गुरुवार, 21 मार्च 2013

स्त्रीलेखन की मुश्किलें

-गणेश पाण्डेय

यह कैसा कथाकंस है, जिसने एक ऐतिहासिक महत्व की कथापत्रिका को ही नहीं, अपने समय के स्त्रीलेखन को कलंकित किया है। अभी हाल में आभासी दुनिया के किसी पटल पर देखा है कि एक स्त्री विधिपरामर्शदाता ने उसी बदनाम कथासंपादक को एक पिलपिले चरित्र वाले लेखक के रूप में याद किया है। जानते तो सब हैं,पर जब स्त्री खुद बुलंद आवाज में ऐसे भ्रष्ट लेखकों का सच उजागर करने लगे तो समझो कि परिवर्तन की लौ तेज हुई। काफी समय से कथाकंस के किस्से हर शहर में चटखारे लेकर सुने जाते रहे हैं। ऐसे ही संपादक के इर्दगिर्द स्त्रीलेखन का जो दायरा बना, संदेह की दृष्टि से देखा गया। कुछ ने अप्रिय ही नहीं, अपमानजनक भी इसीलिए कहा। आखिर ऐसा क्यों कि हमारे समय के स्त्रीलेखन में उपलब्धियाँ कम रहीं और मुश्किलें और चुनौतियाँ ज्यादा। स्त्रीलेखन का यह संकट सिर्फ एक कथासंपादक के व्यभिचार तक ही सीमित नहीं रहा। कई संपादक और आलोचक बराबर के हिस्सेदार रहे। छोटे सुकुल के नाम से लिखे गये एक लेख ‘‘आलोचक का भीतर-बाहर’’ में तो यह कहा ही गया है कि ‘‘ हिंदी आलोचना के दसवें से लेकर अट्ठारहवें रत्नों में कई ऐसे मिलेंगे, जिनकी कीमत दो कौड़ी की है। दिल्ली या कोलकाता का एसी टिकट है। ये ऐसे गरीब आलोचक हैं जो प्रोफेसरी से रिटायर होने के बाद एक-एक पैसे को दाँत से पकड़ते हैं। गरीब औरतो की तरह अमीर औरतों या लेखिकाओं की साड़ी में फाल लगाते हैं, उनके लिए कई तरह के पापड़ बेलते हैं, अचार बनाते हैं, उनकी पाण्डुलिपियों को उनके बच्चों की तरह सजाते-सवाँरते हैं।’’ जाहिर है कि आलोचक का यह चरित्र जितना बीसवीं सदी की अंतिम चौथाई का है, उतना ही आज का भी है और आगे भी रहेगा। आखिर संपादक और आलोचक का यह चरित्र हमारे समय का प्रतिनिधि चरित्र हुआ ही क्यों ? दिक्कत कहाँ हुई ? क्या कहीं कोई चूक, जरा-सी ही सही गलती, लेखिकाओं से नहीं हुई ? लेखक तो बुरा था ही तो क्या लेखिकाओं को भी उसी रास्ते पर चलना जरूरी था ? यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे समय के लेखक के लिए कि लेखन उसकी ड्यूटी नहीं,यश और पुरस्कार का जरिया है। कोई बेचैनी अपने परिवेश और समाज को लेकर नहीं है, जिसके लिए किसी प्रतिरोध या असहमति के बड़े मूल्य या किसी बडे उद्देश्य के प्रभाव में वह लेखन करे। हद तो यह कि वह जहाँ सामाजिक परिवर्तन और क्रांति का स्वाँग अपनी रचना में करता है, वह भी सचमुच के बदलाव के लिए नहीं बल्कि पुरस्कार और यश के लिए ही। काव्य के प्रयोजन के रूप में यश, आधुनिक काल से बहुत पहले की चीज है भाई। हिंदी कविताई