tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post2123997580329854039..comments2024-02-08T14:09:55.960+05:30Comments on Ganesh Pandey : गणेश पाण्डेय: नई सदी की काव्यालोचना की मुश्किलेंGanesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-44889716290341086542011-10-22T09:57:39.879+05:302011-10-22T09:57:39.879+05:30प्रिय केवल राम जी,
धन्यवाद। आप ने मेरे विश्वास को ...प्रिय केवल राम जी,<br />धन्यवाद। आप ने मेरे विश्वास को और मजबूत किया है। आप एक ऐसे युवा साहित्यिक के रूप में दिखते हैं जिसका पक्ष सिर्फ और सिर्फ साहित्य है, जिसके पास साहित्य में सच्चे मन से काम करने के लिए निर्मल और निश्छल हृदय है। ऐसा कुछ मैंने आपके शब्दों के पीछे से झाँकती हुई छवि से अनुभव किया है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। आदर सहित-गणेश पाण्डेय।Ganesh Pandey https://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-49470039763845349682011-10-21T22:46:14.277+05:302011-10-21T22:46:14.277+05:30आपका हर आलेख नयी सोच और दृष्टि प्रदान करता है .......आपका हर आलेख नयी सोच और दृष्टि प्रदान करता है ....यही मैं निर्णय कर पाया .....जहाँ तक हिंदी आलोचना से सम्बंधित लेखों की बात है वहां आपकी दृष्टि पैनी और स्पष्ट है ...आशा है आपका अनुभव हमें एक नयी राह दिखायेगा ....इसी आशा के साथ ....!केवल रामhttps://www.blogger.com/profile/04943896768036367102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-72972473126262452032011-10-20T09:02:09.959+05:302011-10-20T09:02:09.959+05:30मेरा आग्रह यह है, था भी, कि अति सामान्यीकरण और अति...मेरा आग्रह यह है, था भी, कि अति सामान्यीकरण और अति सरलीकरण के साथ-साथ सर्वनामों के अतिशय प्रयोग से बच कर बात को सीधे-सीधे कहा जाना चाहिए. जब हम आलोचकों/ लेखकों की कमियां गिना रहे हों तो संवाद उनका नाम लेकर ही किया जाना चाहिए. दूसरे, हम नए प्रतिमान घड़ रहे हैं तो इसे भी सूत्र की तरह प्रस्तुत कर देने का प्रयत्न करना चाहिए.आलोचना कर्म एक साहित्यिक कर्म होने के साथ-साथ एक नैतिक कर्म भी है. इन् दिनों आप देख रहे होंगे कि एक दम नए लेखक भी आलोचक पर तोहमत लगाने को तत्पर हैं. असहिष्णुता इतनी अधिक है कि मन के अनुकूल न होने पर एक टिप्पणी भी बीसियों प्रसन्नता देने वाली टिप्पणियों को भुलवा देती है. पांडेयजी, बड़े कठिन समय में जी रहे हैं हम लोग. संघर्ष कई स्तरों पर हैं, उनकी अनदेखी करके हम मौजूदा परिप्रेक्ष्य को भी ठीक से नहीं समझ सकते. ऐसा नहीं है कि आलोचना संकट में नहीं है, पर जब इस संकट का अमूर्तन कर दिया जाता है तो यशाकांक्षी लेखक आपको हाथों हाथ ले लेता है. एक भी आलोचनात्मक टिप्पणी समकालीन रचनाशीलता पर बिना 'उग्र' हुए भी कर दीजिए और फिर देखिए इन् 'शेयर' और 'लाइक' करने वालों का रवैया. पर इससे डर कर अपना रास्ता छोड़ने की ज़रूरत थोड़े है. हम जितने 'वस्तुपरक' हो सकते हों टिप्पणियों में, उतना भर करके हम अपने दायित्व का निर्वाह कर सकते हैं. आपने जो मुद्दे उठाए हैं उन्हें पूरे सन्दर्भों के साथ रखेंगे तो सबका भला होगा, आलोचना का भी.मोहन श्रोत्रियhttps://www.blogger.com/profile/00203345198198263567noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-75595704585107701832011-10-17T22:20:38.828+05:302011-10-17T22:20:38.828+05:30निश्चल जी,
