- गणेश पाण्डेय मैंने पूछा कि तुम हिन्दी के कवि हो उसने कहा कि वह हिन्दी का नया मार्क्सवादी कवि है मैंने कहा कि तुम हिन्दी के कवि हो उसने कहा कि हो सकता हूं पर उसके मूल विचार हिन्दी के नहीं हैं मैंने कहा कि फिर भी तुम हिन्दी के कवि हो उसने कहा कि हां-हां, क्यों नहीं, पर वह हिन्दी में सिर्फ लिखता है मैंने पूछा तुम्हारी कविता का मुहावरा हिन्दी का है न ? उसने कहा कि उसे पता नहीं कि मुहावरे कहां-कहां से आते हैं मैंने पूछा कवितासम्राट, नये ज्ञानमार्गी हो कि नये प्रेममार्गी या मेरी तरह कुछ और उसने कहा बस ईमानमार्गी नहीं हूं, बाकी क्या है पृथ्वी पर जो मैं नहीं हूं मैंने पूछा कि हिन्दी के सुघरकवि, तुम आखिर रहते कहां हो, किस मुहल्ले में उसने कहा कि वह बड़ी अकादमी के पिछवाड़े अपनी बस्ती में रहता हैे मैंने कहा कि अच्छा-अच्छा, तुम फासिस्ट को सिर्फ संसद से क्यों जोड़ते हो उसने कहा कि साहित्य में फासिस्ट नहीं होते हैं, जो होते हैं मार्क्सवादी होते हैं मैंने पूछा कि कविता में विश्वविजय की आकांक्षा, जनाकांक्षा है उसने कहा दूसरे कवियों के साथ षड्यंत्र फासिस्ट हरकत नहीं है मैंने पूछा कि कविता के लोकतंत्र में मुकुट और राज्याभिषेक क्या है उसने कहा कि उसे मालूम नहीे कि कोई कवि इसके बिना कैसे जिंदा रह सकता है मैंने पूछा कि पाठकों की सामूहिक हत्या हिन्दी का फासिज्म नहीं तो और क्या है उसने कहा कि वह पहले प्रकाशकों और आलोचकों से पूछेगा, फिर बताएगा मैंने पूछा कि नये मार्क्सवादी कवि, सिर्फ फासिस्ट पर लिखी कविताएं क्यों अच्छी हैं उसने कहा कि बीमारी या कत्लेआम में मारे गये बच्चों के बारे में आलोचकों से पूछिये मैंने कहा कि तुम हिन्दी के इनामी कवि हो, कीमती चश्मा लगाते हो उसने कहा कि नहीं वह चर्चित लेखक है और पैंट साफ पहनता है मैंने कहा कि तुम्हारी सारी बटनें टूटी हुई क्यों है उसने कहा कि हवाओं को रोकना फासिस्ट हरकत है मैंने पूछा कि निठल्ले लेखक संगठन में क्यों हो, आरएसएस में क्यों नहीं जाते उसने कहा कि लेखक संघ अच्छा है, आरएसएस और उसकी सरकार फासिस्ट मैंने कहा कि तुम भले कवि हो कुछ छुपाते नहीं हो, दमक रहा है मुखड़ा उसने कहा कि वह बेवकूफ नहीं है, हिन्दी के अपराध के बारे में कुछ नहीं बोलेगा मैंने कहा कि सिर्फ फासिस्ट का विरोध क्यों जरूरी है, लालटेन जलाओ उसने कहा कि इस हिन्दी से जनता को जगाना पहाड़ पर सिर पटकना है मैने कहा कि निराश क्यों होते हो हिन्दी के लेखक हो इंकिलाब तुम्हें ही करना है उसने कहा कि माफ करो, पहले मुझे कविता में किसी तरह इंकिलाब करने दो मैंने पूछा कि हिन्दी के लेखक हो मुंह खोलो जुबान का नट-बोल्ट दिखाओ उसने कहा कि खबरदार जो मेरी किसी जुबान को हाथ लगाया मैंने पूछा कि अच्छा इतना तो बता दो भाई कि मैं हिन्दी का लेखक हूं या नहीं उसने अपने तीन नेत्रों और दो जिह्वाओं से प्रचुर अग्नि छोड़ते हुए कहा, चूतिया लेखक हो मैंने कहा कि क्षमा करो हिन्दी के नये सुमनो, मैं तो तनिक भी चतुर नहीं हूं अपनी इस अतिशय दरिद्रता पर झुका हुआ है मेरा शीश, कलम कर दो। (यात्रा 12)
