सोमवार, 14 जनवरी 2013

नये कवियों में इतना डर क्यों है

 - गणेश पाण्डेय


बंधुवर, एक बार फिर आपके आयोजन में न पहुँच कर मैंने आपको दुखी किया है। इस बार अस्वस्थ हूँ। इस वजह से। जाहिर है कि वहाँ रचनाशिविर में कई युवा मित्र आयेंगे, जिनसे मिलना मेरे लिए सुखद होता। पर कई बार हम चाहते हैं कुछ और हो जाता है कुछ। ऐसे ही आज की कविता के साथ भी होता है। कई बार आज की कविता जिसे हमारे पास आना होता है और हमारे पास आ नहीं पाती है। कभी कविता की सेहत खराब होती है तो कभी कविता का टिकट पक्का नहीं होता है। कभी-कभी कविता की गाड़ी छत्तीस घंटे लेट होती है। कभी कोहरे में कहीं कोई दुर्घटना या पहिये का पटरी से उतर जाना वगैरह, जैसी तमाम स्थितियाँ समकालीन कविता ( जिसे मैं नई सदी की कविता कहना पसंद करता हूँ ) कही जाने वाली कविता के साथ अक्सर होती हैं। फिर भी कविता की गाड़ी तो चलेगी ही, चाहे जैसे। ऐसे ही कविता की गाड़ी भी चल रही है। कोई सुपरफास्ट गाड़ी नहीं है। बस, एक सवारी गाड़ी है, जिसमें अच्छा-बुरा कोई भी बैठ सकता है। टिकट हो या न हो, कोई मजिस्टेªट चेकिंग नहीं है। डर तो रत्तीभर नहीं है। डिब्बे में कहीं भी गंदगी कर सकते हैं,मूंगफली के छिलके फेंकना तो आम बात है, छेड़खानी से लेकर चीरहरण और किसी की गठरी, किसी का पर्स, किसी का ब्रीफकेस लेकर दिनदहाड़े भागने तक कांड तो कोई भी कर सकते हैं।
  आज की कविता के अनेक कांड हैं। लंका कांड भी है। कांड करने की कला में प्रवीणों के बारे तो पूछिए मत। पृथ्वी पर कोई ऐसा कांड नहीं है, जिसे ये कर न सकें। कविता का टेंटुआ सौ प्रकार से दबाने की कला में इन्हें महारत हासिल है। ये इस धरती पर कविता को मिटाने के लिए ही पैदा हुए हैं। पर इनमें सब का तरीका जुदा-जुदा है। कोई कविता की कानी उँुगली काट कर तृप्त हो जाता है तो कोई उसकी बाँह में चिकोटी काट कर तो कोई उसका दुपट्टा खींच कर तो कोई उसके मुँह पर तेजाब फेंक कर। ये जंगली कवि हैं। ये वहशी आलोचक हैं। कविता इनके लिए सामाजिक होकर भी पैरों में रहने वाली बीवी और दिल में बसने वाली प्रेयसी जितनी व्यक्तिगत है। कवि की सेवा करे, आलोचक से इश्क फरमाये और इन दोनों को पुरस्कार और सुख-सुविधाएँ दिलाए। कहने के लिए ये पठनीयता और पाठक का राग काढ़ते हैं, पर इनका पाठक नाम की विलुप्त प्रजाति से कुछ भी लेनादेना नहीं है। पठनीयता की बात क्या खाक करेंगे, जब ये खुद इस मोर्चे के फिसड्डी होते हैं। पर बनते हैं ऐसे जैसे राजधानी में बैठ कर पूरे देश से बात करते हों और सब सुन और गुन रहे हों। राजधानी के नेता सौ फीसदी झूठ बोलते हैं तो साहित्य के ये नेता दो सौ फीसदी झूठ बोलते हैं। ये मानते हैं कि जैसे मकान राजधानी में शहरी तौर-तरीके के बनते हैं, मकान वैसे ही होते हैं। कविता के मकान वैसे ही होने चाहिए। ये हरगिज इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते कि राजधानी से हजार किलोमीटर दूर छोटे-मोटे कस्बों और गाँवों में खपरैल और कच्ची मिट्टी की दीवारों से बने खपरैल और फूस के घर भी उतने ही संुदर हो सकते हैं या उसमें रहने वाले मनुष्यों या चरित्रों का या उनका हृदय उनसे अधिक निर्मल हो सकता है।
