मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

आपकी सदिच्छा का सम्मान करता हूँ...

-गणेश पाण्डेय

आप मेरे शुभेच्छु हैं। आपकी सदिच्छा का सम्मान करता हूँ। मैं मानता हूँ कि वे नहीं बदलेंगे, या कुछ नहीं बदलेगा और यह भी मानता हूँ कि मैं यह सब कर भी नहीं पाऊँगा। मैं तो साहित्य का बहुत छोटा कार्यकर्ता हूँ। आपने खुद कहा है कि मुझे अपना काम करना चाहिए, मैं सिर्फ अपना काम कर सकता हूँ और वही कर रहा हूँ।
              पृथ्वी पर सबके लिए थोड़ी-सी जगह होती है। राजा के लिए बहुत तो रंक के लिए भी जरा-सी। पृथ्वी पर चोर भी रहते हैं तो साव भी। क्या सब चोर ही रहते हैं ? सब राजा-वजीर ही नहीं होते हैं, कुछ कारिन्दे और कुछ चौकीदार भी होते हैं। आखिर एक चौकीदार का भी तो कोई धर्म होता है या नहीं ? क्यों वह अँधेरी रात में खाली सड़क पर लट्ठ खड़काता है और आवाज लगाता है ? जब उसका काम महान पूँजीपतियों जितना रुपया कमाना नहीं है तो वह लट्ठ ही तो खड़काएगा ? समाज में अमन-चैन और हिफाजत रहे, इसलिए कुछ लोग राजा नहीं बनते हैं, सिपाही बनते हैं, ट्रैफिक वाला बनते हैं, फौज में जाते हैं, कुछ लोग समाज सेवी बनते हैं...आप तो जानते हैं कि मुझमें राजा बनने की इच्छा कभी नहीं थी, जिन्दगी भर सुई की नोंक बराबर थोड़ी-सी जगह यहाँ, हिन्दी की दुनिया में पाने के लिए की। आप ही बताएँ, किस आँख वाले राजा के राज्य में ऐसा होता रहा है कि दरबारी, नौकर-चाकर जैसे लोग स्वाभिमानी प्रजा के सिर पर पैर रखकर चलते थे, उसका तनिक साफ-सुथरा अँगरखा फाड़ देते थे ? आशय यह कि बुनियादी तत्व जीवन में कभी नहीं बदलता है। दरबारी, दरबारी होते हैं और विद्रोही, विद्रोही। क्या स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में यहाँ अंग्रेजों के दलाल नहीं थे ? इसे भी छोड़िए, जिसका जो काम है, वह वही करता है। बाघ का काम गधा नहीं कर सकता और मोर का काम हाथी नहीं कर सकता है। वीर का काम कायर नहीं कर सकता और दीवाने का काम कोई धंधेबाज नहीं कर सकता। 
           मुझे महान काम नहीं करना है। रामचरित मानस नहीं लिखना है। मुझे कविता का विश्वविजय नहीं करना है ? मुझे कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, निराला, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद, रामविलास इत्यादि नहीं बनना है, जिन्हें यह सब बनना है, क्या कर रहे हैं या अब तक किया क्या है ? मुक्तिबोध ने कहा है जीवन क्या जिया ? मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम ? इन कथित महान लोगों के रहते आखिर पूर्वांचल में हिन्दी तो मर ही गयी न ? असल में इन बेईमानों को हिन्दी की चिंता कहाँ थी ? इन्हें तो अपने सरदार को अमर करने की चिंता थी। इनकी समझ पत्थर से आगे कहाँ जाती  ? पत्थर पर लिख गया अमुक पद तो अमर हो गये, यह है इनकी समझ। जिन नासमझों को यह सब करना है, करें। यह मेरा काम नहीं है। जैसे वे मेरा काम नहीं कर सकते हैं, वैसे ही मैं उनका काम या उनकी तरह काम कैसे कर सकता हूँ। मैं यह नासमझी कैसे दिखा सकता हूँ कि फूल-मालाओं से लाद कर कहूँ कि आप अमुक अकादमी के अध्यक्ष हो गये हैं तो आपने जग जीत लिया है, क्या आप खुद यह कह सकते हैं कि अमुक प्रधानमंत्री हो गये तो गांधी, नेहरू, लोहिया इत्यादि हो गये हैं ? जाहिर है कि किसी पद पर पहुँचना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, बौद्धिक या साहित्यिक उपक्रम नहीं। मैंने तो यहाँ के लोगों को अनेक छोटे-मोटे या बड़े-बड़े लोगों के सामने साष्टांग होकर पूजा करते देखा है, देखा तो आपने भी है, भला मैं या जो न चाहे वह यह सब कैसे कर सकता है ? मैं या कोई करेगा वही जो वह चाहेगा। अर्थात करेगा तो अपना काम ही। उनका काम वे करें, अपना मैं करूँगा। 
