सोमवार, 23 जून 2014

बिगाड़ के डर से पुरस्कार का सच न कहें ?

-गणेश पाण्डेय
          मुझे ऐसा लगता है कि अपने समय में कवि, कविता और पुरस्कार का पूरा सच न तो पत्रिकाएँ छाप पाती हैं और न इस माध्यम पर आ पाता है। एक तीसरा माध्यम भी है मित्रो, जिसे समय कहते हैं। मूल्यांकन के मामलें में तो साहित्य का यह माध्यम अपने समय में बिल्कुल ही नहीं काम करता। यह काम तब करता है, जब काफी पानी सिर से गुजर चुका होता है। काफी कुछ बीत चुका होता है। काफी लोग किसी और लोक में कविता लिखने या आलोचना का धंधा करने जा चुके होते हैं। आशय यह कि जब उम्रदराज कवि और उनके चेले-चापड़ और उपकृत जन इस पृथ्वी से कूच कर चुके होते हैं। कवियों की मालाएँ, रुपये और शाल इत्यादि, मिट्टी में मिल चुके होते हैं या खर्च हो चुके होते हैं या उनके उत्तराधिकारी उसे फेंक-फाँक या फेँक-फाँक चुके होते हैं। तब साहित्य का सच्चा और निर्मम आलोचक समय प्रकट होता है और  अपना काम शुरू करता है।
        साहित्य का यह सबसे बड़ा और विश्वसनीय आलोचक ‘समय’ नहीं आता रहता तो बहुत से लेखकों ने अपने समय में धारा के विरुद्ध लिखना ही छोड़ दिया होता। बहुत से लेखक अच्छा लिखने के साथ खुशामद न करने की जिद छोड़ चुके होते। वे सब अपने वक्त की कविता के देवताओं की बैठक और आलोचना के दारोगाओं के थाने में उठक-बैठक करते हुए पूरी उम्र बिता चुके होते और उन्हें खुश करने के लिए न सिर्फ उनका अँगरखा धुलते रहते, बल्कि उनके सेवकों और दलालों की खुशामद की कला में अपने समय के तमाम कवियों की तरह पारंगत होते। बचाया किसने ? बस वही साहित्य के ‘समय’ जी ने।
           मित्रो, आप सोच रहे होंगे कि मैं काफी समय बाद फिर कवि, कविता, पुरस्कार पर क्यों कुछ कह रहा हूँ। असल में हुआ यह कि अभी बिल्कुल अभी हमारे समय के हिन्दी के एक अच्छे कवि को ज्ञानपीठ मिला है। यहाँ जो कुछ भी कहूँगा, पुरस्कृत कवि के प्रति असम्मान व्यक्त करने के लिए नहीं। यह बात स्पष्ट कर देना जरूरी है। केदार जी हमारे समय के तीन-चार अति महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। जिस पुरस्कार के बहाने बात कर रहा हूँ, उसे आज की तारीख में हिन्दी कवियों को देना हो तो जाहिर है कि यही नाम होंगे। यहा इन नामों से तनिक भी विरोध नहीं है। विरोध पुरस्कार की संस्कृति से है। आज की तारीख में पुरस्कार इन कवियों को नहीं, यदि भगवान को भी मिलता तो तब भी इस तरह की बातें होतीं। असल में हिन्दी कविता में पुरस्कार की संस्कृति के साथ ही अनुयायीपन भी खूब फैला है। कबीर, निराला, मुक्तिबोध के समय उनके इतने अनुयायी न रहे होंगे। ये अनुयायी इतना शोर करने लगते हैं कि लगता है कि आसमान सिर पर उठा लेंगे। इतना ही नहीं, ये अपने प्रिय कवि को महान ही नहीं मानते हैं, बल्कि बाकायदा उनकी कविता की