शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

नयी सदी की कविता कहो

  
         - गणेश पाण्डेय

ओ मेरे शिष्यो! किसी के भी शिष्यो! तुम्हारी पीढ़ी के लिए एक कविता लिखी है। यह कविता खास तुम्हारे पढ़ने के लिए है। तुम्हारे लिए इसलिए कि इसे ठीक से पढ़ोगे और आगे बढ़ने के लिए पढ़ोगे। पढ़कर अपने दूसरे साथियों को बताओगे। मैंने कक्षा में तुम सबको यह नहीं बताया था जो आज बताने जा रहा हूं। काफी समय बाद। अब तो तुम लोग साहित्य के प्रवक्ता हो। फिर भी लगता है कि जानने की दौड़ में आगे निकल आने के बावजूद शायद कुछ रह गया तुम्हारे जानने के लिए मेरे पास। मैं चाहता हूं मुझसे जल्द से जल्द ले लो अपना यह छूटा हुआ सामान। लो पहले इस कविता को पढ़ो फिर आगे बढ़ेंगे-

चर्चित गुरुओं की छाया से दूर

ओ मेरे शिष्यो
ऊंची कक्षाओं में
जिस भी तिथि को
तुम्हें खड़ा किया हो
साहित्य के संसार में
और किया हो
थोड़ा-सा उन्मुक्त
हो सकता है कि उस वक्त
किसी वजह से खराब रहा हो
मेरा दिमाग
और मैंने ठीक से छूकर
और दिखाकर न बताया हो
साहित्य की आत्मा का घर
और विवेक की खिड़की
चूक कहीं से भी हुई हो
मेरे प्रिय शिष्यो
बिगड़ने से बचा हुआ है
अभी बहुत कुछ
तुम्हारा स्थानीय गुरु भी
बचा हुआ है
लिखो अपनी नोटबुक में
शेषयात्रा के लिए
पथकथा की छूटी हुई इबारत-
जीवन की विद्या के पुरखे
बुद्ध पहले एक गुरु के पास गए
उसके बाद दूसरे गुरु के पास गए
जिसके पास
जो-जो और जितना मूल्यवान था
और जो कम मूल्यवान था
सब लिया बड़े जतन से
और देखा
कि बहुत कुछ के भीतर
कुछ है जो कम है
फिर सोचा
कि जो कम है आखिर है कहां

                                            
आगे बढ़े
संगी-साथी मिले
और वे भी छोड़ गए
पथपर
बढ़ते गए अकेले
सबसे दूर
चर्चित गुरुओं की छाया से दूर
जटिल ज्ञान की माया से दूर
मुक्त हुए सबसे आगे जाकर
तब कहीं बुद्ध
बुद्ध हुए
चुटिया में बांधो
चाहे गांठ में
ओ मेरे बावले शिष्यो
करो सम्यक स्मरण
और जल्द से जल्द
मेरे पास तो खैर कुछ भी नहीं है
छोड़ो ऐसे सभी गुरुओं को
जिनके पास है
मोटी जंजीर जैसी पूंछ
और पत्थर के पैर जैसे पैर
चलो छोड़ो गुरु का भव्य कक्ष
और खड़ाऊं
करो नमस्कार
जाओ
भागो
जितनी जल्द हो सके
निकल जाओ
जाओ मुझे नही चाहिए
तुमसे कोई दक्षिणा-वक्षिणा
देर मत करो

भागो
जितनी दूर भाग सको
जितनी जल्द भाग सको
कोई भी जगह हो
दुनिया के किसी भी कोने में
ढं़ूढ़ो
अपने खड़े होने के लिए
तलुए भर की जगह
और एक कोशिश तो करो
कर सकते हो
मेरे बच्चो मुझे मत देखो
किसी को मत देखो
एक बार अपने भीतर देखो
और बनो
नवजीवन के साहित्य का
नया गुरु।