    यह चिंता स्वाभाविक है कि हमारे समय में कविता का श्रेष्ठ मॉडल चंद पुरस्कारीजन कैसे तय कर सकते हैं। यह तो वही बात हुई कि इस देश की जनता का भविष्य सिर्फ कुछ अघाये हुए प्रतिनिधि लोग तय करें। राजनीति में तो यह नहीं सभंव है कि चुने हुए प्रतिनिधियों को उनके आसन से नीचे उतार दें, पर साहित्य में ऐसी कार्रवाई की एक श्रृंखला है। अपने समय के बहुत से जरजरात कवियों को एक नन्हे जुगनू भर की हैसियत भी बाद में नहीं मिली। ऐतिहासिक क्रम का लाभ भले मिल गया हो। इसलिए आज के कवि और आलोचक को यह देखना होगा कि वह कहाँ खड़ा है ? उसे तय करना होगा कि वह गोरखपुर, सिद्धार्थनगर, देवरिया, बलिया या बनारस, रायपुर, रायगढ़, बिलासपुर का कवि है या दिल्ली का ? अगर उसके भीतर अपनी कर्मभूमि के प्रति तनिक भी लगाव है तो उसे अपनी मिट्टी की आवाज को बड़े गौर से सुनना होगा। अगर वह अपनी मिट्टी का गद्दार है तो मुझे उस गंदे आदमी से कुछ नहीं कहना है। मुझे अपने लोगों से बात करनी है। अपनों के बीच में रहना है। उनका होकर। मुझे देखना है कि आज की कविता में हमारे अंचल, हमारे परिवेश, हमारे अड़ोसपड़ोस, हमारे जीवन की पुकार है कि नहीं ? यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं गोरखपुर और सिद्धार्थनगर जैसी जगहों के नामीगिरामी गद्दार आलोचकों को भी जानता हूँ। ऐसे कवियों को भी जानता हूँ, जिन्हें अपनी कविता से अधिक प्रेम आलोचकों की झूठी शाबाशी से है। हमारे समय की कविता की दुनिया में टूटफूट की असल वजह भी यही है। आलोचक कहेगा कि फलाना विमर्श और फलाना विचारधारा अमृत है तो ये कूड़े के ढेर पर बैठकर उसका पान करने लगेंगे। फलाना आलोचक-कवि कहेगा कि स्त्रीदेह ही कविता का परम सत्य है तो ये उस आलोचक कवि को महान कवि समझने लगेंगे। वही आलोचक बड़े गर्व से कहेगा कि मैंने कोई एक हजार कविताएँ लिखी हैं, तो ये युवा कवि-लेखक उसे संख्या के आधार पर सचिन की तरह कविता का महान खिलाड़ी समझ लेंगे। कविता की दुनिया में भला संख्या का क्या महत्व ? यह कोई क्रिकेट का खेल थोड़े है। एक बार मेरे शहर में हरदम ससुरा-ससुरा कहने वाले एक ऐसे ही कवि ससुरे आये हुए थे और जब वे हजार कविता लिख चुकने की रट लगाये जा रहे थे तो मुझे लग रहा था कि वे भारतरत्न जैसी कोई चीज चाह रहे हैं क्या ? किसी की भी हजार कविताएँ आज तक स्मरणीय नहीं रही हैं। कुछ कविताएँ होती हैं जो याद रह जाती हैं। जब निराला की सभी कविताएँ स्मरणीय नहीं हुईं तो किसी अमुक-ढ़मुक की कितनी कविताएँ याद की जाएंगी ? मुझे तो लगता है कि खराब कविता, पान की पीक की तरह थूकते हुए लिखी जाती है तो अच्छी कविता कवि के ईमान और गहरे सरोकर से बनती है और स्मरणीय कविता के लिए कवि को अपना पूरा जीवन उसके सुपुर्द कर देना होता है। तब कहीं जाकर ढंग की कोई कविता बन पाती है।
  यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पान की पीक वाली कविताएँ अधिक हैं। आलोचना के साथ भी यही बात है। नित्य रिव्यू और अपने चाहने वाले औसत कवियों को उम्दा कवि बनाने की विफल कोशिश आखिर है क्या ? जैसे कविता में अच्छे विचार आते हैं, उसी तरह कविता में कवि का विवेक भी आना चाहिए। जब नाई बाल काटने में तनिक भी जल्दबाजी नहीं करता है, एक माँ अपने बच्चे को दूध पिलाने में जल्दबाजी नहीं करती है, खुद आप अपने नाखून काटने में जल्दबाजी नहींे करते हैं तो भाई कविता के साथ ही यह लड़ाकू विमान की गति क्यों ? ठहर कर चलिए, नही तो चोट लग जायेगी। आप को न सही, आपकी कविता का हाथपाँव टूटफूट जायेगा। फिर बेचारी कविता का क्या होगा ? आप तो किसी भी रंग और कदकाठी के पुरस्कारों के संग कहीं हनीमून मनाने चले जायेंगे। आपका क्या ? और आलोचक आपका ? यह जल्दबाजी केवल कविता की बुनावट को लेकर नहीं है, संवेदना की पहचान को लेकर भी है। उन्हीं-उन्हीं दुकानों के पान, वही मगही पान का बीड़ा, वही गमकने वाली जर्दे की खुश्बू, वही चूने का कम या तेज हो जाना। सुपाड़ी खाना, सुपारी लेने में बदल जाना। कविता की मुश्किलों का अंत नहीं है।
  कविता की संवेदना या यथार्थ का दुहराव और रचाव की पुनरावृत्ति , एक बड़ी समस्या है। यह समस्या पहले भी रही है। पर पहले के कवि जानते थे कि मुख्यधारा में बह कर किया गया लेखन महत्वपूर्ण नहीं होता है। इसलिए उन्होंने अपनी निजता की छाप को तजने की कोशिश नहीं की है। मुझे तो मुक्तिबोध जैसे कवि में भी उनकी अपनी छाप खूब दिखती है। दुर्भाग्यवश आज दृश्य यह है कि प्रगतिशील मित्रों ने प्रगतिशीलता के मुहावरे और कविता के औजारों के चुनाव में अपने विवेक का कम इस्तेमाल किया है। बस, ऐसे-ऐसे और इन्हीं-इन्हीं रास्तों पर दौड़ लगाते हुए कविता का मैराथन जीत लेना है। मुक्तिबोध कैसे प्रेम के प्रतीक चाँद को पूँजीवाद का प्रतीक बना देते हैं, मुक्तिबोध कैसे मार्क्सवाद के साथ ईमानवाद को मिला देते हैं, मुक्तिबोध कैसे विचारधारा को अपने समय और जीवन की आँख से देखते हैं, इस बात से आज के घोषित प्रगतिशील युवा मित्रों को क्या कुछ लेना-देना है ? उन्हें कठिन जीवन जीने वाले कवि नहीं दिखते हैं। उन्हें अपने समय का सुगम संगीत अधिक भा रहा है। पुरस्कारों के इस जमाने में मार्क्सवाद मुझे तो कभी-कभी मजाक लगता है। इतना छोटा हो गया है आज मार्क्सवाद कि पाँच सौ रुपये के पुरस्कार से भी छोटा लगता है। सामाजिक सरोकारों का राग काढ़ने वाले नौजवानों का पुरस्कारों के खड्ड में कूद जाना क्या खुदकुशी नहीं है ? अच्छी कविता का रास्ता पुरस्कारों के पेड़ के नीचे से होकर नहीं जाता है। यह जाने बिना हम अपने समय की अच्छी कविता रच ही नहीं सकते हैं। पिछले दिनों एक कवि से बातचीत के क्रम में यशपाल का संदर्भ आ गया तो कहा कि जैसे यशपाल जैसे कथाकार एक ओर परदा जैसी कहानी लिखते हैं तो दूसरी ओर करवा का व्रत जैसी दाम्पत्य संबंधों पर लिखी कहानी से प्रगतिशीलता का पाट चौड़ा करते हैं, उसी तरह या उससे भी अच्छी तरह कविता के परिसर को चौड़ा करना चाहिए। प्रगतिशीलता का प्रेम, प्रकृति और घर-संसार से कोई बैर नहीं है। हर समय तनी हुई मुट्ठी ही नहीं रहनी चाहिए, कभी