नकल शुरू कर देते हैं। जाहिर है कि यह प्रवृत्ति हिन्दी कविता के सहज विकास की बाधक बनती है। अपने समय को प्रभावित करती है। अपने समय के साहित्यिक मूल्य को नुकसान पहुचाती है। ऐसे में साहित्य का जो अँधेरा ये निर्मित करते हैं, उसके मूल में हजार-पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर बड़े-बड़े पुरस्कार शामिल हैं। पहले कविता के इतने बच्चे पुरस्कार न थे कि हर युवा कवि एक पुरस्कार का बैट-बाल लेकर घूमे। इधर पुरस्कारों की दुकानें खुल गयी हैं। बहुत बड़ी दुकान भी खुल गयी हैं। ज्ञानपीठ हो, व्यास हा, साहित्य अकादमी हो, पुरस्कारों की एक लंबी पंक्ति है। ज्ञानपीठ ग्यारह शायद ग्यारह लाख रुपये का पुरस्कार है। अभी दो-चार दिन पहले विमल जी ने या किसी ने कहा कि यह पुरस्कार पाँच रुपये का होता तो क्या होता! असल में पत्रकार का दिमाग केवल कविता और आलोचना लिखने वालों से कुछ अधिक चलता है। ठीक चलता है।
   आखिर ज्ञानपीठ पुरस्कार को क्या भगवान ने खुद गढ़ा है ? उसकी निणार्यक समितियों में अपने समय के लेखक-अलेखक ही होते हैं या सीधे ईश्वर खुद आकर बैठते हैं ? दूसरी समितियों में भी तो ऐसे ही लोग बैठते हैं या अन्य पुरस्कारों की दूसरी समितियों में मिट्टी की मूर्तियाँ बैठती हैं ? फर्क केवल पैसे का है या और कुछ ? तो अब पुरस्कार के पैसे से तय होगा कि कौन अपने समय का बड़ा लेखक है ? रचनाओं से तय नहीं होगा ? केदार जी हों या कोई और, किसी भी हिन्दी कवि को यह पुरस्कार मिला होता तो वह कवि अपनी रचनाओं से बड़ा या छोटा नहीं होता ? फिर यह पुरस्कार क्यों ? कवि की कविता का सम्मान पाठक के हाथ में जाने से है या पुरस्कार की जूरी के सामने जाने से ? पुरस्कार को लेकर यह तो पृथ्वी की सबसे बड़ी नासमझी है भाई। संतोष की बात यह कि इस तरह की नासमझी हिन्दी के सभी लेखकों में नहीं है। उन लेखकों में ही है जो औसत लेखक हैं या पुरस्कारवादी लेखक हैं या जिन्होंने पुरस्कार को साहित्य का सबसे बड़ा सच और मूल्य मान लिया है या जो खुद हजार-पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर कुछ हजार या लाख के पुरस्कारों की कतार में हैं, न सिर्फ एक कतार में हैं, बल्कि कई कतार में हैं। किसी कतार में सिर फँसाया है तो किसी में हाथ, किसी में पैर, किसी में कुछ। ये पुरस्कारकामी लेखक हिन्दी के मर्द कवि नहीं है। जानता हूँ कि ऐसा कहते ही कई मित्र नाराज हो सकते हैं, पर क्या बिगाड़ के डर से पुरस्कार का सच नहीं कहूँगा ? स्पष्ट करना चाहता हूँ कि पुरस्कारकामी सिर्फ उन्हें नहीं समझता हूँ जो अपने घर में बैठे रहते हैं और कुछ लिखने के आधार पर पुरस्कार की कामना करते हैं। पुरस्कारकामी उन्हें कह रहा हूँ जो बाकायदा पुरस्कारों के लिए जहाँ-तहाँ नाक रगड़ते हैं। हद दर्जें की तिकड़म करते हैं। जाने