रविवार, 23 फ़रवरी 2020

दूसरा संग्रह ‘जल में’ से कुछ कविताएं


-गणेश पाण्डेय

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ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
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कहां फेंका था तुमने
अपना वह माउथआर्गन
जिस पर फिदा थीं तुम्हारी सखियां
कहां गुम हुईं सखियां किस मेले-ठेले में
किसके संग

कैसे तहाकर रख दिया होगा तुमने
अपना प्यारा-प्यारा स्लेटी स्कर्ट
किस खूंटी पर फड़फड़ा रहा होगा
वह बेचारा लाल रिबन

सब छोड़-छाड़ कर 
कैसे प्रवेश किया होगा तुमने
पहलीबार
भारी-भरकम प्रभु की पोशाक के भीतर

यह क्या है तुममें
जो बज रहा है फिर भी मद्धिम-मद्धिम
कहां हैं तुम्हारी सखियां
कोई क्या करे अकेले
इस राग का

देखो तो आंखें वही हैं
जिनमें छिपा रह गया है फिर भी कुछ
जस के तस हैं काले तुम्हारे वही केश
होठों में गहरे उतर गया है नमक
कुछ भी तो नहीं छूटा है
वही हैं तुम्हारे प्रियातुर कान
किस मुंह से जाओगी प्रभु के पास

ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
कैसे करोगी तुम ईश का ध्यान
जब बजने लगेगा कहीं
मद्धिम-मद्धिम
माउथआर्गन।

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एक चांद कम पड़ जाता है
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कई बार एक जीवन कम पड़ जाता है
एक प्यार कम पड़ जाता है कई बार 
कई बार हजार फूलों के गुलदस्ते में
चंपे का एक फूल कम पड़ जाता है
एक कोरस ठीक से गाने के लिए
एक हारमोनियम कम पड़ जाता है
कई बार।
सांसें लंबी हैं अगर
और हौसला थोड़ा ज्यादा
तो तबीअत से जीने के लिए
एक रण कम पड़ जाता है
जो है और जितना है उतने में ही 
एक दुश्मन कम पड़ जाता है।
दिल से हो जाय बड़ा प्यार अगर
तो कई बार
एक अफसाना कम पड़ जाता है
एक हीर कम पड़ जाती है
ठीक से बजाने के लिए
सितार का एक तार कम पड़ जाता है
एक राग कम पड़ जाता है।
कई बार
आकाश के इतने बड़े शामियाने में
एक चांद कम पड़ जाता है
दुनिया के इस मेले में देखो तो
एक दोस्त कहीं कम पड़ जाता है
एक छोटी-सी बात कहने के लिए
कई बार एक कागज कम पड़ जाता है
एक कविता कम पड़ जाती है।

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सफेद दाग वाली लड़की
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कोई  
आया नहीं 
देखने कि कैसी हो 
कहाँ हो मिट्ठू 
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का 
है उसे इन्तजार

कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-किस का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर

सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में

सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सारी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जागते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।

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वर्दी में
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कई थीं
ड्यूटी पर थीं
कुछ तो बिल्कुल नई थीं
अंट नहीं पा रही थीं वर्दी में
आधा बाहर थीं आधा भीतर थीं।
एक की खुली रह गयी थी खिड़की
दूसरी ने औटाया नहीं था दूध
झगड़कर चला गया था तीसरी का मरद
चौथी का बीमार था बच्चा कई दिनों से
पांचवीं जो कुछ ज्यादे ही नई थी
गपशप करते जवानों के बीच
चुप-चुप थी
छठीं को कहीं दिखने जाना था
सातवीं का नाराज था प्रेमी
रह-रह कर फाड़ देना चाहता था
उसकी वर्दी।

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कबाड़
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वे दो थे 
भाई जैसे थे छोटे-बड़े
लड़के थे जाने किस धातु के
लोहा थे पीतल थे कि सोना थे चाँदी थे
जो थे जैसे थे खुश थे उस कबाड़ में
जिधर देखते थे कबाड़ ही कबाड़ देखते थे
कबाड़ दुनिया देखते थे।

कंधे से उतारते थे अपना थैला मैला
खोलते थे मुँह और उठाते थे टिफिन बॉक्स
डिब्बी-डिब्बे, टुकड़े प्लास्टिक के
सब थैले में गड़प।