उुँलियों को उनके स्वाभाविक मुद्रा में भी रहने देना चाहिए। ताकि वे अपने बच्चों और प्रिया के केश छू सकें। सहन में लगे गेंदे के फूल को जीभर निहार सकें। अपनी गाय, अपनी बकरी, अपने श्वान की पीठ सहला सकें। अपने आसपास को गौर से देख और महसूस कर सकें। आर्थिक उदारीकरण और विश्वबैंक और विश्व मुद्रा कोष के विरोध में हजारों कविताएँ लिखी गयी हैं, पर उनमें से अच्छी कविताएँ कितनी हैं , अविस्मरणीय कविताएँ भी हैं क्या ? साम्प्रदायिकता पर भी हजारों कविताएँ लिखी गयी हैं, पर अच्छी और अविस्मरणीय कितनी हैं ? मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि एक कवि को इन विषयों पर काव्य रचना से मना किया जाय, पर इतना जरूर चाहता हूँ कि मिनट-मिनट पर ऐसी ही कविताएँ लिखने के नुकसान से वाकिफ कराया जाय। एक कवि इस तरह के विषयों पर दस-पन्द्रह कविताएँ लिख दे या एक-दो अच्छी कविताएँ बन जायें तो बहुत है। इन पर एक समय में मैंने भी लिखा है। लेकिन आज तक वही लिखता रहूँ, यह मेरे लिए संभव नहीं है। औरों को भी इससे बचना चाहिए। नये कवियों को दूसरी तरफ भी देखना चाहिए कि कोई और दृश्य, कोई और अनुभव, कोई और संवेदना उसकी राह देख रही है। कोई और है जिसे उसका इंतजार है। कोई और उसे पुकार रहा है। पहुँचो कवि, पहुँचो उसके पास।
  सत्ता के विरोध में भी बहुत-सी कविताएँ लिखी गयी हैं। प्रतिरोध की संस्कृति का दौर पहले भी रहा है और आज भी है। भक्तिकाल की संत कविता में कम प्रतिरोध नहीं है। आज की कविता में प्रतिरोध, क्या उतनी ही कविताई के साथ मौजूद है ? किसी लेख के प्रतिरोध का स्वर और प्रभाव क्या वही होगा जो एक अच्छी कविता का होगा ? क्या प्रतिरोध की कविता को लेख या ठस गद्य हो जाना चाहिए ? यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि कविता की सबसे बड़ी दुश्मन कोई दायें बाजू या बायें बाजू की इचारधारा-विचारधारा नहीं है, बल्कि कवि की खुद की हड़बड़ी ही उसकी कविता की दुश्मन नम्बर एक है। हाँ, यह भी कहना जरूरी है कि एक कवि की सभी कविताएँ बहुत कसी हुई और बड़े आशयों वाली नहीं होती हैं। बड़ी कविता या स्मरणीय कविता, सभी कविताएँ हो भी नहीं सकती हैं। अच्छा कवि जानता है कि उसकी कौन-सी कविता अच्छी है और कौन-सी कविताएँ सामान्य। पर जो कवि अच्छे नहीं होते हैं या नये होते हैं, वे अपनी कविता में नुक्स देख नहीं पाते हैं। शायद आज के कवियों की एक बड़ी समस्या यह भी है।
   इधर कविता में आंदोलन या विमर्श का आलम यह है कि कविता को राजनीति का औजार बनाने या उसे सीधे राजनीतिक कारर्वाई में बदलने की विकलता का अनुभव किया जा रहा है। हिंदी में विमर्श के नाम पर बहुत कूड़ा-करकट इकट्ठा कर दिया गया है। स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श। कवयित्रियाँ जो-जो बाहर कर पाना संभव नहीं है, सब कागज पर कर देना चाहती है। तुरत सृष्टि को उलट-पुलट देने के लिए विकल हैं। यह बात सभी कवयित्रियों के लिए नहीं कह रहा हूँ। क्योंकि बहुत-सी कवयित्रियाँ अच्छा लिख रही हैं। अपनी पूरी स्वाभाविकता और स्थानीयता के