इस कविता का जिक्र इसलिए नहीं कि इस उम्र में यहां दिग्गजों की तरह मुझे भी अपनी कविता सुनाने का शौक चर्राया है। तुम सब जानते हो कि कविता सुनाने में कितना संकोच करता हूं। कोई तीस वर्ष से इस शहर में अपना एकल पाठ नहीं कराया है। उपर्युक्त कविता सिर्फ यह बताने के लिए कि चर्चित गुरुओं की छाया से दूर रहने का मंत्र इसलिए कि चर्चित गुरुओं ने हमारे समय के साहित्य का जितना कबाड़ा कर रखा है ,उसे दुरुस्त करने के लिए या तो उन्हें कबाड़ में फेंकना होगा या उनसे अलग होकर अलोचना की नई बुनियाद तैयार करना होगा। यह काम तुम्हारी पीढ़ी नहीं करेगी तो कौन करेगा ? मुझसे पहले की पीढ़ी और मेरी पीढ़ी के आलोचकों ने तो जो काम किया है उसके लिए उन्हें इतिहास भले ही क्षमा कर दे पर बाद की पीढ़ी और जो भी कर दे क्षमा नहीं करेगी। हद तो यह है कि कवि तो कवि, मुंशीछाप युवा आलोचकों के मुंह में भी पुरस्कार का खून लग गया है। आलोचना में भी युवा आलोचकों के लिए कोई पुरस्कार चल गया है। पुरस्कारों ने हिन्दी कविता और आलोचना का कितना कबाड़ा किया है, इसपर बाद में बात करेंगे। चर्चित गुरुओं की कारस्तानी पर भी बाद में बात करेंगे। पहले मैं यहां तुमसे कविता पर बात करूंगा। इस समय की कविता पर।
  इस समय की कविता की दो दुनिया है। एक तो वह है जिस पर हमारे समय के कई नामी-बेनामी आलोचकों , उनके सहायकों या उपों का कब्जा है। कहना चाहिए कि जिस दुनिया के क्या बड़े और क्या छोटे सभी कवियों की पीठ पर उनकी सहमति से अनेक महान और क्षुद्र आलोचक बाकायदा सवार हैं और छी-छी प्रमोट करने के नाम पर जाने कैसे-कैसे तंग करते रहते हैं। उस दुनिया के कवि बेचारे अच्छी कविता के लिए आत्मसंघर्ष में वक्त जाया करें कि आलोचकों की सेवा कर फौरन से पेश्तर अमरफल पाएं ? कोई चीज है जो ऐसे कवि से यह सब कराये जा रही है। शायद कविता है, नहीं-नहीं कविता नहीं , पुरस्कार है, पुरस्कार। भूषणी है, केदारी है, शमशेरी है, अकादमी है, पता नहीं क्या-क्या है। पुरस्कारों ने कवि को कविता के स्वाधीन आसन से कितना गिरा दिया है, बताने की जरूरत नहीं है। असल में आज का कवि तो डूबा ही अपनी कविता को भी ले डूबा है। हमारे समय की कविता का टेंटुआ पुरस्कारों के पंजे में फंसा हुआ है। आलोचक की धोती का पुछट्ठा और पाजामे का नाड़ा, सब एक साथ फंसा हुआ है। असल में इसी फंसान में आज की कविता फंसी हुई है। कविता की एक दूसरी दुनिया है जो है तो बहुत छोटी पर इस फंसान से मुक्त है। हमारे समय की कविता की यह छोटी दुनिया आजाद है आलोचकों के फतवे और इस शहर से लेकर राजधानी तक के संपादकों के अखिल भारतीय चूतियापे से। एक अच्छे संपादक का काम नया करना और नये को सामने लाना तो है ही, पुराने को भी नयी रोशनी में देखना है।
