शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

कुछ नोट्स...

- गणेश पाण्डेय 
 1.
इंकिलाब के   जुगनुओं को सलाम...
December 28, 2012 at 6:42pm

हाल में पूर्वांचल की बिटिया के साथ देश की राजधानी में जो हुआ, वह देश के किसी भी हिस्से की किसी बिटिया के साथ न हो। किसी की भी बिटिया हो। मित्र की या शत्रु की, अमीर की या गरीब की, शहर की या गाँव की या जंगल की...दुनिया की किसी भी बिटिया के साथ ऐसा न हो।
     इस बिटिया के साथ जो घटित हुआ वह हर पिता को विचलित, भयभीत, अवाक कर देने वाला तो है ही, हर युवा भाई और बहन को आग की लपटों वाले गुस्से से भर देने वाला है। सच तो यह कि दिल्ली में मौजूद भाइयों और बहनों ने गुस्से से आगे का भी काम बढ़-चढ़ कर किया है...एक स्वतःस्फूर्त प्रभावी आंदोलन के रूप में। ये युवा भाई और बहन, पुरस्कारों के पीछे-पीछे भागने वाले लेखक और विचारक नहीं थे, सिर्फ इस देश के बेटे और बेटियाँ थे। जिन्हें अपनी जिम्मेदारी के एवज में कोई तमगा नहीं चाहिए था। जहाँ तक मैं हिंदी के लेखकों को जानता हूँ, वे सिर्फ और सिर्फ यशःप्रार्थी लेखक ज्यादा हैं, इस देश के बेटे और बेटियाँ बहुत कम। वे हिंदी के बेटे और बेटियाँ तो हैं नहीं, देश के क्या खाक होंगे ? बहरहाल, यहाँ बात हिंदी की नहीं, पूरा हिंद सामने है। इस देश का वर्तमान और भविष्य सामने है। कोई दस-बारह दिन से मेरे भीतर भी काफी-कुछ मथ रहा है। बेचैन कर रहा है। इतना कि शब्द भी मुश्किल में हों जैसे। यथार्थ इतना तीखा और भयावह है कि जैसे इस बीच पत्थर का हो गया था। लेकिन एक बात जो सचमुच का पत्थर हो जाने से बचाती रही, वह यह कि दिल्ली में देश के बेटे और बेटियों ने पेशेवर नेतृत्वप्रार्थी लोगों की अगुआई के बिना जो कमाल किया है, वह मिसाल है। बदलाव की बानगी है।
 जरूर किसी विचार और भावना की तीव्रता ने इन बेटों और बेटियों की कोमल आत्मा के तारों को छेड़ा है। जिस यथार्थ की तीव्रता ने इनकी आत्मा पर खरोंचें लगायी हैं, वाकई वह असाधारण है। उसी राजधानी में जहाँ नये राजाओं की मृत या कि कम जीवित आत्माओं का कोई प्रतिनिधि मिलनस्थल या कि कोई प्रेक्षागृह है। जहाँ मृत या कि कम जीवित आत्माएँ कभी समाजवाद या जनपक्षधरता या हिंदुत्व या अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का नाटक करती हैं तो कभी देश और समाज की असाधारण चिंता करती हुई दिखती हैं। पर इस बात पर कभी विचार नहीं करती हैं कि आजादी के बाद भी पुलिस और राजनीति का चरित्र और ढ़ाँचा वही क्यों है ? सत्तानुकूलित पुलिस क्यों ? जनानुकूलित पुलिस क्यों नहीं ? राजनीति सत्तामुखी क्यों है, सचमुच की जनपक्षधर क्यों नहीं ? राजनीति देश के बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हित के लिए क्यों ? जनता के लिए क्यों नहीं ?
  सच तो यह कि जब सत्ता और प्रतिपक्ष के माननीय विचार करना बंद कर देते हैं या कि कुविचार ( सत्ता बचाने और पाने का विचार) में डूब जाते हैं, तब जनता ही विचार करती है। अब तो  जनता के बीच से कुछ लोग निकल कर दल भी बनाने लगे हैं। शायद एक दिन ऐसा आये कि जब सचमुच की जनता सत्तावादी दलों की छुट्टी करके सीधे जनसत्ता की प्रतिष्ठा करे। अभी तो युवजन की यह निर्णायक अंगड़ाई हमारे सामने है। यही युवजन जिसदिन जनपक्षधर व्यापक राजनीतिक विचारधारा से लैस होकर निकल पड़ेंगे ऐसे ही, उसदिन देश की बेटियों और बेटों को सताने वाली व्यवस्था का अंत हो जाएगा। उसदिन यह देश लोकतंत्र के राजाओं और उनके बेटों का नहीं रह जाएगा।
 यह सच है कि मौजूदा जनांदोलन या कि सचमुच का युवांदोलन दिल्ली में हुई घटना से फूटा। पर इसे सिर्फ दिल्ली तक न समझा जाय। देश के बाकी हिस्से के बच्चे भी उसमें शामिल हैं। खुद जिस बिटिया के साथ हादसा हुआ, वह दिल्ली के बाहर की है, पूर्वांचल की है। अलबत्ता सुदूर गाँवों और जंगलों के आपपास रहने वाली बेटियों के साथ होने वाली ऐसी घटनाओं पर इस तरह का गुस्सा नहीं फूट पाया है। पर इस गुस्से को भी उन्हीं घटनाओं के क्रम में संचित गुस्से की अभिव्यक्ति के रूप में भी लेना होगा।
   यह युवांदोलन नई सदी का जनांदोलन है, इसे इसी तरह देखना चाहिए। यह पहले की प्रतिरोधचेतना का  नया संस्करण है। उम्मीद करनी चाहिए कि हमारे ये युवा अपने विचार और और अपनी भावना को प्रतिरोध की व्यापक विचारधारा से जोड़ कर नये भारत के निर्माण के लिए आगे बढ़ेंगे। इस सदी में या कि अगली सदी में, जब भी आए इस देश की मिट्टी से जुड़ा व्यापक इंकिलाब, इंकिलाब के इन असंख्य जुगनुओं को हजार सलाम।

