्त और निजी पुरस्कार हैं - केंद्रीय, राज्य स्तरीय, स्थानीय, व्यक्तिगत - उनकी राशि को केन्द्रीय, राज्य स्तरीय, स्थानीय साहित्य कोषों में जमा कराना चाहिए ।
2- इस राशि को साहित्य और संस्कृति के विकास की योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए ।
3- इस राशि में से आर्थिक रूप से विपन्न मसिजीवी लेखकों और कलाकारों को नियमित सहायता दी जानी चाहिए । इसी में से बीमार पड़ने पर बिना सरकार के आगे हाथ फैलाए उनके इलाज का बंदोबस्त होना चाहिए ।
4-इस राशि में से लेखकों-कलाकारों के लिए भारत भर में ऐसे भवनों, स्थलों, रिजार्टों का निर्माण होना चाहिए जहां वे जाकर रचना-कर्म कर सकें या अवकास ले सकें ।
5-इससे पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिका संग्रहालयों, गोष्ठी कक्षों का जगह-जगह पर निर्माण होना चाहिए ।
        अगर साहित्यिक भ्रषटाचार का स्रोत बनी यह राशि पिछले 65 साल में इन कोषों में जमा होती और इन बुनियादी कामों पर खर्च होती तो अब तक एक व्यापक, सुंदर, साहित्यिक परिवेश का निर्माण हो गया होता । व्यक्तिगत पुरस्कारों के रूप में बांटकर उनका कितना सदुपयोग हुआ यह निश्चित करना मुश्किल है ।’
       मैं तो साहित्य का यहाँ का सबसे बुरा आदमी हूँ, मेरी बात खराब हो सकती है, पर कर्णसिंह जैसे तमाम मित्र जो कह रहे हैं, क्या वह भी खराब बात है ? पुरस्कारवादी या कामी जो कर रहे हैं करते रहें, मेरी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं, ईश्वर करें कि पुरस्कारवादी मित्रों को साहित्य में बहुत यश और सुदीर्घ जीवन मिले।



रविवार, 8 जून 2014

खूब मिले गुरुभाई

-गणेश पाण्डेय

प्रिय शिष्य होना सबके भाग्य में नहीं होता है। प्रिय शिष्य बहुत अच्छा भी हो सकता है और बहुत खराब भी। जाहिर है कि यहाँ अच्छा योग्य के अर्थ में है। अच्छा शिष्य अपने गुरु का मान बढ़ाता है तो खराब शिष्य घटाता है। मान बढ़ाने से आशय गुरु के काम को आगे ले जाने से है, न कि फूलमाला पहनाने और हरवक्त जयकार करने से है। खराब शिष्य तो ऐसे-ऐसे मौकों पर गुरु का नाम ले लेते हैं, जहां नहीं लेना चाहिए। गुरु का मान कहीं कम हुआ हो तो भी उसे सार्वजनिक उस दशा में नहीं करना चाहिए कि अपमान का प्रतिकार होने की जगह और बढ़ जाय। दुर्भाग्यवश मैं यहां प्रिय शिष्य नहीं बन पाया तो इसमें दोष किसी गुरु का नहीं था, मुझमें ही रही होगी कोई कमी। कुछ गुण कम रहे होंगे, उनसे जो प्रिय थे। भले मैं कुछ अच्छा नहीं कर पाया, पर कुछ गुरुओं का कुछ प्रेम तो मुझे भी मिला। गुरु कभी मुक्तमन या स्वेच्छा से किसी खराब से खराब शिष्य को अप्रेम नहीं देता है। मनुष्य जीवन में ऐसे क्षण कभी भी और कही भी आ सकते हैं, जब कोई बड़े से बड़ा ज्ञानी भी एक क्षण के विवेक से शिथिल हो जाय। चूक कहां नहीं होती है। चूक को मैं पाप नहीं मानता। हां जानबूझकर हो तो बुरा मानता हूँ, पर मेरे जीवन में ऐसी कोई बात किसी गुरु की ओर से रही हो, मुझे स्मरण नहीं। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे शोध में गुरु के रूप में श्रद्धेय रामदेव शुक्ल जी मिले। आज स्मरण कर रहा हूं तो इस प्रयोजन के साथ कि इधर कुछ लोगों ने जानबूझकर उन्हें दुख पहुंचाने के लिए उनके नाम का उल्लेख मेरी गुरु सीरीज की कविताओं के साथ किया है। विभाग में जब भी ऐसी कोई बात आयी तो मैने तुरत प्रतिवाद किया कि नहीं ऐसी बात नहीं, मेरे तो दस गुरु हैं। आशय यह कि किसे कविताओं में ढँ़ूढ़िएगा ? यह भी स्पष्ट करता कि यह कविता तो सत्ता के प्रतिरोध में है। सत्ता चाहे अकादमिक दुनिया की हो या समाज, धर्म या राजनीति, किसी भी दुनिया की। मैं मजाक में भी किसी को अपने गुरु के बारे में ऐसा कुछ कहते पसंद नहीं करता था। मेरी आखों से अपने गुरु रामदेव जी का वह पोस्टकार्ड कभी ओझल नहीं होता, जब उन्होंने मेरे जीवन में आयी एक दुख की घड़ी में लिखा था कि तुम पैसे की चिंता मत करो, शोधप्रबंध जमा हो जाएगा, आ जाओ। भला ऐसे गुरु के प्रति कभी असम्मान का भाव मन में आ सकता है ?