   बहरहाल, हमारे समय की कविता पर बात की ठोस शुरुआत इसके नाम से। बात नम्बर-1 यह कि ‘समकालीन कविता पद हमारे समय की कविता के लिए रूढ़ हो गया है। इसका सामान्य अर्थ है वर्तमान कविता। बात नम्बर-2 यह कि इस नाम में प्रवृŸिा पर नहीं, कालखण्ड पर जोर है। जैसे आदिकाल, मध्यकाल आदि। बात नम्बर-3 यह कि सबसे बड़ी दिक्कत कालखण्ड की व्याप्ति को लेकर है। कालखण्ड का स्पष्ट निर्धारण नहीं है कि भाई कब से कब तक। बात नम्बर-4 यह कि आधुनिक काल में भारतेंदु युग या द्विवेदी युग या छायावाद युग या प्रगतिवाद या प्रयोगवाद या नयी कविता या साठोŸारी कविता, सबका एक निश्चित कालखण्ड है, उस तरह समकालीन कविता का कोई निश्चित कालखण्ड नहीं है। इसलिए यह नाम काल और प्रवृŸिा, दोनों दृष्टि से भ्रामक है। लेखकों, आलोचकों आचार्यों, प्रवक्ताओं और विशेषरूप से विद्यार्थियों की समझ को बिगाड़ने वाला है। बात नम्बर-5 यह कि पहले मुझसे भी विषय निर्धारण में चूक हुई है। पर अब विचार के क्षणों में अनुभव होता है कि वाकई यह नाम कई दृष्टियों से अनुपयुक्त है। बात नम्बर-6 यह कि समकालीन कविता को दस या बीस या तीस या चालीस या पचास वर्षों की कविता मानें ? कोई-कोई महानुभाव वर्तमान के दायरे से पीछे बल्कि निकट वर्तमान से भी पीछे जाकर कहते हैं कि यहां से समकालीन कविता। आशय यह कि कोई भी, कहीं भी समकालीन कविता के आरंभ का खूंटा गाड़ देगा। वह तो कहिए कि मेरे गुरुभाई प्रोफेसर मनबढ़ राय ने इंदिरा नगर या लच्छीपुर खास से ही समकालीन कविता के आरंभ या अंत का खूंटा अभी नहीं गाड़ा है। बात नम्बर-7 यह कि समकालीन कविता जैसे विकलांग पद की मजबूरी हमारे सामने तब है जब समकालीन कविता के धंधेबाजों ने समकालीन कविता का राष्टीय नेटवर्क बना रखा है। बात नम्बर-8 यह कि समकालीन कविता पद की इस अराजकता पर देश की राजधानी में बैठे-बैठे समकालीन कविता की सरकार चलाने वाले काव्यालोचकों का ध्यान नहीं जाना चाहिए था ? असाधारण आलोचकों और संपादकों के छोड़े हुए काम आखिर ‘यात्रा के इस नाचीज संपादक के जिम्मे क्यों ? मुश्किल यह है कि कविता लिखें कि आलोचना ? मुझ गरीब की हारी-बेमारी ढ़िलपुक मित्र के हाथ में है। वही बताए कि क्या हो ? किस-किस का मामला खोल दिया जाय, किसे छोड़ दिया जाय ? बात नम्बर-9 यह कि देशभर में इस शहर से लेकर राजधानी तक कई कवि-संपादक हैं पर वे भी या तो कविता के क्रिमिनल हैं या पोंगापंडित या अतिशय भीरु। अपने समय की कविता को उतना ही देखते हैं जितना किसी नामी-बेनामी कोल्हू के बैल को देखना चाहिए। बात नम्बर-10 यह कि ऊंची कलगी वाले मुर्गे बांग नहीं देंगे तो क्या समकालीन कविता के अंधेरे में उजाला नहीं होगा ?