December 29, 2012 at 11:12am
बेहद बुरा कि अब हमारे बीच देश की वह बिटिया नहीं रही, जिसने दिल्ली की देश जैसी उस बस में दरिंदों के साथ अपने संघर्ष की मिसाल पेश की और अपने संघर्ष को स्त्री-प्रतिरोध का प्रतीक बनाया। दामिनी सदेह हमारे बीच नहीं होगी, पर दामिनी हमारे बीच रहेगी अपनी स्त्री अस्मिता की जिद और प्रतिरोध की परमाणु-भट्ठी जैसी आत्मा के साथ...जनशत्रुओं के लिए बिजली की भयंकर कड़क और जनविरोधी सत्ता के केंद्रों का नाश करने वाली भ...ावना और विचार की ज्वाला के साथ। दामिनी...पूर्वांचल की बेटी...इस मजबूर महादेश की बेटी...श्रद्धांजलि...यह शब्द आज तुम्हारे लिए कितना छोटा पड़ गया है...और कितना अप्रत्याशित...जिस उम्र में तुम्हें अपने समाज से आशीर्वाद पाना चाहिए था, उसी उम्र में देश तुम्हें श्रद्धांजलि कह रहा है...यह इस लोकतंत्र की विफलता नहीं है तो और क्या है ?

2.
मजाज का स्मरण
November 6, 2012 at 8:01pm
आकाशवाणी गोरखपुर द्वारा हिंदी-उर्दू के कुछ लेखकों की जन्मशती के मौके पर कई कार्यक्रमों की श्रृंखला में आज पहले कार्यक्रम ‘‘ शताब्दी स्मरण - मजाज’’ से अभी-अभी लौटा हूँ। उर्दू की तरक्कीपसंद कविता के बड़े कवि मजाज लखनवी पर केंद्रित इस कार्यक्रम में शकील सिद्दीकी, अजीज अहमद  और अरविंद त्रिपाठी ने मजाज के जीवन और उनकी कविता के बारे में मूल्यवान तो कहा ही, मजाज की गजलों और नज्मों के पाठ ने श्रोताओं को अपने वश में कर लिया। मजाज लखनवी की इस ‘‘आवारा’’ शीर्षक कविता का भी पाठ किया गया-
शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ.