- गणेश पाण्डेय सिया तुम मेरी प्रिया नहीं हो तो क्या हुआ उस युग की सिया नहीं हो तो क्या हुआ कितनी सुघड़ हो सलोनी हो कितनी अच्छी हो अपनी इस कृशता में कोई परिधान हो रंग कोई समय कोई भी चाँद के सामने हो जैसे कोई कोमल ऐसी कि छूकर नत हो जल वाणी से नित चूता है जिसके राब तुमसे भी प्यारा है सिया तुम्हारा जिया तुम्हारा यह लव और तुम्हारा यह कुश मीठा इतना कि पूछो मत चूम कर देखे कोई उनके रसभरे कपोल कैसे खिलखिल करते हैं नटखट जब वे तुम्हें देख मुस्काते हैं कैसे उनके संग नाचती हो अपने एकाकी जीवन की रानी तुम कैसा है यह तुम्हारा मरियल पति जिसकी मद्धिम से मद्धिम पुकार पर छोड़छाड़ कर सब द्रुतदौड़ लगाती कैसे दिनभर खटती हो अपने छोटे से घर में हजार काम वाली हाथगाड़ी में अकेले जुती परमेश्वर पति से खाती हो डाँट कभी तो मार कभी कभी नमक के लिए तो इस्त्री के लिए कभी जूते की धूल की तरह झाड़ी जाती हो हजार बार दुखी होकर अकेले में रोती हो सिया जानता हूँ सब जानता हूँ रोज शाम को पीकर घोड़े पर आना उस परमेश्वर का सजधज कर चौखट से टिककर तुम्हारा लग जाना आँखों में काजल के नीचे थरथर करती रोज तुम्हें देखा है ऐसे ही छिपकर अपने भीतर रहते देखा है। तुम्हीं कहो कैसा है यह पति निर्दयी कसाई जो अपनी परिणीता को रोज डराता है तुम भी कैसी सिया हो किसकी हो बेटी कुछ तो बोलो कहाँ रहते हैं माँ-बाप अवध की हो कि मिथिला की कि भोजपुरिया क्यों नहीं आते हैं यहाँ हँसकर फोन पर क्यों सब अच्छा कहती हो यह तुम कैसी सिया हो सिया जिसका पति तुम्हें अपने भीतर के किसी दूसरे बुरे आदमी से बचाता नहीं है खसी की तरह रोज बाँध कर उसके आगे कर देता है पराये शहर में एक भली स्त्री की आहत आत्मा को क्षत-विक्षत करने के लिए किस युग का पति है यह क्या लंका से आया है किस ग्रह से आया है बोलो ढ़ूँढ़ता रहता है तुममें नुक्स पर नुक्स इसे तुम जैसी सिया पर हाथ उठाते देखता हूँ दुखी हो जाता हूँ कैसी सिया हो तुम्हें फिर हँसते-मुस्कराते हुए उसके पीछे-पीछे भागते देखता हूँ यह कैसा जीवन है सिया इस अग्नि में तुम्हें क्षण-प्रतिक्षण धू-धू कर जलते हुए देखता हूँ हाँ देखता हूँ आज की सिया को देखता हूँ अपने ही घर में अपने परमेश्वर की आज्ञा से अकेले वनवास काटते हुए देखता हूँ देखता हूँ समय के माथे से बहते हुए सिंदूर के झरने के नीचे सोलहसिंगार करके बैठी हुई सिया का अस्थिपंजर देखता हूँ नहीं चाहिए मुझे इस तरह किसी स्त्री को पिटते हुए देखने का पैसा नहीं देखना है मुझे किसी सिया का इस तरह रोज-रोज आहत होना दो दिन में खाली कर दे राक्षस किराये का यह मकान इससे पहले कि मैं कुछ कर बैठूँ ... पर जाओगी कहाँ सिया कहाँ ले जायेगा यह राक्षस तुम्हें कौन देखेगा तुम्हें इस तरह तुम्हारा दुख किसे छुएगा... (यात्रा 12)
