शुक्रवार, 18 मई 2012

आलोचना को ईमान, साहस और धीरज की जरूरत है

 
                             -गणेश पाण्डेय
        आलोचना का प्राण है रचना। जैसे कोई प्राण के बिना जीवित नहीं रह सकता, ठीक उसी तरह रचना के बिना आलोचना का जीवन नहीं है। खबरदार, मेरा यह आशय कतई नहीं है कि आलोचना रचना से छोटी है या दूसरे दर्जे की चीज है। ऐसा नहीं है कि आलोचना के बिना रचना के जीवन की संपूर्णता की कल्पना की जा सकती है। मैथ्यू आनार्ल्ड के इस टुकड़ से बात और साफ हो जायेगी कि कविता जीवन की आलोचना है। आलोचना है क्या ? एक खास दृष्टि से चीजों को भेद कर देखना। यही काम एक रचनाकार भी करता है। एक कवि रोज अपने घर के सामने यूकिलिप्टस के लंबे-लंबे वृक्षों की कतार देखता है और रोज इन्हें सिर्फ एक पेड़ समझता है, एक दिन जोर की बारिश होती है और हवाएँ तेज चलती हैं, यूकिलिप्टस के पेड़ ऐसे झूमते हैं जैसे आसमान से बरसी शराब पीकर बेसुध हो गये हों और झूम रहे हों। इतना ही नहीं अपने बरामदे में दरवाजे से टिक कर खड़ा कवि एक खास तरह से जरा-सा झुक कर इस दृश्य को गौर से देखता है और सहसा उसे लगता है कि अरे ! यह गोराचिट्टा यूकिलिप्टस तो पूरा अंग्रेज है। कवि कविता लिखता है- छोड़ो भारत। कहना यह चाहता हूँ कि जैसे एक कवि रोज के किसी दृश्य को एक दिन कविता के विशेष दृश्य के रूप में देख लेता है, उसी तरह एक आलोचक भी कई बार किसी साधारण-सी रचना को असाधारण ढ़ंग से देख सकता है। बशर्ते उसमें भी कवि की तरह ईमानदारी और साहस और उतना ही धीरज हो। अन्यथा वह आलोचना को नित्य या क्षणप्रतिक्षण का कार्यक्रम बना देने के लिए स्वतंत्र है।
 तीन बातों को लेकर आगे बढ़ता हूँ- ईमानदारी, साहस और धीरज। जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ, आलोचना में ठहराव या कि दुहराव की मुख्य वजहें यही तीन हैं। अब इस ईमानदारी की कमी की वजह के रूप में दो बातें देखता हूँ। एक तो लेखक का कविमुखी हो जाना या रचनाकार के ओहदे से बिल्कुल चिपक जाना। दूसरी बात है, स्वार्थ ओर आने वाले समय की जरूरतों की वजह से रचना का सच न कह पाना। एक रथ की कामना में महारथियों से डरते रहना। रचना और अपने समय के साहित्य का सच कहने का रत्तीभर साहस का न होना। तीसरी बात है, रेल के तत्काल टिकट की तरह अपनी आलोचना को जो आलोचना नहीं बल्कि रिव्यू है, उसके तत्काल किसी पत्रिका में छप जाने का लोभ संवरण न कर पाना ओर इसलिए बड़े अगंभीर ढ़ंग से जिसे कुछ लोग चलताऊ ढ़ंग से भी कहते हैं, लिख मारना। उसमें भी ईमान की जगह संबंधों की मजबूती पर बल देना, आलोचना को कमजोर तो करता ही है, आलोचक को भी कमजोर आलोचक बनाता है। कई मित्रों ने सिर्फ पुस्तक समीक्षाएँ ही लिखी हैं और उनको एकत्रित कर आलोचना की किताब बनाते रहे हैं। एक भी अपने समय की रचनाशीलता का शास्त्रीय विवेचन वाला लेख नहीं मिलेगा। रचना के तत्वों को सामने लाकर अपने समय की रचनाशीलता की पहचान तय करने वाला लेख। मेरा आशय पुराने काव्यशास्त्र के आचार्यों की तरह खण्डन-मण्डन में लगना नहीं है।