3.
साहित्य का जीहुजूरिया, लंठ और लठैत
October 30, 2012 at 10:20pm

मित्रो! विडम्बना यह कि समाज का ही नहीं, साहित्य का भी अपना एक मध्यवर्ग है। साहित्य का यह मध्यवर्ग भी समाज के मध्यवर्ग की तरह अपने उच्च वर्ग की खुरचन, कृपा और जूठन से खुद को परमतृप्त अनुभव करता है। छोटे-बड़े पुरस्कारो और थोड़ी-बहुत चर्चाओं से खुद को अघाया हुआ जीव समझता है। उसकी शक्ति और सीमा और प्रतिभा से कहीं अधिक (झूठमूठ का) मान-सम्मान पा जाने की यह प्रवृत्ति, उसे साहित्य का जीहुजूरिया और लंठ और एक अर्थ में लठैत भी बनाती है। लठैत कहने से यह भ्रम न हो जाये कि यह वीरता के अर्थ में प्रयुक्त है, इसलिए यह बात साफ कर दूँ कि लठैत का जीवन और कार्यव्यापार मूल्यकेंद्रित नहीं होता है बल्कि वह तो अपने आकाओं का गुलाम होता हैं। वहीं एक वीर का जीवन और कार्य मूल्यकेंद्रित और स्वाधीन होता है। दुर्भाग्यवश जैसे समाज और राजनीति में एक निम्नवर्ग होता है, उसी तरह साहित्य में भी एक निम्नवर्ग होता है। जाहिर है कि निम्नवर्ग के लोग हाशिए का जीवन जीते है। कहना न होगा कि यह हाशिए का जीवन उन्हें बहुत-सी जीवनोपयोगी चीजों से वंचित तो करता है पर उनके जीवन को मूल्य और विचार से संपृक्त करता है और अपने हक के लिए संघर्ष की ताकत भी देता है। साहित्य में भी कुछ लोग हाशिए का जीवन जी रहे हैं। पर अपनी इच्छा से। वे भी चाहते तो कूद कर साहित्य के मध्यवर्ग के डिब्बे में बैठ सकते थे। बस एक अदद या एकाधिक गॉडफादर बनाने की देर थी। गॉडफादर आज सबसे अधिक हिंदी साहित्य में सुलभ हैं। वे तो इसीलिए पैदा ही हुए हैं, अच्छा और अविस्मरणीय लिखने के लिए नहीं। हर शहर के उच्चवर्ग में ये मिल जाएँगे। पर ज्यादातर लेखक राजधानी में गॉडफादर चुनते हैं। क्योंकि वहाँ उनका एक नेटवर्क होता है। गुट होता है। गिरोह होता है। जिसमें कई तरह के प्रभावशाली लोग, संपादक-पत्रकार, संस्थाएँ, अखबार, पत्रिकाएँ और बड़े प्रकाशनकेंद्र होते हैं।
इस मध्यवर्ग के उड़नखटोले में बैठे हुए वे तमाम लोग हाशिए का जीवन जीने वाले और प्रतिरोध की आवाज पैदा करने वाले लेखकों को बर्दाश्त नहीं कर कर पाते हैं। विडम्बना यह कि उनसे टकरा भी नहीं पाते हैं। वे जो साहित्य में हाशिए का जीवन आज जी रहे हैं, रचना और आलोचना में बेहतर कर रहे हैं। अपने हिस्से का पूरा सच कह रहे हैं। अपने जीवन के ताप से जो रच रहे हैं, वह उन मध्यवर्गीय लेखकों से अच्छा ही नहीं बल्कि नया भी है। इसीलिए ये हाशिए का जीवन जीने वाले, जिन्हें हाशिए का जीवन जीने वाले उपेक्षित और वंचित जन की तरह किसी पुरस्कार और यश की इच्छा नहीं है, वे तो बस साहित्य की धरती के लिए लड़ रहे है। साहित्य के अरण्य के लिए रण कर रहे हैं। आने वाली पीढ़ी के लिए लड़ रहे हैं।
 जैसा कि पहले कहा गया कि अपने-अपने गाफडफादरों और उप गॉफडफादरों के ‘जीहुजूरिया और लठैत’ टाइप के छोटे-बड़े लेखक साहित्य में हाशिए का जीवन जीने वाले लेखकों को अभी साहित्य का नक्सली नहीं कह रहे हैं। ये कुछ भी कहें क्या फर्क पड़ता है....पता नहीं साहित्य के सांगठनिक क्रांतिकारी साथियों को कोई फर्क पड़ता है या नहीं!