दीजिए, क्या-क्या नहीं करते हैं। किसी ने एक दिन कवि के जीवन की बात की थी, कुछ ने कवि के जीवन को अदेख करने की बात की थी। शायद ऐसा ही कुछ था। न भी रहा हो, बस इतना कि हिन्दी में बड़ी कविताएँ कवि के बड़े जीवन के बिना संभव नहीं हुईं हैं। कवि का जीवन ही नहीं, बड़ी कविता के लिए साहित्य का बड़ा मूल्य भी जरूरी होता है। भक्तिकाल की महान कविता में पुरस्कार या अशर्फियों के लिए कहीं जगह है ? बाद की कविता में भी बड़ी कविता के सामने कहाँ ठहरती है पुरस्कारकामना ? इससे पहले कि कुछ और कहूँ, मर्द कवि के बारे में साफ कर दूँ कि शमशेर ने ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका लिखते हुए मुक्तिबोध को मर्द कवि कहा है। शमशेर न भी कहते मुक्तिबोध को मर्द कवि तो कबीर, निराला, मुक्तिबोध जैसे तमाम कवियों को बड़े मजबूत कवि के रूप में ही हम देखते। यह मजबूती दरअसल कहीं न कहीं कवि के जीवन से आती है। कबीर जब यह कह सके कि आन बाट ह्वै काहे न आया, तो इसमे उनके खरे जीवन की शक्ति शामिल थी। बहरहाल, कहना यह है कि मजबूत कवि होना और अच्छा कवि होना दोनों दो तरह की बातें हैं। अच्छे कवि तो बिहारी भी हैं, पर मजबूत कवि नहीं हैं। बात पुरस्कार की कर रहा था। ज्ञानपीठ की बात कर रहा था। अभी बिल्कुल अभी, हिन्दी के एक अच्छे कवि को मिला है। केदार जी हमारे समय में दिये जाने वाले इस पुरस्कार से खराब कवि नहीं हैं। यहा जो कुछ कह रहा हूँ सिर्फ पुरस्कार संस्कृति के विरोध में कह रहा हूँ। केदार जी के विरोध में नहीं।
     इस पुरस्कार को लेकर कई तरह की बातें इस माध्यम पर की गयी हैं। तमाम लोगों ने बल्लियों उछलकर स्वागत किया है, यह अच्छी बात है। कोई अपना या निकट का है या जिससे कुछ संबंध है, उसे मिले पुरस्कार पर बिल्कुल सकारात्मक प्रतिक्रया देना सही है। खुश होने का पूरा हक है ऐसे लोगों को जिन्हें पुरस्कृत कवि ने खुद कभी पुरस्कृत किया हो। यह साहित्य के शिष्टाचार का तकाजा है। जिस कवि को मिला है, निश्चित रूप से भले कवि हैं। भला केदार जी को भला आदमी कौन नहीं कहेगा ? कभी कहीं कोई लड़ाई-सड़ाई नहीं, सबसे मधुर संबंध। ऐसे कवि का अनिष्ट भला कौन चाहेगा ? पृथ्वी के सारे पुरस्कार केदार जी को मिल जाएँ तो भी किसी को तनिक भी दुख नहीं होना चाहिए। चिंता और प्रश्न यह कि पुरस्कार सबके लिए होते कहाँ हैं भाई ? मुक्तिबोध को मिला ? क्या मिला ? कई महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला। इसका अर्थ यह नहीं कि साहित्य के समाज में इन पर चर्चा नहीं होगी। कुछ तो लोग कहेंगे ही कहेंगे। कोई डरेगा नहीं तो इन बकवास पुरस्कारों का पूरा सच ही कहने लगेगा। जो डरेगा या जिसका स्वार्थ कभी सधा होगा या सधने वाला होगा या सधने की उम्मीद होगी या जिसे साहित्य में अपनी जाति सबको बताने की जल्दी होगी कि भाई लोग देख लो मैं भी पुरस्कारवादी हूँ, इसलिए बहुत खुश हूँ, ऐसे लोग ऐसे मौके पर पुरस्कारों कर सच्चाई पर बात नहीं करेंगे।