से भी पहले की चीज। इक्कीसवीं सदी में तो यश के शव को अपने कंधे से उतार फेंको भाई। अफसोस की बात यह कि लेखक आज भी उतना ही कमजोर है। लालची है। तनिक भी नहीं सोचता कि जिस कबीर से लेकर मुक्तिबोध तक के जिन कवियों को अपना आदर्श मानता है, उनका साहित्यकर्म पुरस्कार के लिए नहीं,बल्कि सचमुच के समाजिक बदलाव के लिए है। जैसे लेखक यश और पुरस्कार के लिए पतित होता जा रहा है, कहीं स्त्रीलेखन भी तो इसी बीमारी का शिकार नहीं है ? यह प्रश्न बेचैन करता है।
    ऊँचीकक्षा के बच्चों से कहता हूँ कि तुम पृथ्वी के सबसे बड़े महाकाव्य हो। तुम हो तो महाकाव्य है। नही ंतो महाकाव्य और भूसे में कोई फर्क नहीं। आखिर महाकाव्य जैसे बच्चों की रचना करके एक माँ जीवन में क्या कोई पुरस्कार या यश अपने लिए चाहती है ? एक माँ अपने बच्चे के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देती है। उसे भला पुरस्कार की चिरकुटई से क्या लेना-देना ?वह तो दुनिया-जहान सिर्फ बच्चे के लिए चाहती है। वह चाहती है कि उसका बच्चा अच्छा बनें और जग में जाना जाए। लेकिन आज औसत से भी खराब कविता लिखने वाली एक कवयित्री क्यों पृथ्वी का सारा यश अपने नाम कर लेना चाहती है ? सारे पुरस्कार अपनी गोद में डाल लेना चाहती है ? स्त्री किसलिए लिखती है ? मीरा और महादेवी किसलिए लिख रही थीं ? सुभद्राकुमारी वीरों का नाम क्यों ले रही थीं ? आज स्त्रीलेखन का प्रयोजन क्या है ? आधुनिक स्त्री स्त्रियों की बेहतरी के लिए लिख रही है या किसी निजीआंकांक्षा को पूरा करने के लिए ? स्त्रीविमर्श आखिर किस मर्ज की दवा है, जब अपने ही प्रवक्ताओं का इलाज नहीं कर पा रहा है ? स्त्रीविमर्श दृष्टि है या आंदोलन ? क्या सिर्फ और सिर्फ स्त्रियाँ ही अपने बारे में बेहतर कहेंगी ? पुरुष उनके बारे में बेहतर नहीं कहेंगे ? प्रेमचंद और जैनेंद्र आदि ने उनके बारे में खराब कहा है ? क्या स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है ? स्त्रीस्वतंत्रता का कोई बड़ा सामाजिक और आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य नहीं है ? क्या यौनसंदर्भ ही जीवन में सबसे बडा है ? क्या भारत की नब्बे फीसदी स्त्रियों की सबसे बडी समस्या यौनस्वतंत्रता है ?क्या इस देश के महानगरों में रहने वाली उच्चशिक्षाप्राप्त स्त्रियाँ देश की बहुसंख्यक गरीब और अशिक्षित महिलाओ का प्रतिनिधित्व करती हैं ? आज भी ग्रामीण महिलाओं की मुश्किलें किन छोटी-छोटी चीजों के लिए बड़ी से बड़ी हैं,कहने की बात नहीं। सबको पता है। नोन, तेल, लकड़ी और उससे जुड़ी हजार बुनियादी दिक्कतें ही उनके लिए सबसे बड़ी हैं। इन्हीं दिक्कतों का सामना करने के दौरान ही उन्हें कई अत्याचारों और शोषण और प्रतिरोध करने पर दमन का शिकार होना पड़ता है। ऐसा नहीं कि वे मशीन हो गयी हैं या पत्थर की स्त्री बन गयी हैं, उनके हृदय में प्रेम नहीं है या जीवन का उल्लास नहीं है या स्वप्न नहीं है।
       सवाल यह है कि आज स्त्रीलेखन के परिसर की सीमा क्या है ? हमारे समय की कथापत्रिकाओं ने किस स्त्रीलेखन को प्रतिष्ठित किया है ? क्या स्त्री और दलित विमर्श का परचम लहराने वाली कथापत्रिका ने कुछ अविस्मरणीय कहानियो को लाने का काम किया है या सिर्फ लेखिकाओं को प्रमोट करने में ही रुचि ली है ? नई कहानी और आंचलिक कहानी का आंदोलन हवा-हवाई था या उसमें कुछ बहुत महत्वपूर्ण कहानियाँ भी आयीं ? कई ताकतवर लेखकों के आने से वह आंदोलन प्रतिष्ठित हुआ। फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, कमलेश्वर जैसे लेखकों ने अपने समय के रचनात्मक आंदोलन को प्रतिष्ठित किया। क्या यह सच नहीं कि आज कथाकंस का यश का यह सारा साम्राज्य पाप और बेईमानी की धुरी पर टिका हुआ है ? आखिर कुछ लेखिकाओं ने स्त्रीमुक्ति को कथाकंस की दासी के रूप में क्यों देखा ? क्यों नहीं उन्होने अपनी पत्रिका खुद निकाली, बीस पेज की ही सही ? अपनी बात कहने के लिए कथाकंस जैसे बदनाम संपादक की गुलामी क्यों ? या फिर आजादी के बाद की और अपने से पहले के लेखिकाओं की तरह स्वाधीन लेखन क्यों नहीं किया ?
    यह तो अच्छा हुआ कि कुछ लेखिकाओं ने आभासी दुनिया को माध्यम के रूप में चुना। अपने स्टेटस, अपने नोट, अपने ब्लॉग के जरिये अपनी बात ताकत से उठायी। इस आभासी दुनिया में मेरी मित्र सूची में कई ऐसी प्रतिभाशाली और दृढ़ चरित्र लेखिकाएँ हैं। जिनके लिए अपने को व्यक्त करना महत्वपूर्ण। किसी पुरस्कार और यश की लालसा नहीं। यह जरूर है कि एफबी पर उनकी सभी रचनाएँ बहुत अच्छी नहीं होती हैं। पर कुछ जरूर अच्छी होती हैं। सभी रचनाएँ किसी की भी अच्छी नहीं होती हैं। बड़े से बड़े कवियों की तमाम कविताएँ औसत होती हैं। कुछ ही होती हैं, जो अविस्मरणीय होती हैं। कुछ रचनाएँ औसत होती हैं, कुछ अच्छी, कुछ बहुत अच्छी और कुछ अविस्मरणीय होती हैं। कविता हो या कहानी, अनगढ़ता में भी कुछ अच्छा दिख जाता है। बहुत गढ़ी हुई कविताएँ या रचनाएँ टकसाली हो सकती हैं। नयापन ही किसी कृति को देखने के लिए सबसे पहले ध्यान खींचता है। यह नयापन, विषय का भी हो सकता है, चरित्र का भी, शिल्प और कथाभाषा का भी। मेरी एक कविता है-‘सफेददाग वाली लड़की’। यह अच्छी कविता नहीं है, साधारण कविता है पर इससे पहले मैंने कविता में किसी सफेददाग वाली लड.की को नहीं देखा था -