4.
आज के यथार्थ को देखने और विश्लेषित करने की दृष्टि
October 27, 2012 at 7:46am

‘‘रावण का पुतला’’ के बहाने कुछ लोगों का मानना है कि ये मिथकीय चरित्र आज के यथार्थ को देखने और विश्लेषित करने की दृष्टि से बेकार की चीज हैं। इनसे बाहर आकर आज के संघर्ष को किसी और आँख से देखने और समझने की जरूरत है। क्या आज का यथार्थ इतना जटिल है कि जिसमें राम और रावण अपने अँगरखे अदल-बदल कर साधारण जन को भ्रम में डाल दे रहे हैं। आज इनकी पहचान मुश्किल हो गयी है ? ये एक-दूसरे में इतना गड्डमड्ड हो गये हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि रावण ही पार्ट टाइम राम की भी नौकरी पर है। कहीं ऐसा तो नहीं कि रावध ने राम के नाम पर भी अलग से एक दुकान खोल ली है। इसलिए हम देख नहीं पा रहे हैं और सब गड्डमड्ड हो गया है। हम लोग ठहरे पुराने जमाने और सोच के लोग। चीजों को किसी रंगीन फिल्म-विल्म की तरह देख नही पा रहे हैं। आज के यथार्थ को मिथकों से विश्लेषित नहीं कर पा रहे हैं तो भला यह कैसे देख रहे हैं कि राम जी का ध्यान सीता को छुड़ाने में नहीं, बल्कि लंका के सोने में है ? क्या यथार्थ का यह विश्लेषण सही नहीं है ? फिर यथार्थ क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं ब्लैक और ह्वाइट में देखने से मना करने वाले मित्र यह कहना चाहते हैं कि रावण को भी राम का खेला खेलने दीजिए, राम बनकर यश और पुरस्कार बटोरने दीजिए, अपने समय का नायक बनने दीजिए, रावण भी क्रांति कर सकता है, रावण भी मुक्तिबोध को अपने भीतर साहित्य के मोर्चे पर घटित कर सकता है। सत्ता सिर्फ राजनीति की नहीं होती है। धर्म समाज, साहित्य कला आदि विभिन्न क्षेत्रों की होती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं काला और सफेद में बाँटकर यथार्थ को देखने का विरोध करने के पीछे खोटे सिक्कों को चलाने की बात हैं। यों समय तो ऐसा है ही जब एक-दो रुपये नहीं बल्कि हजार-पाँच सौ के नोट जाली होते हैं। साहित्य में मैं साफ-साफ ऐसा देख रहा हूँ। बाहर के बारे अधिक नहीं जानता, पर यहाँ गोरखपुर में रावण और राम वगैरह की कविता हो या आलोचना या उपन्यास, आमने-सामने रख कर देखने पर फर्क दिखता है। बहरहाल बात ‘‘रावण का पुतला’’ के जरिये राजनीति पर केंद्रित है। हमारे समय की राजनीति पर।
दूसरी बात है कि आज की राजनीति का विकल्प क्या है ? हम जिस भ्रष्ट लोकतंत्र में साँस ले रहे हैं, उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं, यह विदित है। आज हमारे पास सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों का क्या विकल्प है ? सच तो यह कि प्रतिपक्ष का अर्थ ही सत्ता का विकल्प है। राजनीति में विकल्प का अर्थ वहीं नहीं है बल्कि उससे बेहतर है। यह बेहतर मिलेगा कहाँ ? कोई दुकान है ? या प्रोफेसर लोग विकल्प की कोई डिग्री देंगे ? क्या तोप का विकल्प बाँस है ? कई प्रश्न हैं। साहित्य में सत्ता पक्ष का विकल्प है अच्छी रचना। राजनीति में क्या विकल्प हो ? बुरी राजनीति का विकल्प क्या अच्छी राजनीति नहीं ? ऊपर जिस भ्रष्ट राजनीति की बात की है, उससे बचकर अर्थात उससे आमने-सामने की टक्कर के बिना कोई और विकल्प है ? ‘‘तोंदिया बादल’’ कविता का अंश है-
‘‘आप बादलों के दल हैं
दलदल हैं
जिसमें जनता धँस तो सकती है पर जिससे निकल नहीं सकती है
कानून की इस जादुई किताब में
जनता को दलों के इस कीचड़ में धंसते चले जाने के लिए
विवश करने का कोई बाध्यकारी कानून है
पर निकलने के लिए एक नन्ही-सी भी धारा नहीं है
और दबी जुबान से भी
हम कह नहीं सकते कि यह संविधान हमारा नहीं हैं’’
इस मुश्किल में क्या रास्ता है भाई इससे निकलने का ? सवाल यह है कि अंग्रेजों के समय में भी मुश्किल कानून था, पर देश आजाद नहीं हुआ क्या ? क्या हम राजनीति में सफाई का कोई आंदोलन नहीं चला सकते हैं क्या ? राजनीति को बदलने की कोशिश नहीं करेंगे तो सत्ता के इस क्रूर तिलिस्म को तोड़ने का और क्या उपाय है ? क्या सफाई का आंदोलन भी उतने ही बुरे लोग चलाएँगे ? गंदे लोग सफाई पर महाकाव्य लिखेंगे ? मित्रो विरोध के लिए विरोध अंधा बना देता है। बदलाव के लिए विरोध से राहें खुलती हैं। क्रांतिकारियों का नाम लेने से चीजें नहीं बदलती हैं, जीवन में ‘‘छोटे से छोटा’’ क्रांतिकारी बनने से चीजें बदलती हैं।

