मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कविता की पृथ्वी पर लौट आओ साथियो...

                  -गणेश पाण्डेय
दोस्तो, कुछ लोग नेट की दुनिया को आभासी दुनिया कहते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि फिर कागज पर जो दुनिया होती है, वह क्या है ? वह आभासी नहीं है। सचमुच की है। सचमुच की है तो कागज फट नहीं जाएगा ? कागज लोहे का है क्या ? कितना मजबूत लोहा है कि पृथ्वी का भार संभाल लेगा ? इसे छोड़िए, ये साहित्य भी क्या सचमुच की दुनिया है ? ठोस भी, तरल भी, जिसे इंद्रियों से अनुभव कर सकें ? फिर नेट की दुनिया ही आभासी क्यों बाकी दुनिया आभासी नहीं है क्या ? उसे छूकर और देखकर नहीं जान सकते हैं क्या ? जीवन नेट पर नहीं है क्या ? कोई समाज नेट पर नहीं है क्या ? विचार और समय की आवाजाही नेट की दुनिया में नहीं है क्या ? मेरे डिपार्टमेंट के कुछ नेटविरोधी दाएँ बाजू के नन्हे विचारक विचारक इतना तो मार्क्सवाद को तुच्छ नहीं समझते हैं, जितना इस कथित आभासी दुनिया को। मार्क्सवादी आचार्य भी इसे कौतुक की दृष्टि से देखते हैं, वे खुद भी जो एक कौतुक ठहरे। बहरहाल, कहना यह है कि यह दुनिया आभासी है या विश्वासघाती, इसके चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। सिर्फ अपनी बात कहना चाहता हूँ। जो कहना है, उसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं। मसलन, आज ही खरा कहने का दावा करने वाले खरे जी का एक मेल आया है। दूसरे मित्रों के पास भी गया होगा। उसमें एक जंगल में बैठ कर कविता की बात करने पर सख्त सजा दी गयी है-कुछ उम्रकैद जैसी। गनीमत यह कि उसी जंगल में ही उम्र कैद नहीं दे दी गयी है। मेरा ख्याल है कि इसके बाद अब किसी और सजा की जरूरत नहींे है। हालाकि मुझे भी मेरे शहर के कुछ लोग मेरी आक्रामता की वजह से पसंद नहीं करते हैं। यह अलग बात है कि उनके लिए जो भाषा और तेवर शाकाहारी नहीं है अर्थात भूसे की तरह बेजान और प्रभावहीन नहीं है, सब खराब है। उनके लिए खराब का मतलब आग्रहपूर्ण होना या बेइमानी करना नहीं है। लेकिन मैं जिन अर्थों में मेल से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ,उसके पीछे वजह सिर्फ यह है कि वह लेख की शक्ल में तार्किक कम और खबर की शक्ल में चटपटा अधिक है। उस लेख में क्या है, यह बताना यहाँ प्रयोजन नहीं है। मैं क्या सोच रहा हूँ, इससे मुझे सरोकर है।
  नेट पर हाल ही में उस कविता कांड पर काफी कुछ कहा गया है। पक्ष और विपक्ष आप से आप फाट पड़े। सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ। एक आयोजन जंगल में हुआ, कुछ लोग वहाँ गये और कुछ लोग वहाँ इसलिए नहीं गये कि उन्हें वहाँ बुलाया नहीं गया। लीलाधर मंडलोई  मित्रों के मित्र हैं। इलाहाबाद से कोई बुलाया गया और गोरखपुर से कोई नहीं बुलाया गया ? पर हे मित्रो शपथपूर्वक कहता हूँ कि मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगा। क्योंकि मैं जानता था कि वहाँ से कविता की कोई गंगोत्री नहीं फूट रही है कि पहुँच जाऊँ या न पहुँच पाने का कोई अफसोस करूँ। बहुत से अच्छी कविता करने वाले मित्र वहाँ नहीं शामिल थे। जो थे सब अच्छे ही थे, ऐसा भी नहीं। यह अलग बात है कि विजयकुमार और मंडलोई और दूसरे लोग वहाँ थे। इसलिए यह भी मानने में दिक्कत है कि सब वहाँ खराब ही हुआ होगा। कविता पर ढ़ंग से बात नहीं की गया होगी, यह स्वीकार करना मुश्किल है। पर मुश्किल कुछ और है। मुश्किल यह कि वहाँ हुआ क्या-क्या और बाहर आया क्या-क्या ? कई कवयित्रियों ने वहाँ के फोटो थोक में नेट पर आभासी दुनिया में जारी किए तो लगा कि बस वहाँ सिर्फ और सिर्फ यही हुआ। यह तो किसी ने ढं़ग से ब्योरेवार बताया हीनहीं कि वहाँ कतिवा पर यह-यह बात हुई या इन-इन अच्छी कविताओं का पाठ हुआ। बहस के नतीजे क्या रहे ? कोई एजेंडा तय हुआ या नहीं ?
  जहाँ तक आभासी दुनिया को पढ़ना सीख पाया हूँ, हुआ यह कि इन फोटो-फाटो से संदेश दूसरा गया और (शायद) लोगों ने समझा कि वहाँ सब अंभीर हुआ। अरे भाई अगंभीर तो दिल्ली में भी किया जा सकता था। इतने बड़े समूह में इतनी दूर जाकर अगंभीर करने की क्या जरूरत थी ? यह कोई पिकनिक था तो पिकनिक पर तो कोई भी कहीं जाए, क्या फर्क पड़ता है। यह फर्क पड़ा क्यों ? एक दूसरी विचारधारा का आदमी जाकर कुछ खराब किया तो अच्छी विचारधारा वालों ने वहाँ क्या अच्छा किया, यह बताना नहीं चाहिए था ? बताने में यह कमी कैसे हुई ? आभासी दुनिया में जैसे अंतरिक्ष में कोई भिड़ंत हो, एक भिड़ंत हो गयी। कहंें कि भिडं़त भी अकेली नहीं, टक्कर पर टक्कर हाल ही में पृथ्वी के नीचे प्रयोगशाला में हुई महाटक्कर जैसी। एक दिन, दो दिन, कई दिन। पक्ष और विपक्ष। जैसे होड़ लग गयी हो विचार व्यक्त करने में। मेरे जैसे आदमी की मुश्किल यह कि कोई उम्र में बीस साल छोटा तो बारह-पन्द्रह साल छोटा। करूँ तो क्या करूँ ? कविता को लेकर आग लगी हो तो दूर बैठ कर तमाशा कैसे देखूँ ? हालाकि वहाँ जाने वाले कुछ मित्र भी चुपचाप तमाशा देख रहे थे। इसे उनकी कविता के प्रति प्रतिबद्धता और साहस की कमी कह सकते हैं। पर यह कहना यहाँ प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन बहुत सीधा-सा है। वाद-विवाद का तूफान थम गया है। छोटे-बड़े महारथी वापस लौट चुके हैं। पर प्रश्न...सामने है।
     बहस के बीच एक जगह मुझे न चाहते हुए भी कहना पड़ा कि ‘‘ मैं कुछ कहना तो नहीं चाह रहा था। कहता भी तो शायद आगे किसी लेख में। पर इस विवाद में मेरे कई मित्र शामिल हैं। उनमें से कुछ के बीच पहली बार साहस की झलक देखने का अवसर मिला है तो कुछ मित्र अपने पक्ष को लेकर काफी नाराज दिख रहे हैं। ऐसे में मेरी कोशिश है कि इस आग पर थोड़ा-सी राख या बालू या पानी पड़ जाय तो बेहतर। चाहता यही हूँ कि सब कविता की प्रतिष्ठा को सबसे ऊपर समझें। अपने दुख को क्रम से कहना चाहूँगा।
1-युवा पीढ़ी ऐसे आयोजनों में यदि अपनी सार्थकता का अनुभव करती है, तो मुझे दुख है।
2-युवा पीढ़ी कविता का भविष्य कविता से इतर गतिविधियों में ढ़ूँढ़ती है, तो मुझे दुख है।