सफेददाग वाली लड़की

कोई 
आया नहीं
देखने कि कैसी हो
कहाँ हो मिट्ठू
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का
है उसे इन्तजार
कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-किस का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर
सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में
सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे सो गये उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सारी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जागते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।
   इसलिए हमेशा बहुत अच्छी-अच्छी कविताओं के चक्कर में ही नहीं रहना चाहिए। जहाँ कुछ दिख जाय, उसे कविता में रचो। मेरे लिए कविता पुनर्जीवन है, चाहें तो पुनर्जन्म कह लें, जिसमें पहले के जीवन में हुई टूट-फूट को ठीक करने की कोशिश करता हूँ। चाहता हूँ कि  मेरी बहनें, चाहे राजधानी से बाहर रहती हों या राजधानी में, साहित्य की राजधानी की हवा से महफूज रहें। देश की धड़कन बनें। जहाँ भी रहें, अपनी नौकरी या दूसरी वजहों से, अपने ह्नदय को धरती का विस्तार दें। जरूरत इस बात की है कि लेखिकाएँ सिर्फ रचना तक ही अपने को सीमित न रखें, आलोचना और संपादन में भी दिखें और ताकत के साथ दिखें।
(यह लेख ‘फर्गुदिया’ ब्लॉग पर भी है।)



6 टिप्‍पणियां:

  1. ""स्त्री-लेखन ही नहीं अपितु समग्र रचना एवं आलोचना कर्म की जिन चुनौतियों को बहुधा अनदेखा कर दिया जाता है, उन्हें बेबाक ढंग से उभारा और रेखांकित किया गया है. स्त्री-रचनाकारों के लिए भी यहां आत्म-परीक्षण के लिए काफ़ी कुछ है. प्रशंसा तो की ही जानी चाहिए इस आलेख की, इस पर मनन भी किया जाना चाहिए. बधाई, गणेशजी को.""

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  2. ikkisvin sadi mein to yash ke shav ko apne kandhon se utar fekon bhayee (bahnon)

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  3. प्रश्न करो
    प्रश्नों के खड़े कर दो पहाड
    मेरे पास तुम्हारे सभी प्रश्नों का
    एक ही उत्तर है ---प्यार !

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  4. सर, इस लेख पर पहले भी मैंने लिखा था, ऐसा कम ही होता है स्त्री लेखन पर फेसबुक पर ऐसे लेख पढने को मिले, हालाँकि मैं कहना चाहूंगी कि हमारे संघर्षों का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ है, अलबत्ता तो लेखों में खानापूर्ति के लिए ही स्त्री लेखन पर कलम चलाई जाती है, हममें से हर कलम चलाने वाली स्त्री अपने व्यक्तिगत जीवन या साहित्य जगत में उतनी ही संघर्षशील रहती है जितनी कि एक आम स्त्री....आर्थिक स्वतंत्रता हासिल कर लेने वाली महिलायें भी इससे बची नहीं हैं....कुल मिलाकर वही ढाक के तीन पात....हमारे हुनर पर दूसरे नामों के ठप्पे लगाये जाते हैं, जिनके गिर्द कोई नाम नहीं मिलता उन्हें तो वैसे ही खारिज कर दिया जाता है....सब प्रलोभनों से बचते हुए लगातार लिखते हुए अगर हमारे संघर्षों की छाया कलम पर पड़ती है (जो स्वाभाविक भी है) तो उसे "हाय-हत्या-हुंकार" की कवितायेँ कहा जाता है....दलित विमर्श को तो फिर भी जगह मिलती है पर स्त्री विमर्श को अभी लम्बा रास्ता तय करना है .....ऐसे में आपका लेख कई सुझावों के साथ सामने आया है....मुझे ख़ुशी है आपने उन परिस्थितियों पर भी ध्यान खींचा है जहाँ स्त्री गलत रास्ता चुनकर पीछे आ रही अपनी ही बहनों के लिए न केवल गलत नजीर खड़ी करती है बल्कि उसके रास्ते को दुर्गम भी बना देती है....संघर्ष, लेखन और यश का सही क्रम में होना ही उचित और स्वागतयोग्य है .....सादर.....आभार

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  5. प्रभावशाली लेख है। बधाई।
    यह आप अच्छी बात कह रहे हैं कि लेखिकाओं को साहित्य के सभी क्षेत्रों में स्थान बनाना चाहिए।

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