5.
पुरस्कारों के बारे में एक नन्ही-सी जिज्ञासा
October 20, 2012 at 10:34am
आरंभ में प्रार्थना
कि इसे आत्मश्लाघा समझने की कृपा न करेंगे।
यह सिर्फ और सिर्फ पुरस्कारों के बारे में एक नन्हीं-सी जिज्ञासा है।
आज अस्सी के बुजुर्ग से लेकर बिल्कुल नये-नये जन्म लेने वाले युवतर लेखक तक पुरस्कारों और यश के लिए विकल हैं न कि अपने काम के लिए, उनके लिए लिखना कोई ड्यूटी नहीं, बल्कि अमर होने का जरिया है। ऐसे में यह संवाद कुछ कहता है। विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित शिक्षक ने रीफ़ पढ़ कर मुझे एसएमएस किया-
‘‘आपके उपन्यास में सबसे मार्मिक हिस्सा मुझे रीफ की बीमारी वाला अंतिम हिस्सा लगा। कई बार रोया। पूरा उपन्यास खासा प्रभावकारी है।’’
मित्रो यहाँ तक मेरे लिए सब सामान्य था। कुछ इसी तरह कई सहृदय मित्रों ने लिखा था। पर जब उस एसएमएस में आगे लिखा गया -
‘‘शोभा निलयम और कुशीजी को देखने की इच्छा है।’’
तो मेरी आँखें नम हो गयीं।
मेरे लिए यह बड़ी बात थी कि कोई पाठक मेरे किसी पात्र से मिलना चाहे या उस परिवेश को सचमुच देखना चाहे। किसी कृति की कामयाबी किसे कहते हैं, यह आप से आप समझ गया। जानना सिर्फ यह है कि यह कि किसी पाठक का यह कहना कि ‘‘शोभा निलयम और कुशीजी को देखने की इच्छा है।’’ मेरे जैसे तुच्छ लेखक के लिए ‘‘किस’’ पुरस्कार से कम है ? फेसबुक के साहित्य के जानकार मित्रों से इसलिए भी जानने की इच्छा है कि मुझे पुरस्कारों के महत्व के बारे में बहुत कम पता है।
मैंने जवाब में लिखा-
‘‘बहुत अच्छा लगा कि आपने पूरा उपन्यास देखा और इसके मर्म को छुआ। बहुत धन्यवाद।‘‘
फिर एसएमएस आया और उसमें मुझे दुरुस्त किया गया -
‘‘पूरा उपन्यास ‘देखा’ नहीं, पढ़ा है सर जी।’’
मैंने लिखा-
‘‘हाँ, मेरे कहने का वही आशय है। आपने बहुत गंभीरता से पढ़ा है।’’
मैंने उन्हें ‘‘धन्यवाद।’’ लिखा तो उन्होंने लिखा कि ‘‘धन्यवाद तो आपको....’’
यह धन्यवाद भी ‘‘किस’’ पुरस्कार से कम है ?
मैं जानना चाहता हूँ कि यह  ‘‘शोभा निलयम और कुशीजी को देखने की इच्छा है।’’  ‘‘किस’’ पुरस्कार से कम है ?  पुरस्कारों के बारे में जानने वाले मित्र मेरी मदद जरूर करेंगे  कि  अमुक...अमुक...अमुक... पुरस्कार से कम है।