   हिंदी आलोचना की परंपरा को देखने से बहुत-सी बातें साफ होती हैं। यह अंभीरता या अधैर्य की समस्या के लिए हिंदी की आलोचना परंपरा में गंभीरता और बड़े धैर्य के साथ लिखी गयी आलोचना को खासतौर से रेखांकित किया जाना चाहिए। रामचंद्र शुक्ल यहीं बस्ती के थे ( जो पहले मेरा भी जिला हुआ करता था, अब नया बन गया है ) जानते थे कि सब धान बाइस पसेरी का नहीं होता है। इसलिए उन्होंने चुनाव किया और जो मूल्यवान थे उन पर बड़ी गंभीरता से लिखा जो आज भी व्यावहारिक समीक्षा का आदर्श है। जायसी होें चाहे तुलसी चाहे सूर। लिखने को तो इस दौर के भी कुछ आलोचकों ने अपने तिकड़म के हिसाब से चुन कर किसी एक कवि पर बहुत सारा और बहुत साधारण लिखा है, दूसरों पर भी सब धान बाइस पसेरी के हिसाब से ही लिखा है। यों कुछ बहुत बड़े कहे जाने वाले आज के एक आलोचक ने भी लिख कर नही ंतो बोल कर वही काम किया है। अब पूर्वाचल से जुड़े नामीगिरामी आलोचक ही जब ऐसा करने लगेंगे तो फिर दूसरे जगहों के बारे में क्या कहा जाय। बोलना कभी गंभीर आलोचना कर्म मान लिया जायेगा, शायद यह बड़े शुक्ल जी को पता नहीं रहा होगा। बड़े शुक्ल जी पता नहीं आज के आलोचकों की तरह अपनी फौज बना कर रखते और चलते थे या नहीं। सुना है कि मौजूदा समय में कई ‘बापू‘ हैं जो प्रवचन करते हैं और जहाज से अपनी फौज साथ लेकर चलते हैं। शायद ऐसे ही आज के कुछ बहुत बड़े आलोचक चाहे पूरा जहाज बुक करके अपनी फौज लेकर साथ चलते हों या न चलते हों, पर उन्होंने भी अपने पीछे युवा आलोचकों की एक जमात खड़ी की है। यह इसलिए कह रहा हूँ कि आलोचक वरिष्ठ हो चाहे युवा जैसे ही वह आलोचना के स्वाधीन आसन से गिरेगा, उसका ईमान, उसका स्वाभिमान और साहस सब चूरचूर हो जायेगा। जो आलोचक भीतर से खोखला होगा, वह भरी हुई आलोचना कर ही नहीं सकता है। फिर मैं कहना चाहता हूँ कि जीवन एक रचनाकार की रचना को ही प्रभावित नहीं करता है बल्कि एक आलोचक का जीवन भी उसकी आलोचना को प्रभावित करता है। जैसे कोई राजनेता भ्रष्ट होकर या अनेक घोटालों में शामिल रहते हुए देश और समाज के लिए सचमुच का कोई बड़ा काम नहीं कर सकता है, वैसे ही एक आलोचक भी जीवन में घटिया होकर अच्छी आलोचना नहीं लिख सकता है। एक आलोचक के घटिया जीवन के उत्कृष्ट नमूने दिये जा सकते हैं। पर यहाँ मकसद किसी आलोचक के सम्मान पर चोट पहुँचाना नहीं है।
   सवाल यह है कि आलोचक के जीवन में जिस ईमान और धैर्य का संकट है, उसके लिए किया क्या जा सकता है ? कोई ऐसी मशीन या दवा की पुड़िया है कि आलोचक के गले में डाल दिया जाय जो उसके भीतर की आलोचना की बदहजमी को पहले शांत करे और उसके बाद उसके विवेक के भीतर पहुँचकर ऐसे असर करे जो उसे कुछ भी लिखने और पढ़ने से पहले यह देखने की शक्ति दे कि वह सोचे कि इसमें नया क्या है और नये में महत्वपूर्ण क्या है ? दूसरे अपने समय की रचनाशीलता के परिदृश्य के बीच उसकी जरूरत क्या है ? जब तक इसका उचित उत्तर न मिल जाय, एक शब्द न लिखे। क्या किसी आलोचक से इस तरह के आत्मसंयम की उम्मीद की जा सकती है ? एक सवाल और है कि आलोचना क्यों ? किसी कृति के बारे में जो आकलन है, वही सच क्यों ? सच क्या है ? रचना का सच ही क्या आलोचना का सच है ? सवाल यह कि आलोचना के सच को जानने की तनिक भी इच्छा आज के आलोचक के भीतर है ? आलोचना के अंतरंग से उसके अपने अंतरंग से कोई रिश्ता बनता है या उसे अपने समय के केवल बड़े नामीगिरामी आलोचक की आँख से आज की रचना और आलोचना दोनों को देखना है ? जब कोई फतवा जारी होगा अमुक कवि या कविता संग्रह या कविता के बारे में तभी वे उस पर कोई विचार करेंगे अन्यथा नहीं ? आखिर किसी तरह का कोई स्वाधीन आलोचनात्मक विवेक इनके भीतर है या नहीं ? जब एक चोर की हथेली का निशान भी शीशे की गिलास पर पड़ जाता है तो इनकी अपनी छाप इनकी आलोचना पर क्यों नहीं होनी चाहिए ? ये अपने समय की आलोचना के सिर्फ संगतकार बन कर क्यों रहना चाहते हैं ? मैं बात को उदाहरण से आगे बढ़ाना चाहता हूँ। यदि नामीगिरामी आलोचक कुछ कवियों को प्रमोट करे तो इन्हें क्यों नहीं देखना चाहिए कि यह उचित प्रमोशन है या सिर्फ लेनदेन का मामला ? यदि पुलिस ही चोरी करने लगेगी तो चोर को कैसे पकड़ेगी ? आलोचक ही चोरी करने लगेगा अर्थात अपने समय के बहुत कामयाब आलोचकों की नकल करने लगेगा तो वह आलोचना की दुनिया में सच की खोज कैसे करेगा ? नकल करने वाले  कवियों की पहचान कैसे करेगा ? यहाँ एक बात साफ कर दूँ कि नकल करना और बात है और प्रभावित होना और बात है और किसी कृति को चुनौती मान कर उससे आगे का काम और बात है। यहाँ तीन बातें हैं। लेकिन जब मेरा आलोचक मित्र इन तीन बातों पर ध्यान नहीं देता है तो औरों से क्या उम्मीद करूँ ? वह तो खुद ही उन्हीं-उन्हीं रास्तों पर गोल-गोल घुमावदार साढ़ियों पर चढ़ कर आलोचना के शीर्ष पर पहुँचना चाहता है। उसे भी इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कौन-कौन प्रमोटी कवि प्रगतिशील कवित्रयी की लोकधर्मी कविताओं की कैसे नकल करते हैं ? वे किसी प्रिय कविता को चुनौती मान कर आगे का काम करते हैं या नहीं ?
  उसे इस बात से कोई नहीं पड़ता कि आज कैसे कोई कवि किसी पहले के कवि की किसी कविता को चुनौती मान कर आगे की सोचता है ? उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि कैसे पहले के कवि की कोई कविता आज के किसी कवि के लिए चुनौती हो सकती है और वह पहले के कवि की काव्य मनःस्थिति और संवेदना का विकास अपने ढ़ंग से करता है। उदाहरण है। सोचता हूँ कि एक दिन अपने आलोचक मित्र के सामने इस कविता को रख दूँ -    
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
                   
                               
तुम अच्छी हो
तुम्हारी रोटी अच्छी है
तुम्हारा अचार अच्छा है
तुम्हारा प्यार अच्छा है
तुम्हारी बोली-बानी
तुम्हारा घर-संसार अच्छा है
तुम्हारी गाय अच्छी है
उसका थन अच्छा है
तुम्हारा सुग्गा अच्छा है
तुम्हारा मिट्ठू अच्छा है
ओसारे में
लालटेन जलाकर
विज्ञान पढ़ता है
यह देखकर
तुम्हें कितना अच्छा लगता है
तुम
गुड़ की चाय
अच्छा बनाती हो
बखीर और गुलगुला
सब अच्छा बनाती हो
कंडा अच्छा पाथती हो
कंडे की आग में
लिट्टी अच्छा लगाती हो
तुम्हारा हाथ अच्छा है
तुम्हारा साथ अच्छा है
कहती हैं सखियां
तुम्हारा आचार-विचार
तुम्हारी हर बात अच्छी है
यह बात कितनी अच्छी है
तुम अपने पति का
आदर करती हो
लेकिन यह बात
बिल्कुल नहीं अच्छी है
कि तुम्हारा पति
तुमसे
प्रेम नहीं करता है
तुम हो कि बस अच्छी हो
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
चुप क्यों रहती हो
क्यों नहीं कहती अपने पति से
तुम उसे
बहुत प्रेम करती हो।
   और पूछूँ कि इसे पढ़ कर किसी कविता की याद आ रही है या नहींे ? कहीं कोई गूँज सुनायी पड़ रही है या नहीं ? यह किसी कविता की नकल है या उससे आगे के काव्यानुभव और यथार्थ को पकड़ने की एक छोटी-सी कोशिश ? मैं जानता हूँ कि मेरा मित्र इस तरह की कविताओं को तब तक न देखेगा जब तक आलोचना का कोई ऊपर का अफसर उससे कहेगा नहीं। इस तरह कविताओं को देखने की जब दृष्टि या साहस ही आज के आलोचक के पास नहीं है तो हम उन आलोचकों से कैसे बड़े शुक्ल जी की तरह गंभीर आलोचना की माँग कर सकते हैं। यह उन   आलोचक के साथ ज्यादती होगी। वे कहीं और फंसे हुए हैं। उन्हें उनके हाल पर छोड़िए। उनकी स्थिति उस दूध की जाँच करने वाले इंस्पेक्टर से भी बहुत कम है जो एक मिनट में जान लेता है कि दूध में कितना पानी है और कितना दूध ? जब नीयत में खोट हो, ईमान का सौदा कर लिया जाता हो तो फिर उनसे अच्छी आलोचना की बात बेमानी है।
  अच्छी आलोचना के लिए विचार और यथार्थ को जानने और समझने के विवेक साथ बहुपठित होना, तीक्ष्ण अन्वीक्षण बुद्धि और मर्म ग्राहिणी प्रज्ञा की जरूरत पर भी पहले के आचार्यों ने काफी बल दिया है। पश्चिम के आचार्यों का भी कहा हुआ काफी कुछ है। लेकिन इन सूत्रों के बाद भी आखिर आलोचना का पूरा ढ़ाँचा आज फेल क्यों दिख रहा है ? जब पता ही था कि यह-यह रहे तो अच्छा आलोचक बना जा सकता है, तो अच्छे आलोचकों की किल्लत आखिर हुई कैसे ? कौन लोग हैं जिन्होंने फेल किया इन पुराने रास्तों को या इन पर चलने से मना किया या जानबूझ कर इनसे दूर भागे ? या कि उस पर चलने के बावजूद वह प्रभाव नहीं पैदा कर सके, जिसकी जरूरत आज सबसे ज्यादा है ? कहीं ईमान और साहस और धीरज की कमी जैसी छोटी-मोटी व्याधियों ने तो नहीं सब चौपट कर दिया ? यह सोचने की बात है कि इन मुश्किलों से कैसे छुटकारा पायें। कहते हैं कि कभी छोटे-मोटे नट-बोल्ट ढ़ीले हो जाने या रास्ते में कहीं गिर जाने से बड़ी से बड़ी गाड़ी रास्ते में खड़ी हो जाती है। एक पहिया कहीं पंक्चर हो जाने से गाड़ी रुक जाती है। दुर्घटनाएँ तो ड्राइवरों के बेसुध हो कर गाड़ी चलाने पर भी हो जाती हैं। देख लें ठीक से, खराबी कहाँ है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अब पुरानी गाड़ियों को गैराज में रख देने का वक्त आ गया है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि आलोचना में भी नई आमद के इंतजार का वक्त आ गया है ? खबर करें।

