गुरुवार, 12 जुलाई 2012

आलोचना का सच उर्फ आलोचना क्या नहीं है

- गणेश पाण्डेय

प्रिय अरुण! कोई घंटा भर पहले डॉक्टर को अपनी आँख दिखाकर लौटा हूँ। ग्लोकोमा की शिकायत है। पर इस वक्त शिकायत में कुछ ढ़ील है। आई ड्राप बंद है। पर चीजें आब्जर्वेशन में हैं। जाँच में दवा डालने की वजह से आँख की पुतली फैल गयी है। रोशनी चटक मालूम पड़ रही है और चीजें कुछ धुँधली लग रही हैं। कम्प्यूटर पर बैठा हूँ पर स्क्रीन बहुत तेज चमक रही है। आँखें चौंधिया रही हैं। ऐसे में जब वादा किया है तो निभाना तो पड़ेगा ही। सुबह तक आँख ठीक हो जाएगी। लेकिन मन नहीं मान रहा है। आलोचना के लोचन जब संकट में हांे तो सुबह का इंतजार कौन करे। हालाकि बद्र का शेर कुछ यों है कि ‘‘ रात का इंतजार कौन करे/ आजकल दिन में क्या नहीं होता।’’ बहरहाल, आलोचना के लोचन आजकल दिनरात, बल्कि क्षण-प्रतिक्षण संकट में हैं। आलोचना ही नहीं, हिंदी की पूरी दुनिया संकट में है। दरअसल आधुनिक काल के बाद हिंदी में जो नया काल साक्षात् फाट पड़ा है, उसका नाम ही दुर्दशाकाल है। आधुनिककाल के बाद जाहिर है कि बिना किसी ठोस वजह के जिस काल को हिंदी में लाने की नासमझी की गयी, भला दुर्दशाकाल से अच्छा उसका और क्या नाम हो सकता था ? तो अरुण, इस दुर्दशाकाल की कथा बड़ी विचित्र है। मैं पहले यह समझता था कि हिंदी की लंका सिर्फ गोरखपुर में है। पर अब आलोचना में घुसपैठ करने वाले पट्ठों को देख कर लगता है कि नहीं भाई, हिंदी की लंका तो गोरखपुर से बाहर भी न जाने कहाँ-कहाँ मौजूद है। ये पट्ठे आलोचना की पूँछ पकड़कर साहित्य की वैतरणी पार करना चाहते हैं। पर पूँछ तक को पता है कि ये झूठमूठ के आलोचक हैं। एक बार दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार-लेखक मित्र ने पूछा था कि ‘‘कविता की जान लेने के सौ तरीके’’ नामक किताब कहाँ से छपी है और किसने लिखा है ? दरअसल बड़े भोले हैं मित्र। उन्हें बताया गया कि इस किताब को लिखने और उसे देखने वाले सज्जन सिर्फ नाचीज छोटे सुकुल हैं। छोटे सुकुल का सौभाग्य कि वे ‘‘आलोचना की जान लेने के सौ तरीके’’ नामक किताब के लेखक और पाठक सिर्फ वही हैं। छोटे सुकुल और मुझमें कुछ भी बंटा हुआ नहीं है, इसलिए सौभाग्य मेरा भी। पर यह सौभाग्य भी कितना बदनसीब है जो हिंदी आलोचना के दुर्भाग्य से जुड़ा है। असल में मैं करूँ भी तो क्या। आलोचना के बाड़े में अनधिकृत रूप से हाल ही में धुस आया एक पट्ठा तो बहुत ही बलबलाया हुआ है। खूब उत्पात कर रहा है। अपने थूथन से आलोचना की मिट्टी खोद -खोद कर आलोचना का घर ढहा देना चाहता है। इतना ही नहीं, बड़े से बड़े नामवर आलोचकों को अपने थूथन से उठा कर पटक देना चाहता है। पर मैं क्या कर सकता हूँ। अफसोस कर सकता हूँ। प्रतीक्षा कर सकता हूँ। बहुत हुआ तो कुछ कह सकता हूँ। कहे बिना रह भी तो नहीं सकता। इसलिए कहना जरूरी है।