     ओ मेरे बावले शिष्यो फिलहाल तुम्हारे सामने समकालीन कविता पद के विकल्प के रूप में तीन प्रस्ताव रखता हूं -
     प्रस्ताव नम्बर-1 यह कि समकालीन कविता की जगह वर्तमान कविता कहा जाय। ऐसा इसलिए कि इस नाम में यह बात साफ है कि भूत नहीं शामिल होगा। अधिक से अधिक निकट वर्तमान शामिल होगा। लेकिन एक बड़ी दिक्कत यह है कि उम्रदराज और नई उम्र के लोगों के वर्तमान की चौहद्दी कुछ अलग-अलग होगी । कमोबेश वही दिक्कत फिर होगी। तुम्हें इस प्रस्ताव को खारिज करने में कोई हिचकिचाहट न हो, इसलिए मेरे बच्चो मैं खुद ही इसे शुरू से खारिज करता हूं।
     प्रस्ताव नम्बर-2 यह कि समकालीन कविता की जगह नयी सदी की कविता कहा जाय। नई सदी का पहला दशक खत्म होने को है और हमारे समय की कविता की पहचान की दृष्टि से यह दशक बेहद महत्वपूर्ण है। खास बात यह कि एक तो नयी सदी की कविता पद में ऊपर बताये गये दोष नहीं हैं दूसरे नई सदी कहते ही इक्कीसवीं सदी का अब तक कालखण्ड सामने आ जाता है , दूसरे निकट वर्तमान भी इसमें जुड़ जाता है। खासतौर से कविता के भविष्य की आहट भी इस नाम में मौजूद है। सोचो मेरे बावले शिष्यो, लो मैं छोड़ता हूं तुम्हारी उंगलियां। अपने समय की कविता का नाम तुम खुद चुनो। दादा-दादी, नाना-नानी कब तक रखते रहेंगे नाम-वाम। अपने काम को खुद पहचानो। अपने समय के नाम को खुद पहचानो।
    प्रस्ताव नम्बर-3 यह कि नई सदी की कविता एक अर्थ में सौ फीसदी जीवनधर्मी कविता है। समकालीन कविता या नयी सदी की कविता की जगह जीवनधर्मी कविता कहा जाय। नई सदी से ठीक पहले की कविता में अधिकांश विचार और सूचना और सतही यथार्थ है। संवेदना और चरित्र की जगह गद्य का भूलभुलैया है। नयी सदी की कविता में कविता में भरोसे और उम्मीद का चेहरा है। जीवन के कोमल और कंटीले अनुभव का चेहरा है। यथार्थ के दर्द की रेखाओं और प्रेम के विरल अनुभव का चेहरा है। जीवन अपने विस्तार और सरोकार के साथ मौजूद है। इन्हीं अर्थों में नयी सदी की कविता जीवनधर्मी कविता है। नयी सदी की कविता जीवनधर्मी है तो क्या इससे पहले की कविताओं में जीवन नहीं है ? जाहिर है कि जीवन के बिना तो कविता की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। अर्थात जीवन अच्छी कविता की अनिवार्य शर्त है। यह शर्त पहले भी थी, आज भी है।
    तो मेरे बच्चो इस तरह तो जीवनधर्मी कविता जैसा पद भी पूरी तरह उपयुक्त नहीं है। मुझे लगता है कि इन तीनों प्रस्तावों में समकालीन कविता की जगह नयी सदी की कविता कहना अधिक समीचीन है। पर यह तो मैं ऐसे ही कह रहा हूं। तुम इसे नयी सदी की कविता कहो चाहे न कहो, यह तुम्हारा काम है। तुम्हें चुनना है, तुम्हें सोचना है, तुम्हें करना है। मेरे पास जो टूटा-फूटा है उसे लेकर तुम्हें आगे बढ़ना है और जो मेरे पास नहीं है, वह तुम्हें हासिल करना है। कव्यालोचना का बुद्ध बनकर। अपने समय का बुद्धू बनकर नहीं।