                                                                                                                       गणेश पाण्डेय



                                                                           
 






                                                                

2 टिप्‍पणियां:

  1. आलोचना केंद्रित यह पोस्ट जहां एक ओर हिन्दी आलोचना के वर्तमान परिदृश्य को रेखांकित करती है वहीं दूसरी ओर रचना, आलोचना और जीवन के अंतर्संबंध की पड़ताल करती हुई आलोचक की पात्रता के सवाल को पूरी शिद्दत से उठाती हुई आलोचक धर्म के सम्यक निर्वहन के लिए ईमान,साहस और धीरज की आवश्यकता पर बल देती है।
    हो सकता है,दो-टूक लहज़े में कही गई खरी बात कुछेक को नागवार लगे लेकिन इस पोस्ट को पढ़ कर खिसियाने या झल्लाने की जगह हमें अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है। हिन्दी साहित्य का सामान्य विद्यार्थी और पाठक होने के नाते ऐसा मेरा मानना है।
    आज की हिन्दी आलोचना के गिरते स्तर को लेकर उनका कहना है कि जगह जगह आलोचना की फैक्ट्रियां खुल गई हैं, कुटीर उद्योग का रूप ले लिया है आज की हिन्दी आलोचना ने। विचारणीय है, हिन्दी के तथाकथित आलोचकों की इन दिनों बहुतायत है, कवियों, लेखकों की भरमार है। पुस्तक समीक्षा को भी आलोचना का दर्जा दिया जाने लगा है। आलोचना के क्षेत्र में डा.रामविलास शर्मा, डॉ नामवर सिंह के बाद हिन्दी की समकालीन आलोचना में कुछ गिने चुने ही नाम हैं जो आलोचक के रूप में मान्य हैं और जिन्हें हम आदर देते हैं। ऐसा क्यों है? हिन्दी आलोचना पर विचार करते हुए ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से मन में उठता है। प्रायोजित समीक्षा/आलोचना के इस दौर में रचना और आलोचना दोनों ही सवालों के घेरे में है। वस्तुस्थिति तो यही है।
    आलोचक के लिए विस्तृत अध्ययन अन्वीक्षण दृष्टि और मर्मभेदिनी प्रज्ञा की बात कही गई है, आज के हिन्दी के कितने तथाकथित आलोचक इस मानदंड पर खरा उतरते हैं!
    आजकल तो कालेज यूनिवर्सिटी में हिंदी का अध्यापक होना ही आलोचक बन जाना है। साहित्यालोचन और कुछ भी लिखने के पहले हमारी भारतीय आचार्यों ने अध्ययन मनन और चिंतन के बाद अंत में ग्रंथन की बात कही है। हममें से अधिकांश ने लगता है इसे अनदेखा कर दिया है या फिर इस क्रमिक पद्धति को बेकार समझ लिया है। अध्ययन मनन चिंतन को दरकिनार कर सीधे सीधे सीधे ग्रंथन पर उतर आए हैं या लिखने लगे हैं।
    इस महत्वपूर्ण और उपयोगी पोस्ट के लिए आभार।
    जितेन्द्र धीर
    कोलकाता।


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