     साहित्य में कुछ करने की वजह से सभी गुरुओं के साथ एक लोकतांत्रिक या कह लें कि आलोचनात्मक रिश्ता भी बना। यह आलोचनात्मक दृष्टिकोण केवल साहित्य संबंधी सहमति या असहमति को लेकर होता है। यहां भटकने का खतरा है, इसलिए उस बेहद जरूरी हस्तक्षेप के लिए ध्यान खींचना चाहूंगा कि गुरु सीरीज के बारे में आचार्यगण ऐसी किसी नासमझी की बात न करें कि यह अमुक पर है या अमुक पर। उस सीरीज में एक कविता है-गुरु से बड़ा था गुरु का नाम-
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।
   इस कविता में जिस गुरु के बड़े नाम का उल्लेख है, उसके लिए ऐसे नाम की ओर देखने की जरूरत क्यों नहीं हुई, जिसके नाम में सबसे ज्यादा अक्षर हों या शब्द हों। विश्वनाथ जी का नाम बड़ा है ही, फिर उन्हें लक्ष्य क्यों नहीं किया गया ? क्या इसलिए कि उन्हें ऐसी असहज स्थिति में उनकी टीम के छुटभौये उन्हें खड़ा करेंगे तो उनका मान घट जाएगा ? मेरे कहने का आशय यह नहीं कि है कि उन्हें देखें। यह इस कविता के साथ अन्याय है कि आप उसे किसी व्यक्ति के साथ जोड़कर देखें। अन्याय ही नहीं, बल्कि कमअक्ली भी। विश्वनाथ जी में कुछ अच्छा है तो कुछ खराब भी। सबके साथ ऐसा होता है। कई बार मैं ऐसे खराब को आंतरिक विवशता के रूप में देखता हूं। जीवन में ऐसा बहुत कुछ होता है कि हम अपने प्रिय या अत्यंत उपयोगी के लिए बहुत योग्य को भी दूर रखते हैं। ऐसी दुर्बलता कहाँ नहीं है ? आंतरिक विवशताओं के विस्तार में नहीं जाना है। हाँ, वहाँ जरूर विरोध होता जब आप ऐसे अपात्र को अपने साहित्यिक उत्तराधिकारी की जगह देने लगते हैं। इस शहर में कोई कविसीढ़ी बनी, कोई कविक्रम बना तो किसे कहाँ रखेंगे ? जाहिर है कि कोई इसमें कोई बड़ा उलट-फेर नहीं कर सकता है ? कोई लाख उछल-कूद करे, लेकिन जब बाहर से आने वाले पचास से कम उम्र के साधारण कवियों को कवि के रूप में बहुत आदर देगा तो किस मुँह से और किस ताकत से मुझे या किसी को फूंककर उड़ा देगा ? मैं अधिक महत्व का अधिकारी नहीं हूँ। कोई किसी को न तो बड़ा बना सकता है, न छोटा। काम खुद बोलता है। काम का बोलना बेवकूफी का बोलना या मुँह इत्यादि का बोलना नहीं होता है। यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि गणेश पाण्डेय तो शुरू से ही विरोध का अभ्यस्त है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसे क्या कहता है, उसे फर्क तब पड़ता, जब उसका काम बोलता नहीं। मेरे बारे में जो बोलना है, सब बोल सकते हैं। जहाँ जरूरी होगा कुछ कहूँगा, जहाँ नहीं जरूरी होगा, बताकर अलग हो सकता हूँ। हाँ यह जरूर चाहता हूं कि मुझे छोटा बनाने में अपनी सारी शक्ति खर्च करने वाले आचार्य या लेखक-अलेखक किसी एक गुरु को पीड़ा पहुंचाने का काम और किसी की महानता के गुण गाने का काम न करें। बंद करें यह सब। इसलिए गुरु सीरीज की कविताओं से भयभीत रहने वाले लोग उस कविता को जितना चाहें बदनाम करें, बस उस कविता के नाम पर किसी गुरु को पीड़ा न पहुँचाएँ। ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि महान बनने की कोशिश कर रहा हूँ। अपनी कविता के बारे में मैं बेहतर नहीं बता सकता तो और कौन बताएगा ? सच तो यह कि गुरु सीरीज की कविताओं में सतह के नीचे की सारी हलचल के केंद्र में तो गुरुभाई हैं, हिन्दी के असली कापुरुष तो यही हैं, पर इतनी हिम्मत उन लोगों में कहाँ हैं कि वे लोग बताएं कि कौन-कौन हैं और हिन्दी की दुनिया में उनका असली चरित्र क्या है ? वे बता नहीं सकते हैं, क्यों कि वे खुद उसी टीम का हिस्सा हैं -