साथ। सब इस देश में रह कर विदेश में रहने वाली स्त्री जैसी मुद्रा नहीं अपना रही हैं। सच तो यह कि विदेश में भी जो स्त्रियाँ अपनी जड़ों से जुड़ी हैं, वे भी अस्वाभाविक या कृत्रिम क्रांति की बात नहीं कर रही हैं। दुर्भाग्य यह कि दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों की स्त्रियाँ नहीं बल्कि छोटे शहरों की कुछ गाँवगिराँव से जुड़ी कवयित्रियाँ अस्वाभाविक मुद्रा का प्रदर्शन कर रही हैं। मैं तो पाँच हजार से भी अधिक मित्र बनाने वाली ऐसी कुछ कवयित्रियों की बात कर रहा हूँ, जिन्हें कुछ लोग पता नहीं किस स्वार्थवश प्रमोट करने की कुचेष्टा करते रहे हैं। अभी दो दिन पहले फेसबुक पर एक रचनाकार मित्र ने एक कवयित्री पर अपनी गजल के एक शेर को चोरी कर लेने का आरोप साक्ष्य सहित लगाया है, तमाम मित्रो ने इस साहित्यिक चोरी पर तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। यह भी कहा कि इसके लिए आलोचकों और प्रमोटरों की भी जवाबदेही बनती है। दुर्भाग्य यह कि साहित्य की सबसे बड़ी अकादमी के एक बड़े पदाधिकारी ही ऐसी कवयित्रियों या कवियों को प्रमोट करने के काम में लगे हुए हों तो साहित्य की समस्याएँ कितनी गंभीर होतीे जायेंगी, सहज अनुभव कर सकते हैं। यह सभी कवयित्रियों का सच नहीं है, सिर्फ कुछ कवयित्रियों और कवियों का सच है , अलबत्ता यह आज के प्रमोटरों का सौ फीसदी सच है। प्रसंगवश कहना चाहता हूँ कि जैसे कथा साहित्य में कुछ महिला कथाकारों ने बहुत अच्छा काम किया है, कुछ उसी तरह का अच्छा काम कवयित्रियों को भी करना चाहिए था। पर कविता के आलोचक उन्हें ऐसा करने देते, तब न!
     आज का नया कवि क्यों इस बात से परेशान है कि जल्दी से उसकी कविता छप नहीं जायेगी या लोग उसकी चर्चा नहीं कर देंगे तो उसका जीवन विफल हो जायेगा। सफलता के इस शार्टकट में कम पूँजी से भारी लाभ कमाने का लोभ और एक लेखक के अनिवार्य आत्मसंघर्ष से भागने की उसकी छवि में उसका डर उसके चेहरे पर चस्पा हो गया है, यह उसे पता नहीं है। नये लेखकों में यह डर चिंता की बात है कि आत्मसंघर्ष के पथ पर एक भी डग भरते हुए थरथर काँप रहे हैं, उन्हें क्यों ऐसा लगता है कि आत्मसंघर्ष बाघ है, उनके जीवन और उनके स्वप्न को खा जायेगा (उनका यश और पुरस्कार खा जायेगा )। हजार कमजोरियों को लेकर ही वे साहित्य की दुनिया में पैदा हुए हैं। उनमें आत्मसंघर्ष की तनिक भी कूवत नहीं है और उन्हें यश और पुरस्कार बड़े से बड़ा चाहिए, उनकी इस बेजा चाहत ने उन्हें न जाने क्या-क्या बना दिया है। आज के साहित्य का सबसे बुरा यह है कि लेखक को आत्मसंघर्ष जैसी किसी चीज पर भरोसा तो दूर, उसे उसके बारे में ढ़ंग से पता तक नहीं है, वह केवल अपने गॉडफादर को जानता है और उसी पर आँख मूँद कर भरोसा करता है। यह भी कम दुर्भाग्य नहीं है कि आज नासमझी इस हद तक है कि जिस आलोचक ने खुद कुछ अच्छा न किया हो, उससे अच्छे की सनद नये लेखक क्यों चाहते हैं। इतना डर क्यों है आज नये लेखकों में ? जब कवि ही स्वाधीन नहीं होगा तो स्वाधीनता और संघर्ष की कविता क्या खाक रचेगा ?