   कहना जरूरी है कि आलोचना कोई अनाथालय नहीं है। आलोचना किसी कमजोर की लुगाई नहीं है। आलोचना कोई लावारिस लाश नहीं है। आलोचना कोई छुईमुई जैसी चीज नहीं है कि कोई भी पट्ठा आँख दिखाएगा और डर जाएगी। पर हिमाकत तो देखिए। ये पट्ठे नामवर आलोचकों को डराने की बेवकूफियाँ करते-करते आलोचना को ही धमकाने लगे हैं। हाँ, यह सच है कि आज बड़े सुकुल जी नहीं हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि छोटे सुकुल हैं। बड़े सुकुल जी होते तो जरूर ‘‘कविता क्या है’’ की तरह ‘‘आलोचना क्या है’’ भी लिखते। नहीं हैं तो कोई बात नहीं। जैसे ‘‘कविता क्या है’’ के बाद मैंने लिखा कि ‘‘कविता क्या नहीं है’’ उसी तरह कम से कम ‘‘आलोचना क्या नहीं है’’ शीर्षक लेख तो लिख ही सकता हूँ। मैं लिखूँ या छोटे सुकुल लिखें, बात एक ही है।
     हाँ, ठीक ही कहा, अरुण! आँखों का ख्याल रखना चाहिए। लेख आराम से लिखूँ। दो-तीन दिन आँखों को आराम देने के बाद अच्छा अनुभव कर रहा हूँ। बात आगे बढ़ाने की कोशिश करता हूँ। कविता के इस छोटे-मोटे कार्यकर्ता की पुतलियाँ अपनी स्वाभाविक स्थिति में आ गयी हैं। पर आलोचना के लोचन का संकट तो फिर भी ज्यों का त्यों है। आलोचना क्या है ? जैसा लेख है नहीं और मुझे लिखना है कि आलोचना क्या नहीं है ? बड़े सुकुल जी से नामवर आलोचक तक ने यह तो लिखा कि कविता क्या है ? पर यह नहीं लिखा कि ‘‘आलोचना क्या है’’ ? कविता क्या है ? यह लिखा गया था, इसलिए मुझे यह बताने में तनिक भी दिक्कत नहीं हुई कि कविता क्या नहीं है ? पर आज दिक्कत है। असल में बड़े सुकुल जी से लेकर आज के बड़े आलोचकों तक ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि गोरखपुर, कोलकाता इत्यादि तमाम शहरों में आलोचना में भी सूरदास आ जायेंगे। बड़े सुकुल जी जानते थे कि सूरदास सिर्फ कविता में आते हैं। यह जानते कि साहित्य के दुर्दशाकाल में आलोचना में भी फाट पड़ेंगे तो जरूर लिख जाते कि ‘‘आलोचना क्या है’’ ?
     यह जो समय है, कई अतियों और व्याधियों और आलोचना के मान के टूट-फूट का समय है। यह समय आलोचना के उन झूठमूठ के दुनियापतियों का भी है, जिनका पोत अढ़ाई आना भी नहीं है। तुर्रा यह कि आलोचना के बादशाह हमी हैं। आमवर-नामवर आलोचक क्या चीज हैं। आलोचना भी जिनकी दासी है। कान पकड़कर सभा में उठायें-बैठायें। पहले के आचार्यों की ऐसी-तैसी। कहते रहें कि ‘‘आ समन्तात् लोचनम् अवलोकनम् इति आलोचनम्।’’ और तो और पहले के आचार्य कहते रहें कि कविकर्म को प्रकाश में लाना ही ‘‘भावयित्री प्रतिभा’’ अर्थात् आलोचक की प्रतिभा है। पुराने आचार्य कहते रहें कि ‘‘यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।’’ बाहर के भी आचार्य कहते हैं तो कहते रहें कि‘‘ कला जीवन की सजगता है तो आलोचना कला की सजगता।’’ बहुत से आचार्यों ने आलोचना के बारे में बहुत कुछ कहा है। पर किसी ने यह नहीं कहा है कि आलोचना कला और साहित्य से बाहर की चीज है। सबसे बड़ा संकट आलोचना के लोचन के सामने आज यही है। आज आलोचना की दुनिया में कुछ झूठमूठ के ऐसे लिक्खाड़ आलोचकों का प्रादुर्भाव हुआ है, जिनके सामने आलोचना में बड़े से बड़ा भाड़ झोंकने वाला भी शर्मिन्दा हो जाय। ऐसे लोगों की वजह से ही ‘‘आलोचना की हत्या के सौ तरीके’’ नाम की किताब आयी है। ऐसे ही लोग आज नामवर आलोचक को अनेक मुख से फूँककर उड़ा देना चाहते हैं। मैं परेशान हूँ कि ‘‘कविता क्या है’’ की तरह ‘‘आलोचना क्या है’’ शीषर्क लंबा लेख बड़े सुकुल जी से लेकर नामवर आलोचक तक ने लिखा क्यों नहीं ? किससे कहूँ कि भाई संकट की घड़ी है, आपका ही विद्यार्थी बौराया हुआ है, जल्दी से ‘‘आलोचना क्या है’’ लिख दीजिए। नामवर आलोचक ने तो खैर क्रिकेट के खिलाड़ियों की तरह लिखने से संन्यास ले लिया है, सो अब वह लिखने से रहे। फिर किससे कहूँ , ‘‘ससुरा आलोचक’’ से कहूँ कि अपने जनपद के आलोचना के किसी गद्दार से कहूँ कि पांडे जी से ही कहूँ कि अब बहुत हो गया, लिख दीजिए कि आलोचना क्या है ? लिखिए तो ऐसे कि बात बन जाये। बड़े सुकुल जी की ‘‘कविता क्या है’’ के सामने रखा जाये। बहुत परेशान हूँ अरुण! कि क्या आलोचना किसी कृति को देखना और उसके मर्म तक पहुँचने की रचनात्मक प्रक्रिया नहीं है ? फिर क्या है आलोचना ? आलोचक यह नहीं करेगा तो क्या करेगा ? कहाँ भाड़ झोंकेगा ? आलोचक के बारे में , उसकी भावयित्री प्रतिभा के बारे काफी कहा गया है। आलोचक में जिन चीजों को खासतौर से रेखांकित किया गया है, उनमें बहुपठित होना तो है, लेकिन तीक्ष्ण अन्वीक्षण बुद्धि के साथ-साथ मर्मग्राहिणी प्रज्ञा का होना भी बेहद जरूरी माना गया है। शायद पहले तो वही होना जरूरी है। जिस आलोचक मेें मर्म तक पहुँचने की कला होगी भला वह वज्रमूर्ख कैसे होगा ? हरगिज-हरगिज वज्रमूर्ख नहीं हो सकता। थोड़ा-बहुत हो तो कह नहीं सकता। मुश्किल यह है कि आज आलोचना के लोचन के सामने संकट ऐसे ही लोगों ने अधिक खड़ा किया है, जिनमें कृति के सामने खड़ा होने की न तो कूवत है और न समझ। भला अपने समय की रचनाशीलता से डर कर किसी उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव पर जाकर उत्तर-उत्तर या दक्षिण-दक्षिण चिल्लाने वाले लोग आलोचक हो सकते हैं ? आलोचक तो दूर, ये हिंदी के भड़भूजे भी नहीं हो सकते कि ठीक से भाड़ ही सही झोंक तो सकें।
        गुस्सा, गुस्सा, गुस्सा। कुछ लोगों में छोटे-छोटे स्वार्थों को लेकर खूब गुस्सा है। कोई जे.एन.यू. नहीं पहुँच पाया, चाहे डीयू नहीं पहुँच पाया तो अब नामवर आलोचक को धरती पर रहने नहीं देगा। पुरुषोत्तम क्यों प्रिय शिष्य हुए या कोई और क्यों प्रिय शिष्य हुआ ? खफा। पतलून से बाहर हो जायेंगे। अरे भाई किसने रोका आपको कि आप प्रिय शिष्य न बनें ? मैंने तो किसी गुरु-फुरु का प्रिय शिष्य होने की कोशिश नहीं की। मेरी एक कविता है- ‘‘जब मुझे मेरे गुरु ने बर्खास्त किया’’ -
मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ
न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर
सब कुछ सामान्य था मेरे लिए
जब मुझे मेरे गुरु ने बर्खास्त किया
और बनाया किसी खुशामदी को अपना
प्रधान शिष्य।
बस इतना हुआ मुझसे
कि मैं बहुत जोर से हँसा।
यह ‘‘मैं’’ था, जो हँस रहा था। जो हँस सकता था।