      बात केदार जी के प्रसंग के बहाने ही पुरस्कारों पर चल रही है।मैं केदार जी का मान कम करने की हिमाकत नहीं कर रहा हूंँ। कुछ प्रश्न और चिंताएँ है और विश्लेषण प्रश्नोंऔर चिंताओं की धरा पर ही संभव है। मैं एक छोटा-सा उदाहरण यहाँ रखना चाहता हूँ। केदार जी पूर्वांचल के कवि है। यह शहर पूर्वांचल का ही हिस्सा है। यहाँ से केदार जी का निकट रिश्ता रहा है। रिश्ता तो उनका यहाँ के कवि देवेंद्र कुमार बंगाली से भी रहा है। उन्होंने अपने प्रयास से बंगाली जी पर साहित्य अकादमी पर एक कार्यक्रम भी कराया। कुछ-कुछ बंगाली जी का प्रिय था मैं। बंगाली जी केदार जी को प्रिय थे। फिर मेरे और केदार जी के बीच कुछ तो प्रेम का रिश्ता होना चाहिए था ? पर केदार जी एक बहुत अच्छे कवि होकर अकवियों या कुकवियों या सिर्फ प्राध्यापकों या दूसरे तरह के लोगों से क्यों घिरे रहे ? इस अवसर पर क्या कहना चाहिए या क्या नहीं, यह पीछे छूट चुका है। जो सामने है कह देना है। जिसने बंगाली जी को हीर कविता से प्रेम करते अनुभव किया वह कवि उस काय्रक्रम से दूर था। इसलिए कि कुछ लोग या कोई गिरोह मेरे विरोध में था। यह अपने मान-अपमान की कथा नहीं कह रहा हूँ, सिर्फ केदार जी के कविता प्रेम और साहस की कथा कह रहा हूँ। बातें तमाम हैं, पर मैं कुछ और नहीं कह रहा हूँ। केदार जी में वह कम है, जो किसी कवि को बड़ा कवि बनाता है। सिर्फ यह कहने के लिए यहाँ का तनिक-सा प्रसंग उद्धृत किया। इस उदाहरण के पीछे मेरी कोई अन्य मंशा नहीं। इसलिए बात आगे बढ़ाता हूँ। किसी बडे से बड़े कविव्यक्तित्व के लिए न्यूनतम यह है कि वह किसी छोटे से छोटे कवि के साथ अनादर और अन्याय न होने दे। कोई स्वाभिमानी कवि ऐसा होने नहीं देगा। स्वाभिमान के नाटक भी बहुत होते हैं। वह भी पता है। आप किस तरह के लोगों के सामने झुक जाते हैं, किस तरह के लोगों के साथ रहते हैं, यह सब आपके कविव्यक्तित्व को बनाता है। केदार जी में बहुत मुलायमियत दिखी। कोमलता इतनी की पूछिये मत। यह हर समय दुर्गुण नहीं होता है। कभी-कभी हो जाता है। एक बात यहाँ साफ कर देना बहुत जरूरी है कि कुछ तो कमी मुझमें भी रही होगी। वह क्यो न बताऊँ ? मेरी कमी यह कि केदार जी जब भी यहाँ आते मैं उनसे मिलने नहीं जाता था। शायद एक या दो बार उनसे मिलने जाना हुआ होगा, पर वह बाहर जब भी और जहाँ भी मिलते अपनी कविता की सबसे लंबी मुस्कान लिए मिलते। बहुत प्यार से। यह जो सामने दिखता था, उनका गुण था। कुछेक शामें भी कई मित्रोंऔर नामी-गिरामी लेखकों के बीच गुजरीं। यह सब उनका गुण था। एक कवि के रूप में भी उनमें कम गुण नहीं हैं। रेशम के धागे से बुनी उनकी कविताएँ भला किसे अच्छी नहीं लगेंगी ?
         मुझे कहना ही हो केदार जी के कविरूप पर तो कहूँगा कि केदार जी हमारे समय सबसे सुदर, सबसे कोमल और सबसे ज्यादा उजले-धुले इकलौते खरगोश कवि हैं। हमारे समय की हिन्दी कविता के अरण्य में अपने कोमल पग में नूपुर डाल कर सबसे तेज दौड़ने वाले कवि। सबसे चतुर कवि। सबसे चौकन्ने कवि। यह केदार जी हैं और जो नहीं हैं, पूरा कहने का अधिकारी तो नहीं हूँ, पर कुछ अनुभव करता हूँ। केदार जी में जीवन का वह खुरदरापन नहीं देख पाया जो पहले के दूसरे कवियों के यहाँ है। वह संघर्ष नहीं देख पाया। यह मेरी सीमा रही होगी कि पहले के कवियों कबीर, फिर निराला, फिर मुक्तिबोध को पसंद करता रहा। मैं केदार जी को उन कवियों की पंक्ति में रखकर नहीं देख सकता। केदार जी मुझे इसके लिए क्षमा करेंगे। हालांकि केदार जी खुद भी इतने अज्ञानी नहीं हैं कि अपने को उन कवियों की पंक्ति में रखकर देखेगें। यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि पीछे चलने वाले नये कवियों की फौज सिर्फ इस माध्यम पर ही नहीं, बाहर भी कुछ इस अंदाज में जयकार करती है कि जैसे केदार जी ने कोई पुरस्कार पाकर कविता का कोई किला जीत लिया। अरे भाई पुरस्कार कविता का किला नहीं है। धंधा है। शुद्धरूप से धंधा। आखिर ज्ञानपीठ हो या अज्ञानपीठ या कोई भी पीठ, यदि वह सचमुच साहित्य को सम्मानित करने के लिए पुरस्कार देती है तो अपने समय के कवियों को क्यों ? क्यों नहीं जो पहले के महान कवि हैं उनके वंशजों और उत्तराधिकारियों में जो हों उन्हें बुलाकर सबसे पहले सम्मानित करती ? उसे भी छोड़िये। पहले के कवियों को पुरस्कार नहीं तो अब क्यों ? यह उम्र के आखिरी पड़ाव पर या शुरू में ही कवियों को पुरस्कृत करने की जरूरत क्यों ? उनकी रचनाओं के प्रकाशन और संरक्षण और जनसुलभ बनाने की कोशिशों की जगह ये पुरस्कार क्यों ? आज हिन्दी प्रकाशन जगत लूटमार का अड्डा बना हुआ है। किताबों के चयन में हजार बेईमानियाँ हैं। एक लेखक के महत्व को सीध्रो प्रकाशक नहीं समझता है, उसे कोई माध्यम चाहिए। कोई हो जो बताए कि यह अच्छा या खराब है। वह चाहे तो किसी अच्छे को खराब बताए और खराब को अच्छा। यह हिन्दी का सबसे भयानक है कि एक लेखक अच्छा लिखे और उसके बाद प्रकाशक और आलोचक के चरणों में सिर नवाये। लानत है ऐसे हिन्दी लेखक समाज पर। पुरस्कारों को लेकर भी क्या कम गंदगी है ? ऐसे में इस अँधेरे को दूर करने की जगह पुरस्कारों के प्रति यह आकर्षण क्यों ? या इसलिए कि आज के कवि पहले से बेहतर हैं ? या इसलिए कि आपके पास कुछ पैसों की व्यवस्था है तो आप साहित्य के पुरस्कारों का धंधा कर सकते हैं ? सच तो यह हमारे समय के पुरस्कारों ने साहित्य में इंसेफेलाइटिस फैलाया है, जिससे साहित्य के बच्चे विकलांग होते जा रहे हैं। इंसेफेलाइटिस पर मेरी कविता है, केदार जी की बनारस पर है। क्षमा करेंगे मुझे अपनी कविता का नाम नहीं लेना चाहिए था। पर कहना यह था कि केदार जी हमारे समय के तमाम कवियों से अच्छे कवि हैं, बल्कि बहुत अच्छे कवि हैं, बल्कि सबसे अच्छे कवि हैं, पर यह जरूरी तो नहीं कि पहाड़ की मिट्टी में वह तत्व हो ही जो तराई के किसी ढ़ेले में हो। हाँ कहना जरूरी है कि मुझे भी केदार जी की कविता मुग्ध करती है, पर नशा हर समय अच्छा हो जरूरी नहीं। केदार जी की कविता मुग्ध