रविवार, 15 दिसंबर 2019

वृक्षों के नीचे फैली वनस्पतियों में

- गणेश पाण्डेय

सब गुम हो जाते हैं
जब तक दृश्य पर रहते हैं
खूब उछल-कूद नाच-गाना
और हंसी-ठट्ठा करते हैं
भूल जाते हैं कि यह
एक दिन का मेला है

बाद में पता चलता है
कि अरे-अरे यहां कोई था
अभी-अभी कहां चला गया
किस कबाड़ में किस धुंध में
निष्प्रयोज्य लिखे हुए किस पात्र में
कौन था कोई जान नहीं पाता है

शायद जो लोग
अपने काम में नहीं दिखते हैं
गुम होने के बाद कभी नहीं दिखते हैं
उनके घुंघरू उनकी पिस्तौलें
उनकी गलेबाजी किसी खड्ड में
गायब हो जाती है

दो-चार दिन चेले-चपाटी
और पाले हुए लौंडे-लफाड़ी
याद करतें हैं फिर खुद
दृश्य का हिस्सा बन जाते हैं

मुझे दृश्य से नहीं नेपथ्य से प्रेम है
मैं चाहता हूं मुझे कोई देखे नहीं
मैं अपने वक्त में ऐसे गुम रहूं
कि खुद भी खुद को देख न पाऊं

कविता की किताब के पन्नों पर
पंक्तियों के घने जंगल में कहीं
बड़े वृक्षों के नीचे फैली वनस्पतियों में
खो जाना चाहता हूं हमेशा के लिए
किसी अनाम जड़ी-बूटी
चाहे किसी कीट-पतंग की तरह
कोई मेरी शक्ल और मठ न देखे
कोई मेरे तमगे और मेरी नाच न देखे

आज के नचनियों के नचनिये
और उनके नचनिये प्रशंसक दृश्य से
छूमंतर हो जाएं तो कोई साधु आए
जिसकी आंख की एक ठोकर से
उघड़ जाए मेरी लहूलुहान आत्मा
और मैं पूरे पन्ने पर फैल जाऊं
उसके जाते ही फिर गुम हो जाऊं
फिर फिर ऐसे ही देखा जाऊं।

     



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