सोमवार, 16 दिसंबर 2019

जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं

- गणेश पाण्डेय

जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
कुछ उल्टा कुछ सीधा हर नाच चाचता हूं
कविता के कुछ नाच किये हैं जी मस्ती में
कुछ कविता की हद दर्जे की सस्ती में जी
कुछ नाच किया है यूपी का कुछ एमपी का
कुछ बिहार के बहार का नयी दिल्ली में
ठाकुर की ड्याढ़ी में पंडिज्जी की बस्ती में
जी हां हुजूर मैं डेढ़ टांग पर अतिभावप्रवण
कत्थक का नाच देशभर की अकादमियों में
भरतनाट्यम भवनों-संस्थानों में नाचता हूं
जी मैं अपने वक्त की कविता की मंदी में
गली-गली चौराहों पर गंदा नाच नाचता हूं
जी नहीं-नहीं मैं कोई कविता नरेश नहीं
सस्ती कविता का बस साधारण दल्ला हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
जी नाच-नाच कर यश का पेट पालता हूं
आउंडेशन-फाउंडेशन-जाउंडेशन के युग में
हर महफिल में जा-जा कर नाच नाचता हूं
जी हां हुजूर मैं छंद नहीं छलछंद बेचता हूं
जी मैं हिंदी का कवि हूं और प्रगतिशील हूं
पुरस्कार की धुन पर नंगा नाच नाचता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
सुबह दोपहर शाम और आधीरात नाचता हूं
जी मैं भवानी बाबू नहीं हूं जवानी बाबू हूं
जी गीतफरोश कविता का गीतफरोश नहीं हूं
जी मैं नयी सदी का पक्का कविताफरोश हूं
जी मैं कविता का गणेश नहीं गोबर गणेश हूं
साहित्यिक मुक्ति के लिए अनंत योनियों में
यश का मारा-मारा फिरता अति बिसनाथ हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
अपनी हर नाच पर दो-दो शब्द लिखवाकर
और दस-दस फोटो रोज-रोज छपवाता हूं
जी मैं खुदपर खुद ही पुस्तक छपवाता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
जी आलोचना का नाच भी नाच सकता हूं
जी नामवर आलोचक के पैर दबा सकता हूं
उससे अपनी किताब का लोकार्पण कराने
गीदड़दलबल सहित अन्य शहर जा सकता हूं
जी मैं हिंदी का नितहर्षित हंसमुख लल्लू हूं
मैं हिंदी का सारहीन अतिविनम्र मिलनसार
कड़ी से कड़ी बात सुनकर हें-हें करता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता को नाच बनाता हूं।






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें