मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

बुखार में अखबार

-गणेश पाण्डेय 
   
परसों रात से बुखार है, पढ़ना-पढ़ाना फिलहाल परसों तक बंद। उसके बाद चंगा हो जाने की उम्मीद है। कंप्यूटर भी छू नहीं रहा था, लेकिन कल बहुत दिनों बाद, बल्कि सच तो यह कि कई सालों बाद मेरा हॉकर आखिर जनसत्ता ले ही आया और कुछ कहने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। जनसत्ता की तारीफ में कुछ नहीं कहना है, मेरी तारीफ से न तो वह और अच्छा हो जाएगा और बुराई करने से न तो और खराब हो जाएगा। जनसत्ता के बहाने शुद्ध पूँजीसत्ता वाले ( खुल्लमखुल्ला व्यावसायिक ) अखबारों के बारे में कुछ कहना है। हालांकि जनसत्ता भी पूँजी से जुड़ा अखबार है। बात जनसत्ता से ही करूँगा कि एक लंबे समय के बाद उसे को देखकर आँखों को सुख मिला। कोई कह सकता है कि अखबार भी क्या ऐसे होते हैं कि जिन्हें देखकर आँखों को सुख मिले ? जरूर ओम थानवी से गणेश पाण्डेय के रिश्ते अच्छे होंगे, इसलिए जनसत्ता की तारीफ कर रहे हैं। मित्रो, ओम जी से मेरा  कोई  रिश्ता नहीं है। मैं जनसत्ता की तारीफ कतई नहीं कर रहा हूँ, मैं तो उन अखबारों की बुराई करना चाहता हूँ, जिन्हें देखते ही आँखों में मिर्ची लगती है। जैसे तोते को मिर्ची पसंद है, आज के पाठकों को भी आँखों में मिर्ची की तरह लगने वाले अखबार क्यों बेहद पसंद हैं ? कहीं सारे के सारे हिंदी अखबारों के पाठक तोता तो नहीं हो गये हैं ?
              मित्रो, जैसे मुहावरा है कि पेट के रास्ते दिल तक पहुँचा जाता है, उसी तरह आँखों के रास्ते भी दिमाग तक पहुँचा जाता है। कोई अखबार, समाचार, विचार और विमर्श का जो परिसर पाठक के लिए उपलब्ध कराता है या अपनी प्रस्तुति उस पर केंद्रित करता है, तो उसे देखकर अच्छा लगता है। वह कितने रंगों में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह कितना सलीके का है, इससे फर्क पड़ता है। दिनमान तो श्वेत-श्याम था, उसे उस समय के पाठक कितना महत्व देते थे ? राजनीति के बारे में तनिक भी जागरूक रहने वाले पाठक के लिए बेहद जरूरी पत्रिका थी, आज वैसी एक भी पत्रिका नहीं है। उस दौर के शोध-छात्रों और सिविल सेवा के प्रतियोगियों के लिए अनिवार्य पत्रिका थी, यह उसका अतिरिक्त गुण था। आज रंग तो हजार हैं, पर वह बात नहीं, जो उसमें थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग का महत्व भी बहुत अधिक था। अखबारों में भी तब के अखबार इस तरह नहीं हुए थे। इधर व्यावसायिकता ने विचार और संवेदना को अखबारों से दूर किया है। उत्तेजना तो मिल सकती है, संयम और विवेक संपादकों में सिरे से गायब है। जनसत्ता शुरू से ही एक खास तरह के पाठकों के बीच लोकप्रिय रहा है। जाहिर है कि ये पाठक, सामान्य पाठकों की तुलना में कुछ अधिक विचारसम्पन्न रहे हैं। तब अखबार हर कोई नहीं खरीदता था, आज मोबाइल की तरह चाय की गुमटी से लेकर हर कोई खरीद सकता हैं। जिसे देखो वही अखबार पढ़ता है, पर पढ़ता क्या है या पढ़ना क्या चाहता है ? मुहल्ले के नेताजी की फेटो देखना चाहता है या मुहल्ले के कविजी की या आलोचक जी की फोटो देखना चाहता है ? क्या वह जानता है कि जिसकी तारीफ आज के अखबार में पत्रकार ने छापी है, उसमें कोई नुक्स नहीं है ? क्या सचमुच उस व्यक्ति ने अपने क्षेत्र में ढ़ंग का कोई काम भी किया है या खबर लिखने और फोटो छापने वाले ने बेईमानी या बेवकूफी की है ? क्या अखबारों का पाठक कभी सोचता है कि जिनकी फोटो अक्सर पत्रकार छापता है या जिनके बारे में निरंतर खबरें छापता है , उनकी कोई कमी कभी क्यों नहीं छापता है ? अखबारों का प्रसार इधर खूब बढ़ा है, क्या इसलिए कि लोग बिना यह जाने अखबार पढ़ते हैं कि वे इस अखबार को क्यों पढ़ते हैं ?