देखते थे छागल का कोई लंबा टुकड़ा
हँसते थे उस बाई की भूल पर
जिसने फेंका होगा।

उठाते थे किसी का लाल रिबन
और चल देते थे गले में बाँधकर
एक कबाड़ से दूसरे कबाड़ में।

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बाबू क्लीनर 
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बाबू क्लीनर 
इतने गंदे क्यों रहते हो
क्यों खाते हो हरदम पान
बात-बात पर हँसते क्यों हो
हो-हो।

हर गाने पर 
मूड़ी खूब हिलाते क्यों हो
लगता है तुम सचमुच 
इस गाड़ी के मालिक हो।

कुछ तो बोलो
बाबू क्लीनर 
खुश दिखने का भेद तो खोलो
हँसकर दर्द छुपाते क्यों हो।

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किसका है यह पेंसिलबॉक्स 
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जिस किसी का हो
आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स
जो मुझे अभी-अभी मिला है
पागल पहिये और पैरों केबीच।

जिस पर कुछ फूल बने हैं
कुछ तितलियाँ हैं उड़ती-सी
और कम उम्र उँगलियों की ताजा छाप है
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।

जिसके भीतर साबुत है आधी पेंसिल
और व्यग्र है उसकी नोंक
किसी मानचित्र के लिए
एक दूसरी पेंसिल है जो उससे छोटी है
बची हुई है उसमें अभी थोड़ी-सी जान
और किसी का नाम लिखने की इच्छा
मिटने से बचा हुआ है एक चौथाई रबर
काफी कुछ मिटा देने की उम्मीद में
किसी तानाशाह का चेहरा
किसी पैसे वाले की तोंद।

किसका है यह
किस दुलारे का किस अभागे का
किस रानी का किस कानी का
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।

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बोर्ड परीक्षा का पहला दिन
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मेरी सीट
ओ मेरी सीट
कहां है मेरी सीट
उचक-उचक कर ढ़ूढते हैं
इतने सारे बच्चे एक साथ
हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा के पहले दिन
नोटिस बोर्ड पर अपनी सीट का पता

मिलते हैं अन्दर घुसते ही कमरे में
एक तुनकमिजाज और कड़कआवाज
अजीब तरह के मास्टर जी
उसपर एक ढ़िलपुक मेज
और आगे-पीछे होती कुर्सी

और
उसके बाद मिलते हैं
परचे के जंगल में कुछ खरहे जैसे प्रश्न
कुछ होते हैं चीते की तरह आक्रामक
और कुछ हाथी जैसे भारी-भरकम


जिसके उत्तर में
निकालकर रख देना पड़ता है
एक पिता का कांपता हुआ कलेजा
और एक मां का आसभरा
और धड़कता हुआ दिल

देखो तो परचे के आगे-पीछे
पंक्तियों के बीच में लुका-छिपी करता है
एक मासूम सवाल-
कैसे करता है करतब
यह सब इतना कोई किशोर
पहली दफा


कोई बताए 
तो सौ में दो सौ पाए !

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अभी 
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बची हुई है अभी थोड़ी-सी शाम
बची हुई है अभी थोड़ी-सी भीड़
नित्य उठती-बैठती दुकानों पर

रह-रह कर सिहर उठती है
रह-रह कर डर जाती है
नई-नई लड़की
छोटी-सी 
श्यामवर्णी

जिसके पास बची हुई है अभी
थोड़ी-सी मूली
और
मूली के पत्तों से गाढ़ा है
जिसके दुपट्टे का रंग
जिससे ढाँप रखा है उसने
आधा चेहरा आधा कान

अनमोल है 
जिसकी छोटी-सी हँसी
संसार की सभी मूलियाँ
जिसके दाँतों से 
सफ़ेद हैं कम

और
पाव-डेढ़ पाव मूली 
एक रुपए में देकर
छुट्टी पाती है 
मण्डी से
ख़ुश होती है काफ़ी
एक रुपये से कहीं ज्यादा

मण्डी से लौटते हुए 
मुझे लगता है-
मूली से छोटी है 
अभी उसकी उम्र
और मूली से बीस है 
अभी उसकी ताज़गी

घर में घुसता हूँ तो  होता है-
अरे!
ये तो मूली में छिपकर
घुस आई है नटखट 
मेरे संग
अभी-अभी 
शामिल हो जाएगी
बच्चों में ।

