गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

कविता के रिश्ते की एक बहन से कुछ बातें उर्फ ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया

- गणेश पाण्डेय

प्रिय बहन, मैं नही जानता कि मेरा आपको बहन कहना कैसा लगेगा, आपने मुझे मित्र कहा है और में आपको बहन कह रहा हूं। इसलिए बहन कह रहा हूं कि मित्र और बहन में मेरे लिए कोई अंतर नहीं है। यह इसलिए कह रहा हूं कि शुरू में यह बात साफ कर दूं कि साहित्य में मैं कोई चलता पुर्जा नहीं हूं, देहाती मनुष्य हूं। साहित्य मेरे लिए इंकिलाब का कोई नाटक नहीं है, जैसा कि आज के तमाम लेखक लोग करते हैं। मेरे पास एक बहुत छोटी-सी पत्रिका है। इतनी छोटी कि पूछिए मत। चींटी की मुंडी जितनी। जैसे चींटी और हाथी की कहानियां हैं, ऐसी कोइ्र कहानी इसके साथ नहीं है। अलबत्ता इस पत्रिका की शुरुआत साहित्य की अट्टालिकाओं के सामने असहमति और प्रतिरोध की एक बहुत मामूली छीनी के रूप में हुई थी। शुरू में सोचा था कि बस दस अंक निकल जाएं और अपनी बहुत-सी बातें कह दूं, लेकिन अब देखता हूं कि बातें हैं कि खतम ही नहीं हो रही हैं। हां इन बातों में साहित्य की दुनिया को चुटकियों में बदलकर रख देने का कोई भाव नहीं है। जानता हूं कि हमारे समय के हिन्दी के तमाम महान लेखकों के पास विचारधारा और इनाम-सिनाम का एवरेस्ट है और वे इस देश या दुनिया को रत्तीभर उस तरह नहीं बदल सके, जिस तरह ऐलानिया तौर पर उन्हें बदलना था। मैं और यात्रा तो बहुत छोटी चीज हैं। मैं हिन्दी की दुनिया को बदल नहीं सकता। इतना ही नहीं उसे बदलने की कोई मजबूत कोशिश होतू हुए देख भी नहीं सकता। हां इतना जरूर कर सकता हूं कि उसे बदलने के पक्ष में एक हाथ उठा सकता हूं और वही कर सकता हूं।
    बहन, जब यात्रा के लिए कविताएं आमंत्रित करने की बात दिमाग में आयी तो उसके पहले दिल में एक बात आयी कि कुछ ऐसा हो कि लगे कि हो रहा है। एक कोशिश हो रही है कविता की दुनिया में विकल्प के एक डग की। लोग देखें कि एक कदम ऐसा भी हो सकता है। कविता की खेतीबारी को इस तरह भी देखा जा सकता है। कविता के राजपाट को इस तरह भी मुंह चिढ़ाया जा सकता है। बेईमान के कान इस तरह भी उमेठे जा सकते हैं, इस तरह का एक स्केच कान उमेठते हुए बनाया जा सकता है। यह कान उमेठना नहीं है तो और क्या है कि अपने छोटे से शहर में बैठकर एक देहाती लेखक ताल ठोंककर यह कह रहा है कि ‘‘एक छोटी - सी इच्छा यह है कि युवा कविता की पहचान की जाय। उसे उसके वैशिष्ट्य के साथ रेखांकित किया जाय। सबसे बढ़कर यह कि उसके साथ न्याय की एक छोटी-सी कोशिश यात्रा की ओर से हो। यह सिर्फ हमारे चाहने भर से नहीं होगा, बल्कि आप भी चाहेंगे तब होगा। हम न्याय कर पाएं या न कर पाएं, पर न्याय के लिए छटपटाहट हमारी कोशिश में जरूर हो। यह काम देखने में जितना अच्छा लग सकता है, हो सकता है कि करने में उससे कहीं ज्यादा मुश्किल हो। मुश्किलों की फेहरिस्त से पहले अपनी बात। मैं पचास साल का होने के बाद पहली बार अपनी बिटिया को एक इम्तिहान दिलाने के लिए दिल्ली गया था। दूसरे तमाम युवा और युवतर लेखक पच्चीस - तीस की उम्र में पचास बार दिल्ली की परिक्रमा कर चुके होते हैं। कहने का आशय यह कि बहुत से लेखक जो अपने समय के साहित्य के मठाधीशों की परिक्रमा करने में निपुण नहीं होते हैं, वे प्रायः आलोचक और संपादक की तंगनजरी की वजह से अपने