            मैं जानता हूँ कि मेरे कहने से कुछ नहीं होगा, दुनिया जैसे है, वैसे ही चलेगी। आपके मुहावरे में कहूँ तो सब ऐसे ही चलेगा। आप तो साहित्य के एक कथित बड़े पुरस्कार-व्यास-की चयन समिति इत्यादि में रहे हैं, आप निकट से जानते हैं कि आज ऐसे पुरस्कारों की पात्रता और महत्व क्या रह गया है। मैं साहित्य के इस पक्ष को लेकर आपकी बात से सौफीसदी सहमत हूँ कि साहित्य में सब ऐसे ही चलेगा, लेकिन निवेदन यह कि शुरू में अंग्रेजों को हटाना भी तो असंभव था या नहीं ? बाल-विवाह और बेमेल विवाह और सती प्रथा इत्यादि बुराइयों को दूर करने की कोशिश भी तो आखिर हुई या नहीं ? किसी हद तक कुछ बुराइयाँ, खत्म या कम हुईं। यह भी सच है कि भ्रष्टाचार की बुराई, जातिवाद की बुराई, दहेज की बुराई, स्त्री-हिंसा इत्यादि की समस्या जस की तस है तो क्या इसके खिलाफ आवाज न उठाएँ ?
          छोड़िए यह सब, दुनिया से पूँजीवाद का नाश नहीं होगा, साम्प्रदायिकता खत्म नहीं होगी, धार्मिक कट्टरता ऐसे ही रहेगी तो क्या इन्हें हटाने की कामना भी जिंदा न रहे ? जो लोग बेहतर दुनिया का स्वप्न देख रहे हैं, वे अपनी आँखें साहित्य अकादमी के गुसलखाने में जमा कर दें ? इसे भी छोड़िए, कुछ लोग इस देश को यह जानते हुए भी कि सौ बार भी जन्म लें तो ऐसा नहीं होगा, फिर भी इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं तो कुछ लोग यह जानते हुए कि सिर्फ उनके कहने से धर्मनिरपेक्षता का विचार मूर्त रूप नहीं लेगा, क्यो धर्मनिरपेक्षता की वकालत करते हैं ? वे यह सब पाखंड कर सकते हैं तो क्या मैं साहित्य के घर को तनिक साफ-सुथरा करने की बात नहीं कर सकता ? क्या साहित्य में सुधार की बात सचमुच नासमझी है ? चलिए, साहित्य के घर को भी छोड़िए, खुद को तनिक बचाकर नहीं रख सकता हूँ ?
             आप जानते हैं कि मेरा एक छोटा-सा उपन्यास है- ‘अथ ऊदल कथा’। मैं यहाँ जिंदगी भर तरसता ही रहा कि कोई मेरा आल्हा बने, बना कोई ? मैं आज खुद आल्हा हूँ। मैंने बस युवा अवस्था में ही नाम-इनाम की नन्ही-सी इच्छा को अपनी इन्हीं कलम पकड़ने वाली उँगलियों से मसल दिया और आल्हा बन गया। जो ठीक समझता हूँ, कहता हूँ। अपने छोटे भाइयों को आगाह करता हूँ, उनके आँसू पोंछता हूँ, यही मेरा साहित्य में सबसे बड़ा काम है। जो हो सकता है करता हूँ। अनुमति दे ंतो अपनी एक कमजोर कविता से बात खत्म करना चाहूँगा। कमजोर कविता का जिक्र इसलिए कि मैं रचना को उस तरह नहीं देखता जिस तरह हिन्दी के विद्वान देखते हैं। हिन्दी के विद्वान सिर्फ अच्छी और महान रचना को अच्छी नजर से देखते हैं, मैं एक खराब रचना को भी अच्छी नजर से देखता हूँ। देखता हूँ कि तमाम राख में कहीं कोई चिंगारी है या नहीं ? है तो मेरा ध्यान जाएगा। मेरी इस कविता में कवि जीवन का थोड़ा-सा बारूद है, कला का पहाड़ नहीं-