-गणेश पाण्डेय विचारधारा विचारधारा सोने की मुर्गी नहीं मुर्गी का अंडा भी नहीं विचारधारा बहुत सोचा-विचारा फिर पाया कि पैंट, पाजामा या हॉफपैंट नहीं है विचारधारा जवाहर जैकेट और गाँधी टोपी कुच्छ नहीं विचारधारा चचा होते तो कहते आज खखारकर गला- इक आग का दरिया उनके लिए जो इसमें डूब-डूब जाना चाहते हैं बुझने नहीं देना चाहते हैं जो इक आग जिन लेखकों के लिए रसरंजन है विचारधारा उनकी बात न करें जनाब वे पीकर मूत देते हैं बात-बात पर गोरखपुर से लखनऊ तक और लखनऊ से दिल्ली तक कहाँ-कहाँ नहीं है विचारधारा की सुपारी लेने और खाने वाले आलोचक मेरी तो बात ही छोड़िये श्रीमान जी ऐसे लेखक से बेलेखक भला जब धरी की धरी रह जाएगी सोने की यह दुनिया क्या करूँगा नाम और इनाम लेकर किसकी जेब में रखूँगा किसके डिब्बे में डालूँगा मेरे लिए विचारधारा जब तक मेरे पास है शुद्ध हवा है साफ पानी है मेरा प्यार है मेरा घर-संसार है मेरे बेटें बेटियाँ मेरा अड़ोस-पड़ोस और घड़कन है विचारधारा इंकिलाब हो न हो जीने की ताकत है विचारधारा। पुरस्कार सोने का मृग देखा है कभी सुना है कभी रामकथा में उसका जिक्र राम के जीवन में एक सीता आती हैं फिर एक स्वर्णमृग आता है कथावाचक कहता है कि किसी राक्षस के छिपने के लिए सोने से अच्छी जगह भला और कौन हो सकती है सीता के दुख के मूल में सोने का वही मृग था जो राम की इच्छा में था और जब मैंने कथावाचक महाशय से पूछा- राम कथा रचने वाले कवियों के दुख का मूल क्या सोना नहीं बोले कथावाचक, नहीं-नहीं श्रीमन् पहले की बात नहीं जानता पर आज कवि के फँसने के लिए तो सोने की भी जरूरत नहीं चाँदी-सादी तांबा-पीतल भी नहीं वह तो चमड़े के एक चिथड़े पुरस्कार के लिए भी फँस सकता है आप ही बताएँ कि हजार -पाँच सौ में कितना सोना मिलता है कितना चाँदी मैंने कहा-जी आप रामकथा कहें, कवि कथा मुझे कहने दें। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में और उसके बाद कवियों ने जहाँ-जहाँ और जिस-जिस सड़क पर लिखी थी कविता उसकी जगह लिख दिया पुरस्कार और कहा-फर्क नहीं पड़ता कि मैं तुलसी या कि सूर या कि कबीर-सबीर का वंशज नहीं हूँ कहा कि मैं कविता का डाकू हूँ कोई वाल्मीकि नहीं और तुम कैसे अहमक हो जो नहीं जानते जंगल और जेएनयू का फर्क भाड़ में जायें तुम्हारे तुलसी के राम डूब मरें कबीर-सबीर के राम उन सबसे सुखी अपने राम ये देखो ये सोने का है ये चाँदी का यह रहा नकदी जिंदाबाद-जिंदाबाद पुरस्कृत कवि जिंदाबाद-जिंदाबाद। अच्छाई अच्छाई का घर अच्छे-अच्छे विचारों के पिछवाड़े नहीं होता है अच्छी से अच्छी किताबें हों मुफ्त में नहीं सिखाती हैं अच्छाई अच्छाई आकाश से नहीं झरती है शरद पूर्णिमा की रात अच्छाई शहर के किसी मँहगे मॉल में या गाँव की छोटी-सी दुकान में सस्ते में