शुक्रवार, 31 मार्च 2017

हिन्दी के नये सुमनों से

- गणेश पाण्डेय

मैंने पूछा कि तुम हिन्दी के कवि हो
उसने कहा कि वह हिन्दी का नया मार्क्सवादी कवि है 

मैंने कहा कि तुम हिन्दी के कवि हो
उसने कहा कि हो सकता हूं पर उसके मूल विचार हिन्दी के नहीं हैं

मैंने कहा कि फिर भी तुम हिन्दी के कवि हो
उसने कहा कि हां-हां, क्यों नहीं, पर वह हिन्दी में सिर्फ लिखता है

मैंने पूछा तुम्हारी कविता का मुहावरा हिन्दी का है न ?
उसने कहा कि उसे पता नहीं कि मुहावरे कहां-कहां से आते हैं

मैंने पूछा कवितासम्राट, नये ज्ञानमार्गी हो कि नये प्रेममार्गी या मेरी तरह कुछ और
उसने कहा बस ईमानमार्गी नहीं हूं, बाकी क्या है पृथ्वी पर जो मैं नहीं हूं

मैंने पूछा कि हिन्दी के सुघरकवि, तुम आखिर रहते कहां हो, किस मुहल्ले में
उसने कहा कि वह बड़ी अकादमी के पिछवाड़े अपनी बस्ती में रहता हैे

मैंने कहा कि अच्छा-अच्छा, तुम फासिस्ट को सिर्फ संसद से क्यों जोड़ते हो
उसने कहा कि साहित्य में फासिस्ट नहीं होते हैं, जो होते हैं मार्क्सवादी होते हैं

मैंने पूछा कि कविता में विश्वविजय की आकांक्षा, जनाकांक्षा है
उसने कहा दूसरे कवियों के साथ षड्यंत्र फासिस्ट हरकत नहीं है

मैंने पूछा कि कविता के लोकतंत्र में मुकुट और राज्याभिषेक क्या है
उसने कहा कि उसे मालूम नहीे कि कोई कवि इसके बिना कैसे जिंदा रह सकता है

मैंने पूछा कि पाठकों की सामूहिक हत्या हिन्दी का फासिज्म नहीं तो और क्या है
उसने कहा कि वह पहले प्रकाशकों और आलोचकों से पूछेगा, फिर बताएगा

मैंने पूछा कि नये मार्क्सवादी कवि, सिर्फ फासिस्ट पर लिखी कविताएं क्यों अच्छी हैं
उसने कहा कि बीमारी या कत्लेआम में मारे गये बच्चों के बारे में आलोचकों से पूछिये

मैंने कहा कि तुम हिन्दी के इनामी कवि हो, कीमती चश्मा लगाते हो
उसने कहा कि नहीं वह चर्चित लेखक है और पैंट साफ पहनता है

मैंने कहा कि तुम्हारी सारी बटनें टूटी हुई क्यों है 
उसने कहा कि हवाओं को रोकना फासिस्ट हरकत है

मैंने पूछा कि निठल्ले लेखक संगठन में क्यों हो, आरएसएस में क्यों नहीं जाते
उसने कहा कि लेखक संघ अच्छा है, आरएसएस और उसकी सरकार फासिस्ट

मैंने कहा कि तुम भले कवि हो कुछ छुपाते नहीं हो, दमक रहा है मुखड़ा 
उसने कहा कि वह बेवकूफ नहीं है, हिन्दी के अपराध के बारे में कुछ नहीं बोलेगा

मैंने कहा कि सिर्फ फासिस्ट का विरोध क्यों जरूरी है, लालटेन जलाओ
उसने कहा कि इस हिन्दी से जनता को जगाना पहाड़ पर सिर पटकना है

मैने कहा कि निराश क्यों होते हो हिन्दी के लेखक हो इंकिलाब तुम्हें ही करना है
उसने कहा कि माफ करो, पहले मुझे कविता में किसी तरह इंकिलाब करने दो

मैंने पूछा कि हिन्दी के लेखक हो मुंह खोलो जुबान का नट-बोल्ट दिखाओ
उसने कहा कि खबरदार जो मेरी किसी जुबान को हाथ लगाया

मैंने पूछा कि अच्छा इतना तो बता दो भाई कि मैं हिन्दी का लेखक हूं या नहीं
उसने अपने तीन नेत्रों और दो जिह्वाओं से प्रचुर अग्नि छोड़ते हुए कहा, चूतिया लेखक हो

मैंने कहा कि क्षमा करो हिन्दी के नये सुमनो, मैं तो तनिक भी चतुर नहीं हूं
अपनी इस अतिशय दरिद्रता पर झुका हुआ है मेरा शीश, कलम कर दो।

(यात्रा 12)



5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह...!! लेखकीय धर्म की साफगोई के निर्वाह का सार्थक प्रयास .
    "इज्म" की खोल में स्वतंत्र चिंतन और अभिव्यक्ति की बातें अगर बेमानी हैं तो लेखन में निश्चित तौर पर बोईमानी है !तो फिर स्वान्त:सुखाय रघुनाथगाथा से कौन-सी परेशानी है कि काजी जी दुबले हुए जाते हैं ओर सहर होने का अंदेशा जताते हैं ??

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  2. बहुत धारदार व्यंजनापूर्ण कविता है |यह अभिजात्य मानसिकता वाले कवियों को भंडाफोड़ करने के लिये ज़रूरी है | करण सिंह जी की टिप्पणी के बाद यह कविता पढ़ना वाक़ई भीतर तक बेंध गया |

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  3. सादर प्रणाम। सारगर्भित रचना।
    सच्चाई को दिखाती हुई।
    अच्छी व्यञ्जना।

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  4. बहुत समीचीन और धारदार कविता।

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  5. कर्ण सिंह जी की टिप्पणी बहुत तथ्यात्मक, तार्किक और बेबाक है। और यही बात आपकी कविता के लिए भी कही जा सकती है। कविता बहुत मारक और धारदार भी है। आप दोनों को सादर बधाई।

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