   मेरे बावले शिष्यो मुश्किल यह है कि बुद्ध बनने की राह में तुम्हारे सामने हजार मुश्किलें हैं। सबसे बड़ी मुश्किल तो चर्चित गुरुओं के मोटे-मोटे और हाथी के पैर जैसे खासे वजनी पत्थर के पैर हैं। हजार तापसगुरु हैं। फौरन से पेश्तर तुम्हें साबुत हजम कर जाने के लिए। देखना यह है कि कहीं तुम लोग खुद ही हिन्दी के कंटालगुरुओं के मगरमच्छ जैसे फैले हुए जबड़े में जाने के लिए अति आतुर तो नहीं हो ? ऐसा नहीं कि यह सब पहलीबार खास तुम्हारे लिए है। पहले भी ऐसे गुरु होते थे। मेरे समय में भी गुरु थे। एक नहीं, कई थे। थे नहीं बल्कि हैं। उनमें कई ऐसे थे जो मरे हुए थे, पर मर कर भी मरे नहीं थे। उनका ध्येय वाक्य ही था हम ना मरैं, मरिहैं संसारा। कई ऐसे थे जो मर कर भी इस दुनिया को छोड़ नहीं रहे थे। असल में वे इस शर्त के साथ इसे छोड़ना चाहते थे कि उनसे पहले सरस्वती यहां से कूच कर जाएं। इसके लिए वे प्रतीक्षा क्या बाकायदा साजिश कर रहे थे। मेरे पहले साहित्य गुरु सच्चे गुरु थे। हैं। उन्हें मुझसे कोई ईर्ष्या न तब थी, न अब है। कुछ वक्त के लिए एक भले काव्यगुरु मिले थे। अब नहीं रहे। कुछ और कमोबेश भले गुरु मिले। अच्छे और कम अच्छे, खराब और महाखराब गुरुओं के बीच दस गुरुओं की एक पूरी सीरीज ही कातिल थी। एक से बढ़कर एक। अच्छा हुआ कि हिन्दी के ये कंटालुगुरु एकलव्य के जमाने में गुरु की नौकरी पर नहीं थे, नहीं तो एकलव्य से अंगूठा थोड़े मांगते, डायरेक्ट गला ही मांगते। मांगते भी क्या, सीधे उड़ा देते और हाजिरी रजिस्टर में गैरहाजिर दिखा देते। आधुनिक कविता की यात्रा में गुरु सीरीज जैसी कविताएं कितनी हैं और इस शहर के चोट्टों के पास कितनी हैं, यह मालूम नहीं है। खैर मालूम तो यह भी नहीं है यहां और कौन लोग होंगे जो अपनी हीर कविता के लिए जोखिम मोल लेंगे ? और कौन लोग होंगे जो सबसे अलग-थलग हो जाने की सीमा तक ‘‘साहित्यिक मूल्यों’’ के प्रति वफादार रहना चाहेंगे ? अब तो हिन्दी के नये बच्चे हों या नये प्रोफेसर, चतुराई का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होते हैं। कुछ प्रोफेसर तो देखने में रेसलर अंडरटेकर की प्रतिमूर्ति होते हैं पर सच के साथ खड़ा होने के लिए उनके पास चींटी जितना भी साहस नहीं होता है। सच तो यह कि हिंदी की आत्मा का सच आज हिंदीवालों का सच नहीं रहा। हिंदी की रोटी खाने वालों ने साहित्य का शामियाना हाउस खोल लिया है और ऐश कर रहे हैं। मेरे बच्चो क्या तुम भी हिन्दी के नाम पर यहां-वहां घूम-घाम कर मस्ती करना चाहते हो कि यहां हिन्दी के लिए सचमुच कुछ कर गुजरना चाहते हो ? इसके लिए अपनी कमर आप कस पाओगे मेरे बच्चो ? हिन्दी के कंटालों का वह गला कस पाओगे जो झूठ का धंधा करता है ? देश का तर माल उड़ाता है और जगह-जगह खाता और फिरता है। तुम लोग कातिल गुरुओं के सामने अपने धुटरुन पैरों पर कैसे और कब खड़े हो पाओगे ? कब तक उनके पैरों से बंधे रहोगे ? ये तुम्हारे पंख नोच लेंगे, पंख का एक-एक बाल नोच लेंगे, तुम्हें खा जाना चाहेंगे-कच्चा। कैसे खड़े हो पाओगे हिन्दी की जमीन पर अपना सिर उठा कर। कैसे चल पाओगे दो-चार निडर डग ? कैसे कहोगे हिन्दी के इन कसाइयों से कि तुम हिन्दी के बच्चे हो। ये तुम्हारी इस बात के मुंह पर थूक देंगे। तुम्हारी नयी बात के