   कविता में तो कुछ अच्छा कहीं-कहीं दिख भी जा रहा है, पर कविता की आलोचना तो बंजर में बदल चुकी है। जगह घेरेगी ज्यादा, दुर्गन्ध छोड़ेगी ज्यादा और सिर पर चढ़ कर बोलेगी ज्यादा। कहना बेहद जरूरी है कि कवि के बाद कविता का दुश्मन नम्बर दो आलोचना ही है। आलोचक तो खैर सिर्फ कविता का ही नहीं, पूरे साहित्य का दुश्मन है। हिंदी समाज का दुश्मन है। ऐसे पेशेवर दुश्मनों के बीच कविता बची रह जाय, कवि उम्मीद जगा पायें, यह बड़ी बात है। लेकिन यह संभव कैसे हो, यह भी एक बड़ी समस्या है।
  दलित विमर्श के नाम पर इधर ऐसी कविताएँ आयी हैं, जिनमें कविता का अंश नमक के बराबर भी नहीं है। (जीरे वाला मुहावरा बहुत घिस गया है, इसलिए नमक कह रहा हूँ, शायद ऐसे ही कविता के मुहावरे के बारे में भी सोचना चाहिए। ) कविताएँ शुरुआती दौर में तो किसी फैशन में लिखी जा सकती हैं, लेकिन एक-दो संग्रह आने के बाद भी मामला ऐसे ही रहता है तो समझिए कि ऐसे कवि सिर्फ सतह के कवि हैं। अच्छे कवि अपने पहले संग्रह में ही अपनी छाप छोड़ते लगते हैं। मुझे याद है कि देवेंद्र कुमार बंगाली जो स्वयं दलित कहे जाने वाले समाज से जुड़े हुए व्यक्ति थे, उन्होंने न तो कवि के रूप में मूल्यांकन किये जाने के लिए दलित होने के आधार पर कोई छूट माँगा और न अपनी नौकरी में प्रमोशन के लिए दलित होने का लाभ लिया। लेकिन यह कहना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह निवेदन करना कि मेरी दृष्टि में आज जितने भी दलित कवि हैं, उनसे कविताई में बहुत पीछे हैं। साठोत्तरी हिंदी कविता के आलोक में उनकी कविताएँ कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह अलग बात है कि वे किसी बड़े आलोचक के जवार के नहीं थे। न तो उन्होंने कविता की काशी में डुबकी लगायी न दिल्ली में। यह इसलिए कह रहा हूँ कि उनका मानना था कि हिंदी कविता की विकास यात्रा में संत कविता का जो पुष्ट आधार है, उसमें दलित जीवन की वेदना और प्रतिरोध को बड़ी ताकत और कलात्मकता के साथ व्यक्त किया गया है। मराठी की स्थिति और हिंदी की स्थिति में फर्क है। उन्होंने बहुत अच्छे नये गीत भी लिखे हैं। लिखा कम है, पर जो है महत्वपूर्ण है। यह भी इसलिए कह रहा हूँ कि आज के दलित विमर्श प्रेमियों को इस कवि पर भी गौर करना चाहिए। पर जहाँ बहुत जल्दी और किसी भी तरीके से कवि हो जाने या मशहूर हो जाने या पुरस्कृत हो जाने की हड़बड़ी हो, वहाँ कविता के पक्ष में इस माँग का हश्र क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह अलबत्ता कहा जा सकता है कि आज भी कुछ ऐसे कवि हैं, जिन्हें कवि होने के लिए दलित समाज से जुड़े होने की सनद की जरूरत नहीं है। वे कला की शर्तों पर कवि होना पसंद करते हैं। कविता की दुनिया में किसी आरक्षण या छूट की बात नहीं करते हैं। ऐसे कवियों में दिल्ली में रहने वाले एक मित्र का नाम मेरे सामने है, जिनसे काफी वक्त से नहीं मिला हूँ पर जानता हूँ कि वे भी बंगाली जी की तरह कविता में कविता की शर्तों के साथ प्रवेश करते हैं। आदिवासी जीवन की वेदना को और उसके पूरे संघर्ष को कविता के कागज पर ठीक से उतारते हैं। ऐसे और भी लोग हो सकते हैं। कुछ अपवाद तो हर जगह होते हैं। एक और दलित कवि-आलोचक मित्र हैं, जो दलित विमर्श को तंग नजर से नहीं देखते हैं, एक बार गोरखपुर आये थे, मैंने उनसे पूछा कि भाई ये तो बतलाइए कि यदि दलित जीवन