एक लंबा मेल किया है। देख लीजिएगा। आदर स...निश्चल जी,<br />एक लंबा मेल किया है। देख लीजिएगा। आदर सहित।Ganesh Pandey https://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-91062849693823816262011-10-17T11:25:08.622+05:302011-10-17T11:25:08.622+05:30आदरणीय पांडेय जी,मेरी तात्कालिक टिप्पणी श्यामल ...आदरणीय पांडेय जी,मेरी तात्कालिक टिप्पणी श्यामल जी की तात्कालिक टिप्पणी पर थी। आपकी पोस्ट अभी देखी और पढ़ी। ऐसा नहीं कि आपके उठाए मुद्दे कोई नए है। ये सवाल पुराने पड़ चुके हैं। बेशक वे आज भी प्रासंगिक हैं। आज के आलोचकों के सार्वजनिक जीवन के कार्य आपसे छिपे नहीं है1 पर आपकी विस्तृत टिप्पणी में वास्तव में रोष की छलकन ज्यादा है, जिसकी ओर श्यामल जी ने भी इशारा किया है। इसके अलावा अपने निज का आक्रोश भी आप छिपा नहीं पाए हैं। यही बात श्री श्रोत्रिय जी ने भी की है। मेरी कोई श्रोत्रिय जी के साथ दुरभिसंधि नहीं या श्यामल जी के साथ आत्मीयता नहीं। मैं तो आपकी यात्रा का पाठक भी रहा हूँ। उसके अंकों में भी आप ऐसे सवाल यदा कदा उठाते ही रहे हैं। हम हिंदी विभागों से दूर रहने वाले लोग हैं तथा कविता,कहानी, दादरा, कहरवा, गजल, दोहे,चौपाई यहॉं तक कि फिल्मी इल्मी गीतों के भी शौकीन और जीवन में रस लेने वाले हैं। जिस हिंदी विभाग या विभागों के आतंकी आलोचकों, कवियों और उनसे डरने वाले लोगों की बात आपने उठायी है, उसका अनुभव आपका है जिस पर मुझे कुछ नही कहना है। ऐसा होता है। किन्तु ऐसे ही निजी नियुक्ति को लेकर एक युवा संपादक ने अपनी पत्रिका का समूचा संपादकीय नियुक्ति समिति के अध्यक्ष एवं सदस्यों की कारगुजारियों पर ही केद्रित किया था तो बताऍं कि क्या पत्रिका निज के राग-विराग के आलाप के लिए निकाली जाती है?<br /><br />आदरणीय पांडेय जी असली दूध में भी झाग बहुतेरा होता है। पर इससे दूध की असलियत पर फर्क नहीं पड़ता। पर झाग थिराने पर ही दूध की असलियत का पता चलता है। हम आलोचना को लेकर आपकी चिंता समझते हैं, पर ऐसे अमूर्त आक्रमणों से कुछ नही होने वाला। लोग अपनी रचना की कमान सँभालें, आलोचकों को अपनी कछुवा चाल चलने दें। आखिर श्यामल जी ने भी तो यही कहा है: ‘’इन(सवालों) पर उग्रता दिखाने या रोष छलकाने से कोई लाभ नहीं होने वाला। हमें ठोस काम करने का कुछ उदाहरण प्रस्तुत करना ही चाहिए।‘’ओम निश्चलhttps://www.blogger.com/profile/12809246384286227108noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-60835071228747349192011-10-16T13:15:05.170+05:302011-10-16T13:15:05.170+05:30आ. श्रोत्रिय जी, जब मैंने अपना ईमेल खोला तो आपकी प...आ. श्रोत्रिय जी, जब मैंने अपना ईमेल खोला तो आपकी प्रतिक्रिया को मेल में जानकर मैंने ठीक उसी क्षण पहली प्रतिक्रिया के रूप में आपको धन्यवाद देने के लिए मेल में लिखा ‘ ‘ आ. श्रोत्रिय जी, नई सदी की काव्यालोचना की मुश्किलें ’ आपने देखा। बातों को महत्वपूर्ण माना। यह खास बात है। आपके सुझाव पर ध्यान देने की कोशिश करूँगा। आप स्वस्थ एवं सानंद होंगे। शेष फिर। सादर, आपका-गणेश पाण्डेय। ’ जहाँ तक मैं समझता हूँ , ब्लॉग को देखने के बाद मित्रों के लिए जरूरी समझ कर जो जरूरी टिप्पणी दी है उसमें आपको मेल की गयी बातें मौजूद हैं। आपके प्रति कहीं से असम्मान का भाव नहीं है। आप वरिष्ठ हैं ,मैं भला आपको दुखी क्यों करना चाहूँगा ? मेरी ओर से ऐसी कोई बात नहीं है। फिर भी आप मुझे या लेख के मुद्दों पर केंद्रित होकर कुछ और कहना चाहें तो कह सकते हैं। आदर सहित।Ganesh Pandey https://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-49521288327012681592011-10-16T11:31:05.507+05:302011-10-16T11:31:05.507+05:30जो टिप्पणी आपने मुझे मेल की थी उसे ही यहां लगाते त...जो टिप्पणी आपने मुझे मेल की थी उसे ही यहां लगाते तो बेहतर रहता. या यही टिप्पणी आप मुझे मेल कर देते तो फिर देखते कि मैं आपकी टिप्पणी का विस्तृत जवाब देता या नहीं. सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए एक टिप्पणी, और निजी स्तर पर उससे अलग, यह बात भी समझ में तो आती ही है.