समय के अँधेरे में पड़े रहते हैं। क्या एक वर्ष में एक ही अद्वितीय कविता लिखी जाती है? फिर एक कविता से और एक चयनकर्ता के प्रभामंडल के प्रभाव से एक युवा कवि रातोंरात चर्चा में ला दिया जाता है । मेरा मतलब कविता के भाभू आभूषण से है। असल बात यह कि बहुत से लेखकों के लिए दिल्ली जिन्दगी भर दूर रहती है और बहुत से लोग फीकी कविता कुछ लोगों की कृपा से ऊंची कीमत पर बेच लेते हैं। मैं यह नहीं कहता कि भाभू कवि रोशनी के आलीशान होटल में न रहें, लेकिन जो कवि उन-उन सालों में अदेख रहे, उन्हें भी देखने की कोशिश हो। इस आयोजन को भाभू के विरोध में देखने की कोशिश के रूप में न लेंगे, निश्यच ही उनमें भी कई कवियों ने अच्छी कविताएँ लिखी होंगी। क्या ही अच्छा हो कि वे भी अपनी दस-दस चुनी हुई कविताएँ भेज दें, जिनमें उनका पूरा कवि व्यक्तित्व अँटा हो। उन्होंने अच्छी कविताएँ लिखी होंगी यह जितना सच है उतना ही सच यह भी है कि भाभू के बाहर भी अच्छी कवतिएँ लिखी गयी होंगी। क्या ऐसा सोचने में कोई नुक्स है? मैं अपने कुछ मित्रों और प्रियजनों से क्षमायाचना के साथ यह निवेदन करना चाहूँगा कि मैं सिर्फ भाभू को अच्छी कविता का सबसे बड़ा प्रमाण नहीं मानता, बल्कि उसे अच्छी कविता और अच्छे कवियों की पहचान में बड़ी बाधा मानता हूँ। जबकि हमारे समय के कुछ निठल्ले इसी के आधार पर पिछले पचास साल की कविता में कवियों की सूची बनाते हैं। ऐसे ही चयनकर्ताओं की पसंद से कुछ और नाम जोड़ लेते होंगे। यात्रा की योजना कोई सूची बनाने की नहीं है, बल्कि हम चाहते हैं कि सिर्फ एक पुख्ता सबूत पेश हो। यह काम आसान नहीं है। सबूत तो आपकी कविताएँ हैं, आप हमें भेजेंगे तब हम यह कर पाएंगे। कोई कवि यह सोचेगा कि हम पीछे के रास्ते से कविता के ठेकेदारों के घर में अपने लिए जगह बना लेंगे तो यह अपने समय की कविता के साथ गद्दारी होगी। मेरी कविता तेरी कविता से आगे सबकी कविता और अच्छी कविता की ओर बढ़िए। इसके लिए जरूरी है कि पहले अपनी कविता भेजिए। अच्छी कविताएँ जरूर भेजिए। कुछ मित्रों का सुझाव है कि पचास से कम उम्र के कविताएँ आमंत्रित करने के साथ पचास से ऊपर के कवियों को भी सादर आमंत्रित किया जाय। सहमत हूँ, उल्लेख कर दें और भेजे। कविताएँ 15 दिसम्बर तक इस पते पर भेज दें-’’ 
   आखिर जब मैं कहता हूं कि ‘‘ कोई कवि यह सोचेगा कि हम पीछे के रास्ते से कविता के ठेकेदारों के घर में अपने लिए जगह बना लेंगे तो यह अपने समय की कविता के साथ गद्दारी होगी। मेरी कविता तेरी कविता से आगे सबकी कविता और अच्छी कविता की ओर बढ़िए। ’’ तो मुझे यह पता है कि आज अधिकांश कविता लिखने वाले कवि अपने कवि जीवन में बेहद लिजलिजे डरपोक और सिर्फ कविता में कह कर इंकिलाब करने वाले हैं। वे हिन्दी के राक्षसों से लड़ने के लिए नहीं आएंगे, बल्कि उनसे कोई इनाम पाने की जुगत भिड़ांएंगे। जाहिर हैं कि मैं ऐसे लोगों से कविताएं नहीं मांगता। स्वाभिमानी कवियों से कविताएं मांगता हूं। उन कवियों से कविताएं मांगता हूं जो कविता की भ्रष्टसत्ता की आंख में उंगली डालकर अपने समय की कविता का सच दिखाना चाहते हैं। जानता हूं कि कविता के गद्दार कवि कविताएं नहीं भेजेंगे। उन्हीं के खिलाफ तो यह प्रतीकात्मक लड़ाई है। उन्हें और उनके आकाओं को दिखाने के लिए कि लो देख लो। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे गांव की कुश्ती में पहलवान ताल ठोंककर चैलेंज करता है कि है कोई जो इस पहलवान से लड़ेगा! मित्रो कविता की दुनिया में मल्लयुद्ध नहीं होता है। कविताएं आमने-सामने रखी जाती हैं। इतने से काम हो जाता है। उदाहरण के लिए अपनी सिर्फ एक कविता रखता हूं, यह बताने के लिए आमने-सामने ऐसे कविताएं रखी जाती हैं, पर दुर्भाग्य से हमारी पीढ़ी के आलोचकों और संपादकों ने ऐसा किया नहीं। ‘‘मुश्किल काम’’ शीर्षक है मेरी कविता का-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहां-वहां
जहां-जहां जाता था वह अक्सर धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे जो मेरे साथ तो थे
पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेर नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-
‘पीना और शैतान के संग ?’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
     इस कविता को देखिए बहन और साठ साल के मेरी पीढ़ी के दूसरे कवियों की कविताओं में से कोई एक कविता इस वजन और रूह की छांटिए। फिर पता कीजिए कि इस कविजीवन की कविता किस कवि के पास है ? गौर कीजिए कि विचार और अचार की किताब से देखकर ऐसी कविताएं नहीं लिखी जाती हैं, जीवन से बनती हैं ऐसी कविताएं। आज के महाकवियों के पतली मोरी के पाजामे से भी नहीं झरती हैं कि उनके पीछे-पीछे चलने वाले कवि बटोर लें। सच तो यह कि ऐसी कविता लिखने वाले पुरस्कार के लिए साहित्य के ठेकेदारों के तलुवे नहीं सहला सकते और तलुवे सहलाने वाले कवि ऐसी कविताएं लिख नहीं सकते है। प्रिय बहन, मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मैंने कोई महान काम किया है इस या किसी भी कविता को रचकर। मेरा आशय यह कि इस तरह कविताओं को आमने-सामने रखकर हम फर्क देख सकते हैं। एक बात फिर साफ कर दूं कि अपनी कविता को सिर्फ उदाहरण के रूप में रखा है। अपने को किसी भी कवि से श्रेष्ठ बताने के लिए कतई नहीं।
    बहन चाहता तो यही हूं कि आने वाली कविताएं ऐसे ही रखी जाएं, लेकिन सभी कविताओं को देखने के बाद कुछ कह पाना संभव होगा। आपकी यह चिंता ध्यान में है कि ‘‘मुझे नहीं लगता कि कविता की सही-सही परख रचयिता के नाम के साथ हो पाएगी ! कविता का सत्यानाश ही इसलिए हुआ है क्यों कि आलोचना राग द्वेष से परे हो ही नहीं पाई है। हमने व्यक्ति की हस्ती बेहस्ती देख कविता के आकलन किये। कितनी ही पत्रिकाओं में बहुलता में ऐसी कविताएँ आ रही हैं जिन्हें जन से कविता की दूरी का घोषित श्रेय देने का मन हो जाए पर वे छपीं ही नहीं नाम ही काफी है की तर्ज़ पर सराहीं गईं। यह हुई एक बात दूसरी बात उन विरक्तों की जो कविता की दुनिया में पूरी प्रतिभा ईमानदारी और लगन से आये किन्तु हत्प्रभ घृणा के साथ लौट गए एक से एक उम्दा किन्तु अब अप्रसिद्ध कविता देकर। ऐसे खुद्दारों का क्या ? उनके लिखे को कैसे खोजा जायगा जो आप तक कुछ भी नहीं पहुँचाना चाहते और पटल पर कौन हैं ? आत्मप्रचार के हाय हल्ले में निमग्न या संग्रह के कवर पेज तक प्रचारित करते लज्जाहीन गैंगबाज़ मठाधीश आलोचना के हथियार तक कब्जाए हुए लोग ? अच्छा हो कि कविताएँ मंगाने के बाद नाम पहचान विहीन होकर ही आलोचित हों। बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़िए और तब देखिये कि दम कितना है विचार की ताज़गी कितनी है सलीका कैसा है वर्ना मुझे ख़ास उम्मीद नजर नहीं आती इस प्रयास में भी। आशा है आप इस कोशिश में समकालीन कविता के अतिवरिष्ठ मर्मज्ञ भी साथ रखेंगे जो फेसबुकिया पॉलटिक्स से सुदूर कहीं साधनारत हैं। आपके विचार भी जानना चाहूँगी। आदर सहित।