बिकने वाली चीज नहींे अच्छाई कोई लैपटॉप नहीं जिसे बाँटती फिरें सरकारें कोई भभूत नहीं है अच्छाई कोई प्रसाद नहीं जिसे हलवा-पूड़ी के बदले में दें धर्माचार्य अच्छाई माँ-बाप से विरासत में मिलने वाली सम्पत्ति नहीं खेत-खलिहान, मकान और कल-कारखाने में गड़ा हुआ धन नहीं है अच्छाई पृथ्वी की सबसे सुंदर प्रेमिका की झील से भी गहरी आँखों में अच्छाई का बेशकीमती खजाना छिपा नहीं होता है किसी मंदिर या मस्जिद की नींव में भी नहीं रखी गयी होती है अच्छाई पूजा की ईंट की तरह अच्छाई तो सिर्फ अपने खून-पसीने से कमाई जाती है दोस्तो। बुराई बुराई कोई मिठाई नहीं जो बिकती हो किसी मिष्ठान्न भण्डार पर अखबार में छपी हुई कोई कविता भी नहीं जिसे पढें़ सब वेद की कोई ऋचा भी नहीं बुराई कोई इत्र नहीं है बुराई कोई सूट-बूट नहीं है बुराई बड़े बजट की कोई लटके-झटके वाली फिल्म नहीं है बुराई किसी स्कूल किसी कॉलेज की सर्टिफिकेट नहीं है बुराई कद-काठी में कोई हेडमास्टर नहीं है बुराई शक्ल-सूरत और शैतानी के मामले में यूनिवर्सिटी के किसी एचओडी का थोबड़ा नहीं है बुराई किसी खद्दर के सूत या सफेद रंग या पार्टी के झण्डे-सण्डे की तरह दिखती नहीं है बुराई बुराई किसी अदालत के हुक्म पर फाँसी का फंदा भी नहीं बहुत सुंदर बहुत प्यारी बेसुध कर देने वाली अपनी भुजाओं में कसकर हर लेती है प्राण मुई छोटी से छोटी बुराई मन के किसी तहखाने में होता है उसका राज उसका तख्त और ताज जिसे एक कमजोर आदमी छिपकर पहनता है और भेस बदलकर बाहर निकलता है घड़ी-घड़ी बदलता रहता है अपना चेहरा अपनी आँखें अपनी आवाज अपनी चाल वह अपनी बुराई के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलता है और बुराई उसके बारे में कुछ नहीं छुपाती है। (यात्रा 12 से)
-गणेश पाण्डेय मेरे गाँव से सिवान तक उसके सिवान से उसके गाँव तक दूर-दूर तक खेतों की छाती डबडब पानी से जुड़ाएगी नहीं चाहे उर्वरधरा की अनगिन दिनों की लंबी प्यास बुझेगी नहीं जड़ों में पहुँचेगी नहीं गोबर की खाद चाहे यूरिया - स्यूरिया तो कैसे लहलहाएंगी फसलें कैसे झूमेंगी नाचेंगी गाएंगी धान की लंबी-लंबी बालियां छातियों से ऊँचीं कैसे रास्ता रोक कर बाबूजी जी को बताएंगी अपनी बहादुरी के किस्से कैसे गेहूँ हाथ मिलाएगा छूकर स्कूल जाते बच्चों से एक-एक करके कुछ चीजें बहुत जरूरी होती हैं आदमी के जीने के लिए जैसे मजबूत से मजबूत फेफड़े के लिए मुट्ठीभर हवा अँजुरीभर मीठा पानी दो कौर दालभात औकातभर दवाएं बस और क्या चाहिए किसी गरीब को जमाने से राजा-महाराजा से किसी मंत्री-संत्री से और क्या चाहिए इतना भी नहीं देते तो किसलिए होते हैं राजा और महाराजा अपना पेट भरने के लिए कि अपनी तिजोरी राजा का बेटा खाए दूधभात हमारा एक मुट्ठी कोदो-साँवा राजा के बेटे के लिए आकाशमार्ग हमारे बेटे के लिए लीक भी ठीक नहीं धन्नासेठ की बीवी का जन्मदिन दो सौ करोड़ में