3-युवा पीढ़ी अपने समय के महाजनों के पथ पर चल कर अपनी मुक्ति चाहती है तो मुझे दुख है। 4-युवा पीढ़ी कविकर्म के फल या कविता के प्रयोजन के रूप में यश और चर्चा को स्वीकार करती है, तो मुझे दुख है।
5-युवा पीढ़ी कविता लिख देने के बाद अलग से प्रमोशन के लिए सक्रिय होती है, तो मुझे दुख है। ( यहाँ बात साफ कर दूँ कि कविता लिखने के बाद कवि सम्मेलन में पढ़ने का उपक्रम कविता को राजाओं के दरबार से निकाल कर जनता के बीच ले जाने के लिए हुआ था।)
6-युवा पीढ़ी अपनी कविता में अपनी बात कह नहीं पा रही है, तो मुझे दुख है।
7-युवा पीढ़ी कविता के लिए अपने भीतर गहरे में प्रेम का जज्बा नहीं पैदा नहीं कर पा रही है तो मुझे दुख है।
8-युवा पीढ़ी कविकर्म की विफलता से डर रही है तो मुझे दुख है।
9-युवा पीढ़ी अपने को कविता का कलगीदार मुर्गा समझ रही है कि उसके बाँग देने से ही कविता का भला होगा, तो मुझे दुख है।
10-युवा पीढ़ी कम महत्व की रचना से कविता का विश्वविजय करना चाहती है ,तो मुझे दुख है। 11-युवा पीढ़ी सिर्फ और सिर्फ अपनी बात को ही सच मान रही है, तो मुझे दुख है।
इन छोटे-छोटे दुखों के बाद कुछ बड़े दुख भी हैं-
(1)‘संगमन’ के कार्यक्रम को युवा पीढ़ी कोई बहुत जरूरी उपक्रम समझती है तो मुझे दुख है। एक बार कुशीनगर में संगमन का कार्यक्रम किया गया था, जिसमें मैं इसलिए नहीं जा पाया कि उस कार्यक्रम में ऐसे लोगों को महत्वपूर्ण बनाया गया था, जो लेखक ही नहीं थे। कुछ तो औसत से भी कम थे। मेरी प्रियंवद से फोन पर बात भी हुई थी। उन्होंने आश्वस्त भी किया था कि वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो स्तरीय न हो। लेकिन हुआ वही। आशय यह कि संगमन में न जाने के बाद भी मैं कथारचना करना भूल नहीं गया।
(2)- कथाक्रम के आयोजन में गोरखपुर से जो कथाकार और आलोचक जाते रहे, उनसे बहुत खराब उपन्यास या आलोचना नहीं लिखा है।
(3)-कोई बीस-पच्चीस साल से हंस नहीं देखता हूँ, फिर भी कथालेखन भूल नहीं गया।
बड़ा दुखः
1-यह कि युवा पीढ़ी अपने ऊपर भरोसा कब करेगी ? कब तक कविता या साहित्य के शार्टकट पर अमल करेगी ?
2-यह कि अपने समकालीन मित्रों के बीच अहंकार और ईर्ष्या-द्वेष की भावना से काम करेगी ?
