गुरुवार, 23 जनवरी 2020

बच्चे : कुछ कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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बच्चों की प्रतीक्षा
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जब
बच्चे बहुत छोटे थे
नौकरी पर जाते समय
हाथ पकड़कर झूल जाते थे
पीठ पर चढ़ जाते थे
पैरों से लिपट जाते थे

अब
मैं रिटायर हो गया हूं
बच्चे बाहर काम पर हैं
मेरे पैर मेरे कंधे मेरी बाहें सब
घर पर बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं।

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कितने दिन रह गये हैं
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होली में
कितने दिन रह गये हैं

पूछता हूं पत्नी से, कहती हैं
रोज एक ही बात पूछते हैं

चुप हो जाता हूं दूर से
चुपचाप कैलेंडर देखता हूं

मोबाइल में ढूंढता हूं
होली की तिथि दिन गिनता हूं

रिटायर हो गया हूं न, बच्चे आएंगे
तो फिर काम पर लग जाऊंगा।

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बच्चे आ गये हैं
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कोई चिड़िया पीछे से
सिर पर पंख फड़फड़ाती है

कोई तितली
चुपके से कंधे पर बैठ जाती है

कोई हिरन
सामने से कुलांचे भरता है

कोई शावक टीवी पर
धूप में बाघिन के मुंह चूमता है

कोई शख्स
दरवाजे की कुंडी खटखटाता है

कोई जहाज
हवाई अड्डे पर उतरता है

कोई पीछे से
मुझसे जोर से लिपट जाता है

हजार बातें हैं पता चल जाता है
बच्चे आ गये हैं।



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