पर कोई फिल्म बने तो उसमें दलित चरित्र का अच्छा अभिनय आप करेंगे या नसीरुद्दीन शाह ? वे बोले , जाहिर है कि वही करेंगे। यह इसलिए कह रहा हूँ कि इस विमर्श की बाधा कला ही नहीं सोच भी है। यह सोच की हम अपनी बात अच्छी तरह कहेंगे, दूसरा नहीं कह सकता। जब फिल्म में दूसरा अच्छा काम करेगा, कचहरी में दूसरी जाति का वकील चलेगा, डॉक्टर भी विजातीय स्वीकार है तो साहित्य में ही ऐसी जिद क्यों कि दलित जीवन पर अच्छी कविता सिर्फ हम लिखेंगे। किसी कवि का प्रयोजन यदि सिर्फ कविता लिखना है तो वह अच्छा कवि नहीं, जिस कवि का प्रयोजन अच्छी कविता लिखना होगा और लिखेगा, जाहिर है कि वही अच्छा कवि होगा। यह दिक्कत दलित और गैर दलित सभी कवियों के साथ है। मेरे आलोचक मित्र नाराज न हों तो कहना चाहता हूँ कि आलोचना का परिदृश्य ऐसी दिक्कतों से अटा पड़ा है। जहाँ अच्छी आलोचना से आलोचक का कुछ नहीं लेनादेना है। उसे तो बस कुछ तुरत और नकद चाहिए। यह तुरंता छाप कविता और गैरजिम्मेदार आलोचना का समय है क्या ? यह जानना बहुत जरूरी है। जान कर कुछ करना भी बेहद जरूरी है। जो कुछ नहीं करेंगे, सिर्फ अपने समय की साहित्य की धारा में बहेंगे, वे बह जायेंगे। बचेंगे वही जो बचना चाहेंगे, जो धारा को कोई मोड़ देने की कोशिश करेंगे। यह प्रश्न बेचैनीभरा है कि धारा के विरुद्ध खड़े होने में आज नये कवियों में इतना डर क्यों है ?




9 टिप्‍पणियां:

  1. kavita ko rachne aur chapne ki jaldibaji aksar kavita ko kamjor karti hai.apse sahmat hoo ki dalit jeewan ki sachchi aur marmik abhivyakti sant sahitya me huee hai.usi tarah mera manna hai ki bodh ki theri gathayo me srri jeewan ka katu aur marmik yathart apni sahajta se vyakt hua hai.sundar aalekh ke liye badhaee.

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  2. महत्वाकांक्षाओं के संघर्ष आत्मसंघर्षो की सामर्थ्य को खा जाते हैं ...

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  3. बहुत खुलकर, बहुत साफ़ लिखा है, और खरी-खरी सुनाने में किसी को नहीं बख्शा है, यह बात मुझे बेहद अच्छी लगी. कविकर्म और आलोचना, दोनों की जैसी ख़बर ली जानी चाहिए, आप सहज ही ले लेते हैं. कठिन रास्ता कोई नहीं चुनना चाहता, जैसे यह एक तरह से हमारे समय का अभिशाप हो. दलित प्रसंग में अभिनय, उपचार आदि की नजीरें वज़नदार हैं. ऐसे ही लिखते रहिए, जम कर.

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  4. आत्मसंघर्ष अब एक खानाबदोश शब्द हो चला है. रचनाधर्मिता को हाथ की सफाई मानने और जीवनानुभूतियों को गिट्टी-फोड़ का खेल बना डालने वालों के लिये यह शब्द नहीं है सर.......... एक मर्मान्तक और कचोटने वाले आलेख के लिए साधुवाद...

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  5. धन्यवाद, सुबोध। शुभकामनाएँ...

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    1. पाण्डेय जी
      नमस्कार

      आपके अनेक लेख पड़े और आपका असंतोष, क्रोध भी देखा. संतोष हुआ. हर सख्स के लिए निडरता बहुत जरुरी है जो सही से जीने में मदद करती है और खुद के चुनाव में भी. ये लेख उन भयभीत दिलो तक भी पहुँचे जहाँ भारी ताले दिलो से खुद बेजार हो चुके हैं और अब ताले ही मुक्ति मांग रहे हैं.

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