करती है, पर मुक्तिबोध की कविता उठाकर कंधे पर बैठा लेती है। केदार जी को किसी और तरह से कहना हो तो यथार्थ का नर्स कहना जरूरी चाहूँगा और मुक्तिबोध को सर्जन। एक बड़ी चीर-फाड़, बहुत सारा खून और फिर एक जीवन को संभव बनाता दृश्य। समाज को बेहतर बनाने का उपक्रम करता कवि। अपने समय के सच को फटकार कर कहता कवि। जोखिम उठाता कवि। मैं यह सब कह क्या रहा हूँ ? यह सब कहने की कोई जरूरत थी ? भला मुक्तिबोध का नाम लेने की क्या जरूरत थी ? केदार जी तो उस पंक्ति में हैं ही नहीं। क्या इसलिए कह रहा हूँ कि उनके अनुयायी बल्लियों उछल रहे हैं ? उछलें न क्या फर्क पड़ता है ? केदार जी से भला मुझे क्या ईर्ष्या ? वे अस्सी के मैं साठ के करीब ? बंगाली जी उनकी बड़ी इज्जत करते थे, भला उनके प्रति मेरे मन में असम्मान कहाँ से आ सकता है ? बंगाली जी की आत्मा मुझे डाँटेगी। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता। हाँ, यह जो कुछ कह रहा हूँ सिर्फ पुरस्कार को लेकर फैली महामारी के बारे में कह रहा हूँ। केदार जी का बहाना है, बस। ‘साहित्यिकमुक्ति का प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो’ में पुरस्कार से मुक्ति की बात कर चुका हूँ, पर वह बात केदार जी जैसे लोगों के लिए नहीं के बराबर और नये लोगों के लिए ज्यादा है। अखबार के लोग गँवरई करें तो बात समझ में आती है कि उन्हें कविता समझ में नहीं आती है, वे छोटे-बड़े पुरस्कारों के आधार पर ही किसी कवि का मूल्य तय करते हैं, लेकिन जब कविता करने वाले लोग ऐसी गँवरई करते हैं तो तकलीफ होती है। कहना सिर्फ इतना है कि यह नासमझी है कि ज्ञानपीठ पाने से या कोई भी पुरस्कार पाने से केदार जी हो या कोई भी कवि वह बदल नहीं जाता है। उसकी कविता जितनी अच्छी या खराब रहती है, पुरस्कार के बाद भी उतनी ही अच्छी या खराब रहती है। किसी कवि की कसौटी पुरस्कार नहीं उसकी रचनाएँ होती हैं। केदार जी को अच्छा कहें या बड़ा कहें, उनकी रचनाओं के आधार पर कहें। पुरस्कारों के आधार पर कवियों की पूजा साहित्य की सबसे बड़ी नासमझी है।
      कर्णसिंह चौहान की दो पुरानी पोस्ट से बात खत्म करना चाहता हूँ -
‘ पहली पोस्ट :
पुरस्कार प्रकरण
साहित्यिक भ्रष्टाचार के स्रोत
1-पुरस्कार लेना गलत है।
2-पुरस्कार देना गलत है ।
3-पुरस्कार समितियों में होना गलत है ।
4-पुरस्कारों पर बधाई देना और लेना गलत है ।
5-पुरस्कारों पर चर्चा करना गलत है
ये सब साहित्य में भ्रष्टाचार के स्रोत हैं ।
दूसरी पोस्ट :
पुरस्कार राशि का सदुपयोग
1-जितने सरकारी, अर्द्ध सरकारी, स्वायत्त और निजी पुरस्कार हैं - केंद्रीय, राज्य स्तरीय, स्थानीय, व्यक्तिगत - उनकी राशि को केन्द्रीय, राज्य स्तरीय, स्थानीय साहित्य कोषों में जमा कराना चाहिए ।
2- इस राशि को साहित्य और संस्कृति के विकास की योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए ।
3- इस राशि में से आर्थिक रूप से विपन्न मसिजीवी लेखकों और कलाकारों को नियमित सहायता दी जानी चाहिए । इसी में से बीमार पड़ने पर बिना सरकार के आगे हाथ फैलाए उनके इलाज का बंदोबस्त होना चाहिए ।
4-इस राशि में से लेखकों-कलाकारों के लिए भारत भर में ऐसे भवनों, स्थलों, रिजार्टों का निर्माण होना चाहिए जहां वे जाकर रचना-कर्म कर सकें या अवकास ले सकें ।