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धर्मशाला बाजार के आटो लड़के   
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वे दूर से देखते थे और पहचान लेते थे
मद्धिम होता मेरा प्याजी रंग का कुर्ता
थाम लेते थे बढ़कर कंधे से
मेरा वही पुराना आसमानी रंग का झोला
जिसे तमाम गर्द-गुबार ने
खासा मटमैला कर दिया था

वे मेरे रोज के मुलाकाती थे
मैं चाचा था उन सबका
मेरे जैसे सब उनके चाचा थे

कुछ थे जो दादा जैसे थे
इस स्टैंड से उस स्टैंड तक
फैल और फूल रहे थे
छाते की कमानियों की तरह
कई हाथ थे उनके पास
रंगदारी के रंग कई
दो-दो रुपये में
जहां बिकती थी पुलिस

वे तो बस
उसी धर्मशाला बाजार के
आटो लड़के थे हंसते-मुस्कराते
आपस में लड़ते-झगड़ते
एक-एक सवारी के लिए
माथे से तड़-तड़ पसीना चुआते
पेट्रोल की तरह खून जलाते

वे मुझे देखते थे
और खुश हो जाते थे
वे मेरे जैसे किसी को भी देखते थे
खुश हो जाते थे
वे मुझे खींचते थे चाचा कहकर
और मैं उनकी मुश्किल से बची हुई
एक चौथाई सीट पर बैठ जाता था
अंड़सकर

वे पहले आटो चालू करते थे
फिर टेप-
किसी खोते में छिपी हुई
किसी अहि रे बालम चिरई के लिए

फुल्ले-फुल्ले गाल वाले लड़के का
दिल बजता था
उनका टेप बजता था
आटो में ठुंसे हुए लोगों में से
किसी की सांसत में फंसी हुई
गठरी बजती थी
किसी की टूटी कमानियों वाला
छाता बजता था
किसी के झोले में
टार्च का खत्म मसाला बजता था

और अंधेरे में
किसी बच्चे की किताब बजती थी
किसी छोटे-मोटे बाबू की जेब में
कुछ बेमतलब चाबियां बजती थीं
कुछ मामूली सिक्के बजते थे

किसी के जेहन में-
धर्मशाला बाजार की फलमंडी में
देखकर छोड़ दिया गया
अट्ठारह रुपये किलो का
दशहरी आम
और कोने में एक ठेले पर
दोने में सजा
आठ रुपये पाव का जामुन बजता था

और घर पर इन्तजार करते बच्चों की आंखें
बजती थीं सबसे ज्यादा।

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खेलो छोटे बहादुर
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आओ बहादुर
बैठो बहादुर
खाओ बहादुर
ये खुरमा
ये सेवड़ा
ये देखो रंग-वर्षा
खेलो छोटे बहादुर।

छोड़ो बहादुर
सम्भ्रांत पंक्ति का
पनाला
रहने दो आज जाम
बहने दो जहाँ-तहाँ
छोड़ो कुदाल
फेंको बाँस
लो खुली साँस।

आओ छोटे बहादुर
बताओ छोटे बहादुर
क्या कर रही होगी
इस वक्त पहाड़ पर माँ
माँ के मुख-रंग बताओ
छोटे बहादुर।

कितनी दूर है
तुम्हारा पर्वत-प्रदेश
मुझे ले चलो अपने घर
अकलुष आँख की राह
आओ छोटे बहादुर
अपने अगाये कंठ से
बोलो छोटे बहादुर
मद्धिम क्यों है आज
मुखाकृति।

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आप सौ साल जियें पापा
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छोड़ दीजिए पापा 
पान के बीड़े चबाना
और तरह-तरह के जर्दे की 
गमकने वाली खुशबू।

तम्बाकू-चूना मलना, ठोंकना
और होंठ के भीतर दाबकर
चुनचुनाहट के मजे लेना
बंद की जिए पापा बंद।

मुझे नहीं पसंद है पापा
मम्मी को नहीं पसंद है पापा।

ये लीजिए पापा सौंफ
इलायची लीजिए पापा
आप सौ साल जियें पापा।

सफेद फ्रॉकों वाली गुडिया जैसी
दस बरस की बिटिया
करती है प्रार्थना।

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मुश्किल काम
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यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे
जो मेरे साथ तो थे पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-‘पीना और शैतान के संग’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।

