शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

अथ आलोचक कथा

- गणेश पाण्डेय

शुभ्रवसना वीणा वादिनी ने पहले वीणा बजाकर
मुझे गहरी नींद में जगाया और सिरहाने आकर
मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए
मां की तरह मुस्कायीं

बहुत दिनों बाद सपने में मां आयी
पूछा- काहेक रोवत हौ के मारिस है
फिर मां ने ही कहा- तूड़ि देव ओकर हड्डी-पसली
उसके बाद मां अन्तर्धान हो गयी

और 
इस तरह कविताई करते हुए 
मैंने आलोचना की लाठी थामी 
और इस लाठी को
वंचित पीडित लेखकों की आवाज बनाया.

किसी के आलोचक बनने की 
इससे अच्छी कहानी और क्या हो सकती है
और कहानी भी ऐसी जो सिर्फ कहानी न हो.

कृपया उनसे कोई कहानी न पूछें
जिन्होंने अघाये हुए लेखकों के लिए
पूजा-पाठ चाहे लठैती की

जिनके जीवन में 
खुद की कोई कहानी नहीं थी
कोई वजह नहीं थी आलोचक बनने की
किसी तरह की बेहतरी का स्वप्न नहीं था
जिन्हें न तो बडे सुकुल जी बनना था
न छोटे सुकुल
जिन्हें बस ऐसे ही आलोचक बनना था
ममूली चीजों के लिए
बन गये।

(यात्रा 12)







2 टिप्‍पणियां:

  1. आपने ठीक ही लिखा है कि आलोचक बनना आसान नहीं। केवल अध्ययन आलोचना का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। जीवन दृष्टि विकसित करनी होती है। हालांकि यह प्रतिभा नैसर्गिक तो नहीं, उपार्जित ही है पर इसके लिए ईमानदारी और श्रम की बेहद आवश्यकता है। एक अच्छी कविता के लिए आपको बधाई सर।

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  2. आपका आंतर्य कवि का है। यह कविता भी मन को भायी। फिर नागार्जुन के हवाले से कह रहा हूँ− गहन अध्ययन करने वाला व्यक्ति अच्छा लेखक या कवि नहीं बन पाता। आलोचक बनने की तरफ़ निकल जाता है। आलोचक ईर्ष्यालु या फिर आत्मवादी जैसा कुछ हो जाता है। अपनों का ध्यान रखने के दबाव में रहता है। रचनाकारों को लेखनी से जुआ खेलने की प्रेरणा देने लगता है।

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