कैसे हो सकता था
कि जो गुरु के गण थे, नागफनी थे
जड़ थे, कितने कार्यकुशल थे।
आगे रहते थे, निकट थे इतने
जैसे स्वर्ण कुंडल, त्योरियाँ, हाथ।
क्या खतरा था उन्हें मुझसे
तनिक भी दक्ष नहीं था मैं
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं।
क्यों रोकते थे वे मुझे कुछ कहने से
जरूर हुई होगी कोई असुविधा
इसी तरह वैशम्पायन के गुरुकुल में
याज्ञवल्क्य से।
000
खूब मिले गुरुभाई
सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल
कुछ भी हो जाने के लिए
मेरे विरुद्ध।
बात सिर्फ इतनी-सी थी
कि मैं कवि था भरा हुआ
कि टूट रहा था मुझसे 
कोई नियम
कि लिखना चाहता था मैं 
नियम के लिए नियम।
   बहरहाल मैं अपनी कविताओं की व्याख्या नहीं करना चाहता। जानबूझकर किसी एक गुरु को दुखी करने की कोशिश के विरुद्ध बस हस्तक्षेप करना था, सो कर रहा हूँ। क्योंकि कुछ लोग  काव्यानुभव और जीवनानुभव की बात तो करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि काव्यानुभव कोई आकाश से नहीं झरते हैं, जीवनानुभव की गीली मिट्टी ही पककर काव्यानुभव बनती है। असल में ये आचार्य ऐसे कवियों की पूजा अधिक करते हैं, जिनके पास अपना जीवनानुभव कम होता है, बाहर के काव्यानुभव को ही अपने परिवेश में ढ़ाल लेते हैं। आज हिन्दी के बड़े समझे जाने वाले कितने कवियों के पास ऐसी कविताएँ हैं, जिन्हें लिखने में कोई जोखिम रहा हो। जीवनसंघर्ष में जिन्होंने साहित्य की स्थानीय सत्ताओं और केंद्रों का विरोध किया हो। प्रमोटी कविसंघ के सदस्य या अध्यक्ष न रहे हों ? यह सब इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि ऐसा करने से कोई बड़ा कवि बन जाता है, इसलिए कह रहा हूँ कि बड़ों के पीछे-पीछे चलने वाले छुटभैये उनकी उन कमजोरियों को भी जान सकें जो छिपाकर रखी जाती हैं। ये आचार्य न तो कविता की आंतरिक संगति या तर्क को समझ पाते हैं और न कविता की शक्ति को। इन्हें यह भी नहीं पता होता है कि किसी छोटे दुख से भी बड़ी या अच्छी कविता संभव हो सकती है और किसी बड़े दुख की कविता भी खराब बन सकती है। जिनके पास खुद की कोई भाषा नहीं होती, वह भला किसी लेखक की भाषा को कैसे जान सकता है। 
      मित्रो अघाये हुए लोगों की भाषा और रोटी के लिए संघर्ष करने वालो की भाषा का फर्क समझना चाहिए। मैंने भले खराब कविताएँ लिखी हों, पर किसी की गोद में या चरणों में बैठकर यह सब निश्चिंत भाव से नहीं किया है। कहीं कहा है कि यह सब एक हाथ में हिन्दी के राक्षसों से लड़ने के लिए तलवार और दूसरे हाथ में कलम लेकर कविताई की है। कई साल संघर्ष किया है। विश्वविद्यालय में दूसरा शिक्षक संगठन खड़ा किया, एक नहीं तीनबार स्कूटर दुर्घटना में मरने से बचा। मैं भी अमुक जी या ढमुक जी का पिछलग्गू या लठैत बन जाता तो साहित्य में भी कुछ हलवा-पूड़ी पाता रहता। कहना जरूरी है कि हिन्दी के आचार्य लठैत बनना अधिक पसंद करते हैं, वीर बनना कम। लठैत बनकर दाना-पानी और आफत से छुटकारे की पक्की व्यवस्था रहती है। जिसका चाहो सर फोड़ दो। कोई स्वाधीन लेखक हो या चोर-उचक्का, क्या फर्क पड़ता है। बस मालिक के सामने दुम दबी रहनी चाहिए। मालिक का नाम लेते रहना चाहिए। वीर मूल्यजीवी होता है। किसी अर्थपूर्ण मकसद के लिए संघर्ष करता है। साहित्य के अँधेरे को