              मैंने मिर्ची की तरह आँख में लगने वाले अखबारों की बात है। बताता हूँ कि क्या है जो आँखों को चुभता है ? आज के युवा पाठकों ने पहले के अखबारों को नहीं देखा है, पहले की पत्रिकाओं को नहीं देखा है, लेकिन वे आज जनसत्ता को कभी देखें तो क्या यह फर्क नहीं कर पायेंगे कि उनके शहर का अखबार सब कितना खराब छापता है ? शायद वे फर्क नहीं कर पायेंगे, उनके लिए मुश्किल होगा। हाँ, विचारसम्पन्न युवा पाठक जरूर फर्क कर सकते हैं। मेरे शहर के कई अखबार मेरी आँख में मिर्ची की तरह आँख में लगते हैं। ये अखबार ऐसे हैं जैसे कोई ऐसी दुकान हों जिसमें हवाई जहाज से लेकर सुई तक सब रखा हो या केंचुए से लेकर डायनासोर तक सब रखा हो या सब बौने ही बौने लोग हों या सब अगड़मबाइस हो। जैसे ये अखबार न हों, किराने की दुकान का पर्चा हों। चाहें तो ये सब मेरी इस बात से नाराज होकर मेरा नाम तक अपने अखबार में .....क्षमा करें, बस दो मिनट, श्रीमती जी का आदेश है कि कल से कुछ खाया नहीं है तो पहले जरा-सा गरमागरम खिचड़ी हो जाए....हाँ तो मैं कह रहा था कि चाहे कोई मेरा नाम अपने अखबार में न छापे, पर क्या इस डर से यह कहना बंद कर दूँगा कि तुम्हारा अखबार बुखार की खिचड़ी नहीं है जो फायदा करे। यह तो पाठक की रुचियों को ही नहीं, उनके विचार और विवेक तंत्र को ध्वस्त करने की चीज है। हाँ- हाँ, अफीम भी कह सकते हैं, स्थानीयता का अफीम। हाँ, वही मुहल्लेपन का अफीम। आँचलिकता बुरी चीज नहीं है, पर प्रतिमान वही बनेंगे जो आपके अँचल का श्रेष्ठ होगा, आपका अखबार उसे ही बड़ा या श्रेष्ठ बताए जो सचमुच अपने लेखन या कार्यों से बड़ा या श्रेष्ठ हो, आप हरगिज-हरगिज गधे को घोड़ा या चूहे को शेर की तरह नहीं छाप सकते, आप ऐसा करते हैं तो आप भी उतने ही बेईमान हैं, जितने राजनीति के लोग। जिन अखबारों को देखता हूँ, सब बस दो मिनट में देखकर फेंक दिये जाते हैं। बस अपने दफ्तर से जुड़ी खबरें और कुछ जरूरी सूचनाएँ। क्या एक अखबार का परिसर सिर्फ यही है ? इधर कई राष्ट्रीय अखबारों ने अपने चरित्र को क्षेत्रीय बना लिया है। अंचल विशेष की छोटी से छोटी चीजों को प्रमुखता से छापना। न छापने लायक चीजों को भी प्रमुखता से छापना।
          जिस अखबार के संपादक में इतना विवेक न हो कि वह प्रति सप्ताह संपादकीय पेज पर अपनी फोटो पैंट की मियानी तक का छापता हो, ऐसे संपादक से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। ऐसे संपादकों के स्थानीय संपादक कैसे-कैसे होंगे ? ऐसे ही संपादकों का समय है यह। ऐसे संपादक क्या छापेंगे ? सच तो यह कि इन्हीं वजहों से अब अखबार का एक-एक अक्षर चाटने वाले पाठक नहीं मिलेंगे, वे पढ़ें या संपादक जी की फोटो पैंट की मियानी तक फोटो देखें। आज की तारीख में अखबार में छपी रंगीन फोटो चाटने वाले लोग मिलेंगे। जब अखबारों में साहित्य और विचार का ढ़ंग का परिसर नहीं है, तो पढ़े ंतो क्या ? खबरें भी पहले चैनल पहुँचा देते हैं, उनका भी कोई खास आकर्षण नहीं। आखिर क्या बात है कि देरे से आने पर भी जनसत्ता आज अच्छा लगा ? इसका अर्थ यह नहीं कि आज का जनसत्ता अच्छा है या बहुत अच्छा है, मैं ऐसा कुछ भी नहीं कहूँगा, मैं बस इतना कह सकता हूँ कि रेड़ का पेड़ है। जहाँ कोई पेड़ नहीं होता है, वहाँ रेड़ का पेड़ ही बड़ा होता है। जनसत्ता में साहित्य जब मंगलेश जी देखते थे, तब भी उसकी सीमा थी। सब अच्छी कविताएँ नहीं होती थीं। आज भी जनसत्ता में काफी विमर्श ऐसा है, जो नखदंत विहीन होता है अर्थात जिनमें कोई जोखिम नहीं होता। राजनीति का सच फटकार कर कहना जैसे अखबार की नैतिकता है, उसी तरह अपने समय के साहित्य का सच कहना भी अखबार की नैतिकता है। संसद में जाने वाले दागी लोगों की ही नहीं, साहित्य और कला की अकादमियों की भी आलोचना करना एक अच्छे अखबार के लिए उतना ही जरूरी है। वह अखबार जो अपने साहित्य के परिसर के लिए जाना जाता हो, उसके लिए तो और भी जरूरी है। कहना और भी है, पर बुखार में अधिक बड़बड़ाना ठीक नहीं। अंत में यह कि मेरा बुखार तो दो दिन में ठीक हो जाएगा, पर हिन्दी के इन अखबारों और पाठकों का बुखार कब जाएगा ?














   


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