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सलाम वालैकुम 
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सब साहिबान को सलाम
जो मुझे छोड़ने आए थे सिवान तक
उन भाइयों को सलाम जो अड्डे तक आए थे
मेरी छोटी-छोटी चीज़ों को लेकर ।
उन चच्चा को ख़ासतौर से सलाम
जिन्होंने मेरा टिकट कटाया था
और कुछ छुट्टे दिए थे वक़्त पर काम आने के लिए।
बचपन के उन साथियों को सलाम
जिन्होंने हाथ हिलाया था
और जिन्होंने हाथ नहीं हिलाया था ।
अम्मी को सलाम
जिन्होंने ऐन वक़्त पर गर्म लोटे से
मेरा पाजामा इस्त्री किया था और जल गई थी
जिनकी कोई उँगली ।
आपा को सलाम
जिनके पुए मीठे थे ख़ूब और काफ़ी थे
उस कहकशाँ तक पहुँचे मेरा सलाम
जो मुझे कुछ दे न सकी थी
खिड़की की दरार से सलाम के सिवा ।
उस याद को सलाम
जिसने ज़िन्दा किया मुझे कई बार
उस वतन को सलाम
जो मुझे छोड़कर भी मुझसे छूट नहीं पाया ।
रास्ते की तमाम जगहों और उन लोंगो को सलाम
जिन्होंने बैठने के लिए जगह दी
और जिन्होंने दुश्वारियाँ खड़ी कीं
उस वक़्त को सलाम
जिसने मुझे मार-मार कर सिखाया यहाँ
किसी आदमी को रिश्तों से नहीं
उसकी फितरत से जानो ।
ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम
जो किसी काम के वास्ते तूने चुना
किसी गरीब को ।

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एक भिण्डी 
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यह जो छूट गई थी
थैले में अपने समूह से
अभी-अभी अच्छी भली थी
अभी-अभी रूठ गई थी
एक भिण्डी ही तो थी ।
और एक भिण्डी की आबरू भी क्या
मुँह फेरते ही मर गई ।

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एकता का पुष्ट वैचारिक आधार                      
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एक वीर ने उन्हें तब घूरा
जब वे सच की तरह कुछ बोल रहे थे ।
एक वीर ने उन्हें तब टोका
जब वे किसी की चमचम खाए जा रहे थे ।
एक वीर ने उन्हें तब फटकारा
जब वे किसी मोढ़े की परिक्रमा कर रहे थे ।
असल में
एक वीर ने दम कर रखा था
उनकी उस अक्षुण्ण नाक में
जिसे तख़्ते-ताउस की हर गंध
एक जैसी प्यारी थी ।
एक दिन वे एकजुट हुए
क्योंकि एकता का पुष्ट वैचारिक आधार 
उनके सामने था ।
पाठ्यक्रम समिति की उस बैठक में
लिया उन्होंने निर्णय
कि ‘सच्ची वीरता’ को
जीवन से निकाल दिया जाय ।                  

नोट : ’सच्ची वीरता’ अध्यापक पूर्ण सिंह का प्रसिद्ध निबंध है।

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कम कविता के दिन थे
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कुछ करने के दिन न थे
कविता के लिए मरने के दिन न थे
जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।
रोशनी का काम उनके जिम्मे न था
जिनके पास कुछ ढँका-छिपा न था।
गजब का मंजर था सामने
टुटही हरमुनिया थी
वक्त-बेवक्त राग जैजैवन्ती गवैया थे
वही झाँझ-करताल वही बजवैया थे
बड़े-बड़े घुटरुन चलवैया थे
कुछ थे जो 
बाहरी जहाजों पर कूद-कूद चढ़वैया थे
कई तो अपने ऊपर ग्रंथ छपवैया थे।
रटन्त विद्या के दिन थे
एक कविता दौर के अन्तिम दिन थे
दृश्य उन्हीं का था 
जिनके जीवन में कोई संग्राम न था
जीवन छोटा था
कम कविता के दिन थे
फिर भी कुछ पागल थे बचे हुए
जिनके हौसले थे कि कम न थे।

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दूसरा संग्रह ‘जल में‘ 
नमन प्रकाशन नई दिल्ली/ प्रथम संस्करण-1999
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