यह ‘‘मैं’’ रो नहीं रहा था। दुखी नहीं हो रहा था। यह ‘‘मैं’’ गुरु सीरीज की अन्य कविता में लिख रहा था, ‘‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम’’-
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।
मैंने अपने पहले कविता संग्रह की गुरु सीरीज की दस कविताओं में से कुछ कविताओं को न चाहते हुए भी प्रसंगवश दिया है। पर अफसोस कि झूठमूठ के आलोचकों के पास मुझ गरीब कवि की कविताओं की भी समझ नहीं होगी, फिर वे हिंदी की महान कविताओं को क्या खाक देखेंगे ? क्या खा कर देखेंगे ? मेरे एक गुरु जिन्होंने कुछ लोगों से डर कर मुझे अकेला छोड़ दिया था, एक दिन एक पार्टी में मुझसे बड़ी आत्मीयता से बात करने लगे। मैं चकित था। आप ऐसा काम तो करो कि गुरु शर्मिन्दा हों और गले लगायें। काम क्या खाक करोगे, जब यह पता ही नहीं कि आलोचना की पूँछ किधर है और मुखमण्डल किधर ? एक दिन न चाहते हुए भी एक लेख पर कमेंट करना पड़ा- ‘‘ मैं कुछ कहना तो नहीं चाह रहा था। पर अरुणदेव ने देखने का अवसर दिया है तो कुछ न कुछ कहना भी विवशता है। यकीन करें मैं उनसे ही टकराना पसंद करता हूँ जो लेखक हों। लेखक होने की पहली शर्त है किसी स्वाभिमानी लेखक का अपमान न करना या उसके विरुद्ध षडयंत्र में शामिल न होना। जहाँ तक मैं जानता हूँ नामवर जी किसी स्वाभिमानी लेखक को अपमानित नहीं करते हैं। यह उनका बड़ा गुण है। दुर्भाग्य से नामवर जी का प्रधानशिष्य बनने की इच्छा रखने वालो मित्रों को इस पर ध्यान देना चाहिए। क्या जो लेख सामने है उसमें विचलित होने जैसा कुछ है या नहीं, यह मैं नहीं कहता। पर नामवर जी का प्रधानशिष्य बनने की आकांक्षा की विकलता और विफलता में एक बड़े काव्यालोचक के रूप में खुद को सामने लाना चाहिए था। नामवर जी को मार्क्सवादी समझने से पहले उन्हें साहित्यवादी के रूप में देखना चाहिए। क्या साहित्य मार्क्सवाद के भीतर है या मार्क्सवाद साहित्य के भीतर ? मुक्तिबोध मार्क्सवाद को ईमानवाद से क्यों जोड़ते हैं और दूसरे कथित आलोचक ईमानवाद से दूर क्यों रहते हैं। ईमानवाद को भूल-गलती कविता के संदर्भ में देखें, जहाँ ईमान जंजीरों जकड़ा हुआ है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि नामवर की आलोचना बेशक करें पर पहले यह तो देख लें कि आप के भीतर नामवर जैसा क्या है और क्या नहीं ? मैं खुद नामवर जी की आलोचना करता हूँ, पर जिन संदर्भों में करता हूँ वहाँ अपने गिरेबान को बचा कर रखता हूँ। बात थोड़े में कहना चाहता हूँ, इसलिए संक्षेप में कि नामवर जी के उस गुण को भी देखा जाना चाहिए जिसका उदाहरण काशीनाथ जी के साथ बातचीत में मौजूद है। नामवर जी ने उस बातचीत में स्वीकार किया है कि फणीश्वरनाथ रेणु के महत्व को समझने में मुझसे भूल हुई, देर से समझा। अपनी गलतियो को स्वीकारने का यह बड़ा जज्बा नामवर जी का प्रधान शिष्य बनने की पंक्ति में लगे हुए लोगों के भीतर शायद नहीं है कि वे अपने साहित्यिक अपराधों को स्वीकार कर सकें। दूसरी बात, नामवर स्वाभिमानी लेखकों की