3-यह कि युवा पीढ़ी बच्चों जैसी अगलीसीट पर बैठने की जिद कब तक करेगी। ( मैंने तो दिल्ली जाने वाली सारी सुपरफास्ट गाड़ियों को छोड़कर साहित्य की सबसे धीमी गति से चलने वाली माल गाड़ी पर बैठ कर सफर करना मुनासिब समझा है, भाई)।
यह सब कहने का आशय अपने को महान बनाने की बेवकूफी करना नहीं है। बस यह चाहता हूँ कि अरे मेरे युवा बड़े-बुजुर्ग, आप लोग अब आपस में यह सब बंद करो। साथ रहकर कविता का काम नहीं कर सकते तो कोई बात नहींे भाई। अलग-अलग रह कर कविता का काम करो। इसमे बुरा क्या है ? पर यह याद रखो कि ईमानदारी से अपना काम करो। यह पहले तय कर लो युवा दोस्तो कि तुम कविता का भला चाहते हो कि सिर्फ अपना भला ? कविता की प्रतिष्ठा समाज में चाहते हो कि कविता के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा ? यह सब मैंने शास्त्रार्थ के लिए नहीं कहा है। जिसे मेरी बात अच्छी न लगे, अपना गुस्सा थूक दे और मुझे कविता का बुरा आदमी समझ कर क्षमा कर दे।’’
जहिर है कि मेरी इस टिप्पणी से मेरे कुछ युवा मित्र दुखी भी हुए होंगे। पर उनका बड़प्पन यह कि मेरी इस टिप्पणी पर कुछ बुरा-भला नहीं कहा। सच तो यह कि अब मुझे अनुभव हो रहा है कि इस आभासी दुनिया में हर समय विचार वमन खतरे से खाली नहीं है। खतरे से मैं डरता नही पर खतरे में लेखक समाज पड़ जाय, इससे डरता हूँ। हमारे युवा मित्र आपस में भिड़ंत करके लहूलुहान हो जाएँ। एक-दूसरे को देखना न पसंद करें। एक-दूसरे की जड़ में मट्ठा डालने लगें, तो जाहिर है कि ऐसे में मेरा मन बहुत दुखी होगा। अरे भाई बड़े-बुजुर्ग तो यह सब कर ही रहे हैं, गुरु तक शिष्यों का हत्याकांड करने में लगे हुए हैं-
पहला बाण
जो मारा मुख पर
आँख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।
(गुरु सीरीज)
हमारे छोटे मित्र भी आपस में यही सब करने लगेंगे तो फिर कविता देवी का क्या होगा ? अरे भाई स्वाभिमानी लोग अपने आकाश से तनिक नीचे आओ कविता की धरती पर। अपने उन साथियों को देखो जिनके गले में तुम्हारी बाहें अब तक झूल रही हैं। वे तुमसे क्रूा पूछ रही हैं ? कविता का सम्मान क्यों तुम्हारे अपने सम्मान से कम है ? मेरे युवा मित्र न नाराज हों तो जाना चाहूँगा कि पृथ्वी का बुरे से बुरा आदमी भी क्या कविता की अच्छी किताब को छूने का अधिकारी नहीं है ? क्या आप कर्फ्यू लगा देंगे कि मुक्तिबोध की कविता को कोई दक्षिणपंथी छुएँ नहीं या कक्षाओं में पढ़ाएँ नहीं ? यह तो अधिक हो जाएगा भाई। ज्यादती है। यह ठीक है कि आप अपनी प्रतिबद्धता के नाते ऐसे लोगों के साथ कविता के मंच पर नहीं बैठना चाहते हैं। हम आपकी इस भावना का सम्मान करते हैं। लेकिन इसका अर्थ क्या यह है कि फिर कोई बात ही नहीं। कविता का काम ही बंद कर दिया जाय। मित्र लोग शत्रु हो जाएँ ? अरे भाई टकराने के लिए अपने मित्र नहीं होते। टकराने के लिए हिंदी के दुश्मन क्या कम हैं ? मित्रों की आलोचना करें, ऐसे टकराएँ नहीं कि उनका रामनाम सत्य हो जाए। कहीं कुछ गलत दिखे तो उन्हें खूब डाँटें। पर प्यार से। यह मैं इस पीड़ा से दो-चार होते हुए कह रहा हूँ कि मेरा एक प्यारा दोस्त इधर यहाँ मुझसे नाराज है। अरे भाई छूटने वाले दाग के लिए शर्ट फाड़ देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? कम से कम कविता के अँगरखे को नुकसान न पहुँचाओ कविता के युवा साथियो! मेरी प्रार्थना सुन लो! लौट आओ....

1 टिप्पणी:

  1. इस ब्लॉग पर दिए गए कई लेख ई पत्रिका ‘समालोचन’ और ‘सृजनगाथा’ में पहले से हैं। प्रतिक्रियाएँ वहाँ उपलब्ध हैं।

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