मोहन श्रोत्रियhttps://www.blogger.com/profile/00203345198198263567noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-6839009135345748832011-10-16T09:48:59.967+05:302011-10-16T09:48:59.967+05:30मेरा तो मानना है कि आज की हिन्दी आलोचना अध्ययन क...मेरा तो मानना है कि आज की हिन्दी आलोचना अध्ययन का अभाव, विश्लेषण की कमी और प्रदर्शन की अतिशयता का संकट झेल रही है। जो लोग इस क्षेत्र में अपने सक्रिय होने का अहसास करा रहे हैं उनमें से ज्यादातर वस्तुत: भ्रम ही फैला रहे हैं। उनमें अध्ययन-डुबकी लगाने की न ईमानदारी है, न धैर्य और मैं तो यहां तक कहूं कि क्षमता भी नहीं। ब्लर्व मैटर देख-देख और कुछ रंगउड़े-गंधाते मुहावरे जोड़-तोड़कर पुस्तक-समीक्षाएं ढालने में पिले कुछ लोग जब-तब चकित-चकाचौंध करने वाली टिप्पणियां कर जरूर रहे हैं किंतु उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। आपने कुछ सवाल ज्वलंत उठाये हैं लेकिन इन पर उग्रता दिखाने या रोष छलकाने से कोई लाभ नहीं होने वाला। हमें ठोस काम करने का कुछ उदाहरण प्रस्तुत करना ही चाहिए।Shyam Bihari Shyamalhttps://www.blogger.com/profile/02856728907082939600noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-32505444520521114012011-10-15T09:50:00.901+05:302011-10-15T09:50:00.901+05:30श्रोत्रिय जी ने जिस बात को महत्वपूर्ण समझा, उस पर ...श्रोत्रिय जी ने जिस बात को महत्वपूर्ण समझा, उस पर केवल आठ शब्द खर्च किया है और जिस चीज को महत्वपूर्ण नहीं समझा है उस पर एक सौ अट्ठारह शब्द। कभी-कभी हो जाता है। श्रोत्रिय जी जिन बातों को महत्वपूर्ण मानते हैं, उस पर अपना पक्ष खुलकर स्पष्ट करते तो और अच्छा होता। रही होगी कोई दिक्कत। खैर। उन्होंने इस लेख को देखा और मुद्दों को महत्वपूर्ण माना। यह खास बात है। श्रोत्रिय जी के सुझाव पर ध्यान देने की कोशिश करूँगा। पर जो गद्य जीवन संग्राम की भाषा होगा, उसमें सब शहद-शहद ही होगा, यह संभव नहीं है। जीवन के नमक का क्या करंेगे ? फिर भी प्रतिक्रियाओं के लिए आभारी हूँ।Ganesh Pandey https://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-41351895554304647612011-10-13T22:24:58.196+05:302011-10-13T22:24:58.196+05:30बातें अपनी तरह से आपने महत्वपूर्ण उठाई हैं, पर टाल...बातें अपनी तरह से आपने महत्वपूर्ण उठाई हैं, पर टाले जा सकने वाले विस्तार से अपने आलेख को बचा ले जाते तो यह अपनी बात को कुछ और प्रभावी ढंग से संप्रेषित कर सकता था. चीज़ों को फैलाना उतना ही चाहिए जितना कि अंत तक जाते-जाते समेट पाएं. चीज़ों का खुलासा करना एक बात है, घुमा-घुमा कर उन्हें सामने रखना बिल्कुल अलग तरह की बात है. मैं समझता हूं आज आलोचना का परिदृश्य यह मांग करता है कि समीक्षा हमें कवि की करनी हो या आलोचक की, उसे सीधी और धारदार होना चाहिए. शुरू में 'संदेह' न होने की बात को जितनी स्फीति दी है, उसने भी असर को कम ही किया है. 'संदेह न होना' और 'विश्वास होना' एक ही चीज़ नहीं है.मोहन श्रोत्रियhttps://www.blogger.com/profile/00203345198198263567noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-2756917161928419242011-10-07T23:13:16.805+05:302011-10-07T23:13:16.805+05:30आपने कुछ बेहद ज़रूरी सवाल उठायें हैं. तल्खी स्वाभा...आपने कुछ बेहद ज़रूरी सवाल उठायें हैं. तल्खी स्वाभाविक है...इनसे जूझे बिना कविता पारिदृश्य में कोई सार्थक बदलाव संभव नहीं.Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.com