हमारी बीवी का कोई जन्मदिन ही नहीं कौन हैं जो सच को चोर की तरह छिपाकर रखना चाहते हैं ये लेखक, विद्वान, आचार्य और अखबारनवीस सब धन्नासेठ और राजा के पालतू इनामी कुत्ते अक्सर किसी झूट्ठे को राजा-महाराजा बनाकर रखना चाहते हैं हम क्यों देखते हैं दूसरों के मुखारविंद यह कौन है जो हमारे भीतर छुपा है और हमें कुछ अच्छा करने से रोकता है कोई लालच का पुतला है कि कोई डर। (यात्रा 12)
- गणेश पाण्डेय कोई सेवक मुल्क लूटता है कोई सूबा और कोई शहर कोई सोना लूटता है कोई हीरे-जवाहरात कोई कुछ मैं चाहता हूँ अपने पसीने की इतनी कीमत जिससे खरीद सकूँ अपने बच्चों के खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने के लिए कुछ चीजें और थोड़ी-सी खुशियां इससे ज्यादा कामयाबी और नसीब नहीं चाहिए मुझे नहीं चाहिए मुझे दूसरे के मुँह का निवाला और दूसरे के हिस्से का प्यार नहीं चाहिए मुझे मेरे पड़ोसी के पैरों के नीचे की जमीन मुझे अपने छप्पर के लिए सिर्फ उसका हाथ चाहिए उसका साथ चाहिए नहीं चाहिए मुझे जरायम की काली दुनिया की अकूत कमाई अपनी गरीबी के उजाले में अपनी आत्मा को तृप्त करना आता है मुझे अपने बच्चों को अँधेरे के राक्षस से बचाना आता है मुझे उनकी आँखों में सच्चाई और संघर्ष के सपने बसाना आता है मुझे बस यह जरा-सा बुरा वक है लड़ लूँ इससे फिर कर लूँगा सब आता है मुझे बस यह जरा-सा बुरा है वक्त बिल्कुल जरा-सा और कितने हैं हमलोग इतने सारे लोग। (यात्रा 12)
- गणेश पाण्डेय यह बुराई नये जमाने की बुराई है जनाब बला की खूबसूरत देखिये तो ताकत में बेजोड़ और उतनी ही मिलनसार और दिलकश आसान और सस्ती इतनी कि जो चाहे उसकी हो जाए रात-बिरात कहीं भी चली जाए किसी के संग क्या राजा की सभा क्या उसका रनिवास क्या ईश का मंदिर और क्या महंत का भुंइधरा क्या कचहरी क्या अस्पताल क्या अखबार का दफ्तर और क्या विश्वविद्यालय-सिद्यालय हवा में मिली हुई खुशबू की तरह पसर जाए दसों दिशाओं में सबके दरवाजे की सांकल बजाए कहाँ कहाँ नहीं चली जाए जिसके पास हो समय का पारस हो छू दे तो कुर्सी सोने की हो जाए जेब में हो तो पलभर में दुनिया अपनी हो जाए कवि की मुश्किल यह कि कहे तो क्या कहे जिसके पास हो इस समय का महाकवि हो जाए जादू है जादू छोटी से छोटी बुराई पहले जेब में छिपाकर रखते थे बुराई की चाँदी का एक रुपया अब दिखाकर रखते हैं सिर पर उसका भारी-भरकम मुकुट पहले अच्छाई सहज थी साँस की तरह आप से आप आती-जाती थी अब बुराई की हल्दी बाँटी जाती है घर-घर ऐसा क्यों है बाबा गोरख अच्छाई अति कठिन तप क्यों बुराई क्यों सरल अजपाजाप राजनीति की संसद में पहुंचना सरल अति अध्यात्म की ऊंचाई पर समाधि लेना अति कठिन यह सोचकर डर लगता है कि ऐसे बुरे वक्त में जिन लोगों के पास सोने और चाँदी का चश्मा नहीं है ऐसे लोगों के मारे जाने की असल वजह भूख और बीमारी की जगह अच्छाई क्यों है ? (यात्रा 12)