5-इससे पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिका संग्रहालयों, गोष्ठी कक्षों का जगह-जगह पर निर्माण होना चाहिए ।
        अगर साहित्यिक भ्रषटाचार का स्रोत बनी यह राशि पिछले 65 साल में इन कोषों में जमा होती और इन बुनियादी कामों पर खर्च होती तो अब तक एक व्यापक, सुंदर, साहित्यिक परिवेश का निर्माण हो गया होता । व्यक्तिगत पुरस्कारों के रूप में बांटकर उनका कितना सदुपयोग हुआ यह निश्चित करना मुश्किल है ।’
       मैं तो साहित्य का यहाँ का सबसे बुरा आदमी हूँ, मेरी बात खराब हो सकती है, पर कर्णसिंह जैसे तमाम मित्र जो कह रहे हैं, क्या वह भी खराब बात है ? पुरस्कारवादी या कामी जो कर रहे हैं करते रहें, मेरी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं, ईश्वर करें कि पुरस्कारवादी मित्रों को साहित्य में बहुत यश और सुदीर्घ जीवन मिले।



5 टिप्‍पणियां:

  1. कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं, जिन्हें निस्संग रह कर ही समझा जा सकता है. पुरस्कार-सम्मान अनिवार्य तौर पर श्रेष्ठता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, यह बात कहते तो बहुत सारे लोग हैं, पर अनेक कारणों से हर मामले में एक-सी प्रतिक्रिया नहीं करते. इस आलेख में एक खास बात जो अच्छी लगती है वह यह कि बिगाड़ का डर कहीं भी आलोचक को पीछे नहीं खींचता. कविता का खुरदरापन एक कसौटी भी बन जाता है, इस अर्थ में कि वह कवि-व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित भी करता है. तो ज़ाहिर है कि इसकी अनुपस्थिति भी कवि व्यक्तित्व के लचीलेपन को, कोमलता को, अतिशय शराफ़त को प्रतिबिंबित करेगी ही. आलेख के अंत में कर्ण सिंह चौहान के वक्तव्य को जोड़ा जाना इसकी प्रासंगिकता को तो रेखांकित करता ही है, पुरस्कृतों-सम्मानितों के व्यापक सरोकारों को चिह्नित-प्रश्नांकित भी करता है. बधाई

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  2. आपके आलेख ने सोचने पर मजबूर कर दिया . बहुत महत्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर आपने ध्यान आकर्षित किया है .
    -नित्यानंद

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  3. आपने खरी खरी बाते कही है इसलिये आप गणेश पांडेय है। साफ साफ बात करने के अपने खतरे है।पुरस्कारों के संजाल से हिंदी संसार ढंका हुआ है। बिश्वशनीयता का संकट है।

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  4. यह सब कुछ कहने का बांकपन बस आप में ही है। बहुतों को डर है कि पुरस्कार की राजनीति चर्चा करने से भविष्य में मिलने वाले पुरस्कारों से हाथ न धो बैठे। खरी खरी कहने का यह बांकपन ही हमें खींच लाया कि आप कुछ भी लिखते हैं हम उसे जरूर पढ़ते हैं।

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  5. आप का लेख पढ कर मजा आ गया । इस में आप की बेबाकी और स्पष्टवादिता के साथ केदार जी का बेबाक विष्लेषण है । मैं लम्बे समय तक उन के जीवन और कविता को नजदीक से देखता रहा । उन के जीवन में कोई संघर्ष नहीं रहा वैसे उन की कविता बनावटी दिखावटी रही । उन्हें कोमल कोमल सब मिला और वह भी बैसाखी पर सवार होकर । आदमी वे भले थे पर घुन्ना ।

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