दूर करने के लिए। गंदगी साफ करने के लिए, न कि गंदगी करने के लिए। मुझे एक वीर का क्षणिक जीवन भी प्रिय है, किसी का लठैत बनने से अच्छा है, चुल्लूभर पानी की खोज करना। साहित्य में कभी किसी के साथ संबंध निभाने के लिए समझौता नहीं किया। अरविंद त्रिपाठी मेरे मित्र हैं, उनकी कमियों पर भी खुलकर कहा और उन्होंने कभी भी अवयस्क या अलोकतांत्रिक व्यवहार नहीं किया। इसलिए कि अरविंद जी लेखक हैं, हिन्दी के अहंकारी आचार्य नहीं। किताबों के रटने का अहंकार नहीं, रचने का अभिमान है, बल्कि आश्वस्ति है। एक लेखक कभी जीवन की आपाधापी में आंतरिक विवशता की वजह से निकृष्ट पर बहुत उपयोगी लोगों के साथ जुड़ा रह सकता है, लेकिन अगर वह सच्चा लेखक है तो उस निकृष्ट व्यक्ति की नाराजगी के बावजूद किसी सच्चे लेखक से रिश्ते की एक खिड़की जरूर अपने पास रखता है। गुरुओं में भी ऐसे लेखक हों तो आश्चर्य नहीं। उदाहरण के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं। अलबत्ता यहाँ सब लेखक ऐसे नहीं हैं। ज्यादातर लेखक साहसी नहीं हैं। विश्वविद्यालय के आचार्यों से बहुत डरते रहे हैं। शायद यह देश का पहला शहर होगा जहाँ के लेखक अपने शहर के अलेखकों से डरते होंगे। लेखक बनना उतना ही अच्छा है जितना अच्छा एक शिक्षक बनना है या एक अच्छा पाठक बनना है, लेकिन अलेखक बनकर साहित्य के परिसर में लठैती करना सबसे खराब काम है। ये अलेखक कई बार आयोजक, प्रशंसक इत्यादि की भूमिका में शहर के लेखकों को प्रभावित करने लगते हैं। शहर के वे लेखक जो भीतर से कमजोर होते हैं, साहित्य की स्थानीय सत्ता और उसके लठैतों के डर में जीने लगते हैं। हजार डर होते हैं, ऐसे लेखकों के पास, हाय ये मेरा नाम नहीं लेंगे, हाय ये मुझे कविता पढ़ने के लिए नहीं बुलाएंगे, इत्यादि। हद तो यह कि ऐसे भयभीत लेखक शहर की साहित्यिक वरिष्ठता साहित्य में काम से तय नहीं कर पाते, बल्कि विश्वविद्यालय की नौकरी की वरिष्ठता को ही प्रमाण मानने लगते हैं। हद है या नहीं ? जाहिर है, ऐसे लेखक भला किसी निडर लेखक को क्यों पसंद करेंगे ? बहरहाल उनसे कोई शिकायत नहीं कि उन्होंने साहस का पथ क्यों नहीं चुना, लेकिन संतोष की बात यह है कि इसी शहर में कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो एक सीमा में ही सही अपने हिस्से का सच कहने की कोशिश करते हैं। उनसे मिलकर अच्छा लगता है, उनसे बात करके अच्छा लगता है। अब ऐसे लोगों के विरोध से कोई फर्क नहीं पड़ता, जो खुद विरोध के काबिल नहीं हैं। कभी-कभी अपने जीवन को लेकर यह अनुभव जरूर होता है कि आखिर मुझे यहाँ कैसा जीवन मिला जो पाता ही आया विरोध-धिक जीवन जो पाता ही आया विरोध। ऐसी पंक्ति की रचना करने वाले महान लेखकों के चरणों की धूल भी नहीं हूँ मैं, लेकिन जीवन तो यहाँ कुछ-कुछ वैसा ही जिया। वीरता का एक कण भी कहीं पा सका तो बहुत है। उसी कण के सहारे कट जाएगी जिन्दगी। मुझे अपनी कविता से कोई पुरस्कार नहीं चाहिए।
    कविताएँ हमेशा पुरस्कार ही नहीं दिलातीं। कभी-कभी दण्ड भी दिलाती हैं। जब्त कर ली जाती हैं या जेल होती है। मैं जानता हूँ कि अपने पहले संग्रह में गुरुसीरीज की कविताओं की वजह से साहित्य की दुनिया में मुझे वनवास का दण्ड मिला है तो सिर माथे पर। कौन कहता है कि कविताएँ कुछ नहीं करती हैं ? कमजोर कवियों की कविताएँ अलबत्ता कुछ नहीं करती हैं। बहुत हुआ तो पुरस्कार की सूली पर लटक जाती हैं, बस।