पुनश्च फेस बुक ही कविता का प्रांगण नहीं जबकि आप इस मसले में फेस बुक पर अतिनिर्भर दीख हैं क्या यह सीमित प्रयत्न भर न रह जाएगा ? खैर आशा है अन्यथा न लेंगे मशविरा और वार्ता भी पथ प्रशस्त करेंगे इस औत्सुक्य एवम् हार्दिक सम्मान के साथ...’’ बहन आपकी चिंता कविता की सखी की चिंता है। आपकी चिंता में मेरा भी स्वर है।
   अपनी ओर से आपकी चिंता में कुछ जोड़ना-घटाना चाहूंगा। जरा-सा। दरअसल जहांतक मैं कविता के मूल्यांकन में कमी देख रहा हूं वह आलोचक के साहस की कमी है। वह अपने को कविता की देवी का चाकर या पुजारी नहीं समझता, बल्कि खुद को कविता का धंधेबाज समझता है। उदाहरण तो यह भी है कि नागार्जन जैसे कवि कहते हैं कि ‘अगर कीर्ति का फल चखना है/आलोचक को खुश रखना है।’ नागार्जन का यह कहना आलोचना की आंख फूटने का का प्रमाण नहीं है ? आज आलोचक की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा खतरे में है। नौमीनाथ से लेकर मरे दोस्त तक सब के सब संदेह के घेरे में हैं। फिर आप चाहें तो यह सवाल कर सकती हैं कि मैंने अपने मित्र को इस काम में क्यों शामिल किया ? असल में मैं जानता हूं कि मेरा मित्र कहां कितना ढ़ीला होगा, कहां धीरे से कुछ कहेगा। दूसरों के बारे में आश्वस्त कम हूं। अपने मित्र के काम पर मेरी नजर रहेगी। जरूरत पड़ने पर मैं हाजिर रहूंगा। सारी कविताओं पर लिख तो मैं भी सकता हूं, पर चाहता हूं कि इधर की कविता पर काम करने वाले काव्यालोचक भी गौर करें। मैं तो गौर करूंगा ही। अपने मित्र अरविंद त्रिपाठी की दुर्बलताओं को जानता हूं तो उनकी शक्ति को भी जानता हूं। वे हमारे समय की कविता का अवगाहन मनोयोगपूर्वक करेंगे। जानता हूं कि कैसे दो बजे रात तक कविताओं के संग जागते हैं। आप यकीन करें कि वे नाम से बहुत प्रभावित नहीं होंगे। कम से कम उन क्षणों में जिनमें मैं उनके साथ रहूंगा। कविताओं को उत्तरपुस्तिका बनाकर कोड़िंग करना, फिर आलोचक को सौपना किसी भी आलोचक के लिए सम्मानजनक नहीं होगा। मैं तो यहां के अपने दुश्मनों के अपमान की भी चिंता करता हूं। दरअसल इस तरह के प्रयास आलोचक की आंख खोलने के लिए ही होते हैं। आपकी इस बात पर ध्यान जा रहा है कि आपने ठीक ही ध्यान दिया कि यह सारा आयोजन फेसबुक पर आधारित हो जा रहा है। एक बात जरूर है कि यहां मित्रों से मैंने ऐसी कोई अपील तो नहीं की है कि फेसबुक के बाहर के मित्रों को फोन से इस आयोजन के बारे में बताएं। ऐसा इसलिए कि भरोसा है कि कविता के आयोजन को सभी कवि अपना आयोजन समझेंगे, बाहर के कवियों को बताएंगे। फिर भी आपने कहा तो अब अपील करता हूं कि मित्र फोन से बाहर के मित्रों को भी बताएं कि 15 दिसंबर तक दिये गये ईमेल के पते पर कविताएं भेज दें। वैसे अंत में यह कहना जरूरी है बहन कि यह सिर्फ एक छोटी-सी शुरुआत है, और भी लोग आएंगे जो इस काम को आगे ले जाएंगे। मैं खुद को सिर्फ नींव खोदने वाला मजदूर मानता हूं, कविता की नयी इमारत बनाने वाले कारीगर लोग आगे आयेंगे। शेषफिर। आपका...कविता के रिश्ते का एक भाई।








1 टिप्पणी:

  1. एक अच्छे उद्देश्य से किया गया कार्य जरूर अपनी पहचान बनायेगा ……साधुवाद

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