मुह पर थूक देंगे। ये किसी की भी नयी बात के मुंह पर थूक देंगे। ये अपने समय के जिन-जिन चिरकुट भगवानों का झोला ढ़ोते हैं, उन पर तो खैर कभी भूलकर भी नहीं थूकेंगे, पर सचमुच के भी भगवान आ जाएं और कोई नयी बात कहें तो ये उनके मुंह पर बेहिचक थूक देंगे। असल में ये इस बात को हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकते कि अगर वे कोई नयी बात कर या सोच नहीं सकते या उनका चिरकुट भगवान ऐसा नहीं कर सकते तो कोई दूसरा ऐसा करने की हिमाकत करे। असल में ये हिन्दी के नये बलई मिसिर हैं। मेरे बच्चो वे यही चाहेंगे कि अगरचे तुम हिन्दी के प्राध्यापक हो गये हो तो बेहतर होगा कि ताकतवर आलोचना और रचना करना भूल जाओ। अच्छी पत्रिका निकालना भूल जाओ। निकालो तो जैसे-जैसे वे करते हैं , वैसे-वैसे करो। कुछ करो तो कसम खा लो कि जो कुछ करोगे सब उन्ही की तरह पुराना और बदबूदार करोगे और पुराने के सिवा कुछ भी नया नही करोगे। तुम्हारे लिए यह मुश्किल होगा कि समकालीन कविता कहने वाले कंटालगुरुओं के सामने इस समय की कविता को नयी सदी की कविता कहना। सच तो यह है कि नयी सदी की कविता कहोगे तो ये हिन्दी विभागों के कंटालगुरु तुम्हें खत्म कर देंगे और अगर तुम अपने समय की कविता को नयी सदी की कविता नहीं कहते या अपने समय की आलोचना में नया नहीं सोचते तो हिन्दी की दुनिया में तुम्हारे लिए तलुए भर की जगह कहां होगी ? फैसला तुम पर है कि तुम क्या कहते हो और क्या नहीं कहते हो! देखना है कि तुम क्या करते हो और क्या नहीं करते हो। तुम्हारी कुछ मुश्किलें भी हो सकती हैं। यकीनन हो सकती हैं। कोई कांटा फंसा हो सकता है। कोई उम्मीद फंसी हो सकती है। कोशिश करने पर सारे कांटे निकल जाते हैं। बड़ी से बड़ी मुश्किलें हौसले को डिगा नहीं पाती हैं। वक्त आ गया है, छोड़ दो कंटालु साहित्यप्रभुओं की जहरबुझी उंगलियां और बढ़कर अपने समय की कविता का दामन थाम लो। आलोचना की ढ़हती हुई इमारत को अपने कंधों से रोक लो। अपने समय की आलोचना और रचना को अपनी बेखौफ किलकारी से भासमान कर दो। मैं जानता हूं कि तुम आज नहीं तो कल ऐसा ही कुछ करोगे।
    मेरे बच्चो! एक ही चूती हुई जर्जर छत के नीचे काम करने वाले मेरे तीनो प्यारे प्राध्यापक शिष्यो! नयी सदी की कविता को अब तक जितना भी कम देखा है, यह तो देखा ही है कि नयी सदी की कविता उम्मीद की कविता है, भरोसे की कविता है, प्रेम और जीवन के लिए असमाप्त संधर्ष की कविता है, अपने परिवेश की आकुल महापुकार की कविता है। जीवन की जड़ों की ओर वापसी की कविता है।  ओ मेरे बच्चो! ‘नयी सदी में विशेषण ‘नयी जितना ‘सदी के लिए है, उतना ही ‘कविता के लिए है। क्या अपनी कोमल और निर्मल आंखों से तुम यह देख नहीं पा रहे हो कि तुम्हारे आसपास की कविता कितनी नयी हुई है।
ओ मेरे बच्चो! निर्भय होकर कहो, नयी सदी की कविता कहो। नयी सदी की कविता पर फिर बात करेंगे। तुम्हीं से बात करेंगे। हिन्दी के कापुरुषों से हरगिज-हरगिज बात नहीं करेंगे।
(यात्रा-4/संपादकीय/गणेश पाण्डेय-संपादक)

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