मैंने अपना काम किया

मैंने अपना काम किया
छोड़ो किसने क्या किसके संग किया

चींटी की गति को देखा सप्रेम
किसी नीम की छाल चूमकर पूछा दर्द
पास दिखा जब कोई सच्चा जैसा
कंधे पर रख दिया हाथ

जहां जरूरत थी बोला टूटा-फूटा
विद्या के मंदिर में झाड़ू नित्य दिया
खुद को रखा साफ बचाकर मुश्किल से
धूल फेंकने वाले थे तमाम
कुछ को तो गरियाया खूब
कुछ को लेकिन माफ किया

जीवन के सर्कस में स्कूटर से गिरा गजब
फिर भी न मरा
पहली बार भिड़ा बकरी से
बिजली के खम्भे फाट पड़ा अगली बार
उसके बाद
सिर दे मारा हिंदी की बिल्डिंग पर 
रहा तनावों में अक्सर
अलबत्ता
खुदपर हंसने का खेल नहीं कर पाया

जाने-अनजाने में 
ऐसे ही कुछ इक्का-दुक्का काम किया

किसने खाया किसका हबर-हबर
किसने फेंका किसपर छिपकर अप्रकाश
धाट किया किस विधि से
जीवन की कविता में किसने फ्रॉड किया
छोड़ो भी
जिसने जो भी किया 
किया उसे यों दूर चुटकी से
देखो जी मैंने अपना काम किया। 

                अंत में यह कि साठ की उम्र में न मैं खुद को बदल पाऊँगा, न वे। वे जो कर सकते हैं करते रहें, मुझसे जो हो पाएगा करता रहूँगा। आप जैसे शुभेच्छुओं से बहुत बल मिलता है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आप मेरा मंगल चाहते हैं, आप चाहते हैं कि कविताएँ निरंतर लिखता रहूँ। कोशिश करूँगा कि आगे कुछ अच्छी कविताएँ जरूर लिखूँ। गद्य को निराला ने जीवन संग्राम की भाषा कहा है, इससे दूर नहीं हो पाऊँगा।
नववर्ष की शुभकामनाओं सहित...
         





1 टिप्पणी:

  1. बहुत-बहुत शुक्रिया सर। आपको पढ़ना अच्छा लगता है। आपके विचारों की बेबाक अभिव्यक्ति काबिल-ए-ग़ौर है। बहुत से युवा भी आपकी बातों से सहमत हैं। उसे सिद्दत से जीते हैं। कमज़ोर रचनाओं को किसी की सलाह पर मजबूत बनाने की कोशिश नहीं करते, उनका जवाब होता है जो मैंने लिखा है...लिखा है। उसको पढ़ना है तो पढ़िए और आनंद लीजिए। शायरी लिखना मैंने किसी कॉलेज और स्कूल से नहीं सीखा। मैंने ख़ुद से सीखा है। इस तरह की बातों को जीने वाले युवाओं और आपकी बातों में एक साम्य दिखाई देता है। नए साल में आपकी कविताओं का सिलसिला जारी रहे। नई पीढ़ी में धैर्य का अभाव है। वह बहुत कुछ फटाफट हासिल करना चाहती है, लेकिन भाषा की बगिया सींचने में तो सालों साल लग जाते हैं...तब जाकर धीरे-धीरे इस इस बगिया में फूल आते हैं। बहुत-बहुत शुक्रिया सर आपकी इस पोस्ट के लिए। इसके साथ-साथ नए साल की ढेर सारी शुभकामनाएं और बधाइयां।

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