6.
कम कविता के दिन थे
August 17, 2012 at 11:36am

मित्रो, परसों एक साहित्यक मित्र की इस टिप्पणी को अपने ब्लॉग पर देखने का अवसर मिला। युवा लेखक मित्र की इस टिप्पणी ने मेरे विश्वास को दृढ़ किया कि सच को कहने वाले भी हैं और उसे पसंद करने वाले भी। इस टिप्पणी में कहा गया है कि ‘‘ मैं खुद ही इस बात से बड़ा दुखी रहता हूँ की युवा रचनाशीलता किस तरह से कीड़ेमकोड़े की तरह पद पुरस्कार और यश की तलाश में हिन्दी के स्वयंभू"महान "कहें जाने वाले माफियाओं के आगे पीछे रेंगती है और इस तरह से जुगाड़े सम्मान को सर लगाये घूमती है .महानो की महान्गिरी तो चलेगी ही जब ऐसे जंतु उनके बड़े में बने रहेंगे .... कल संयोगवश एक काम से मुझे अपने दूसरे कविता संग्रह ‘ जल में’ को पलटते हुए यह कविता देखने को मिली ‘‘ कम कविता के दिन थे’’। आज फिर सच को पसंद करने वाले मित्रों के साथ अपनी इस कविता को साझा करने का मन हैः

कम कविता के दिन थे
कुछ करने के दिन न थे
कविता के लिए मरने के दिन न थे
जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।
रोशनी का काम उनके जिम्मे न था
जिनके पास कुछ ढ़का-छिपा न था।
गजब का मंजर था सामने
टुटही हरमुनिया थी
वक्त-बेवक्त राग जैजैवन्ती गवैया थे
वही झाँझ-करताल वही बजवैया थे
बड़े-बड़े घुटरुन चलवैया थे
कुछ थे जो
बाहरी जहाजों पर कूद-कूद चढ़वैया थे
कई तो अपने ऊपर ग्रंथ छपवैया थे।
रटन्त विद्या के दिन थे
एक कविता दौर के अन्तिम दिन थे
दृश्य उन्हीं का था
जिनके जीवन में कोई संग्राम न था
जीवन छोटा था
कम कविता के दिन थे
फिर भी कुछ पागल थे बचे हुए
जिनके हौसले थे कि कम न थे।
(‘जल में’ से)

















-गणेश पाण्डेय 

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