मदद करने वाले लेखक हैं, उनकी पीठ में छुरा भांेकने वाले लेखक नहीं। बेशक नामवर जी का उत्तरार्द्ध अच्छा नहीं है, लेकिन उनकी आलोचना की भाषा का जिक्र इस लेख में है, वैसी भाषा या उससे अच्छी भाषा और काव्यालोचना का उससे अच्छा उदाहरण नामवर जी का प्रधानशिष्य बनने की आकांक्षा करने वाले शिष्य लेखकों में होना चाहिए या नहीं ? नामवर जी की आलोचना की जाय, लेकिन उससे पहले अपने बारे में भी विचार कर लिया जाय कि कविता और कथा की आलोचना में हम कहाँ खड़े हैं। लेखक विद्वान व्यक्ति हैं। मैं विद्वान नहीं हूँ। हिंदी साहित्य का बहुत मामूली कार्यकर्ता हूँ, अधिक कुछ कहने की क्षमता मेरे पास नहीं है। ’’ इसके जवाब में विद्धान आचार्य ने कहा-‘‘ अपनी प्रधान या कनिष्ठ किसी भी किस्म के शिष्य बनने की आकांक्षा नहीं रही है। छात्र रहा हूँ। रही बात आलोचना की खासकर साहित्य की आलोचना की तो मैं अपने अपने बारे कहना सही नहीं मानता। फिर भी मैं चाहता हूँ कि मेरी किताबें बाजार में हैं, आप पढ़ें और देखें। हमने उस एरिया पर काम किया है जो हमारे गुरुवर ने छोड़ दिया था। मेरा इशारा स्त्री साहित्य की ओर है। चाहें तो स्त्री साहित्य पर हमारी किताबें मंगाकर पढ़ सकते हैं। ये उन विषयों पर हैं जिनकी चर्चा न तो नामवर सिंह ने की और न उनकी भक्तमंडली ने की है।’’
     विद्वान आचार्य से संबंधित इस उद्धरण को देने का आशय यह कि पाठक अनुभव करें कि आज आलोचना में किस तरह के लोग काम कर रहे हैं। पाठक खुद तय करें कि ये अच्छे लोग हैं या बुरे। मैं अपनी ओर से कुछ न कहूँगा। बस बातों को आपके रख भर दूँगा। आप देखें कि आज का झूठमूठ का आलोचक कितना अहंकारी है कि वह सोचता और मानता है कि वह जो कर रहा है, वही आलोचना है। उसे कोई रोक नहीं सकता है। क्योंकि यह लेख तो अभी लिखा ही नहीं गया है कि ‘‘ आलोचना क्या है ’’। क्या बड़े सुकुल जी से लेकर नामवर आलोचक तक ने जिस एरिया को छोड़ दिया है, वह सचमुच आलोचना की चौहद्दी में है ? क्या मीडिया हिंदी आलोचना का हृदयप्रदेश है ? कि रचनाविहीन स्त्रीविमर्श या दलितविमर्श हिंदी आलोचना का हृदयप्रदेश है ? क्या विमर्श ही आलोचना है ? क्या ज्ञान का साहित्य और समाजविज्ञान का अध्ययन हिंदी आलोचना है ? महावीर प्रसाद द्विवेदी और बड़े सुकुल जी का काम ‘‘सम्पत्तिशास्त्र’’ और ‘‘विश्वप्रपंच’’ तक सीमित है ? और सब छोड़ो, ये तो बताओ कि  ‘‘कवि कर्तव्य’’ और ‘‘कविता क्या है’’ निबंध किसने लिखा है भाई ? उत्तर आधुनिकता पर तो गोरखपुर के राजनीतिशास्त्र के एक वयोवृद्ध आचार्य अच्छा बोलते और लिखते हैं ? क्या यही हिंदी आलोचना है ? बस ? स्त्रीविमर्श और लिंगभेद पर समाजविज्ञान के कई आचार्य अच्छा बोलते और लिखते हैं। फिर हिंदी का आलोचक होने का क्या अर्थ है ? रचनाविहीन आलोचना कम से कम हिंदी आलोचना न कभी थी और न है और न होगी। हिंदी में उर्दू और अंग्रेजी के लोग काम करते हैं। रचना और आलोचना दोनों में। फिर जिसे ‘‘सिर्फ और सिफर्’’’ उत्तर आधुनिकता या स्त्रीविमर्श का होमगार्ड बनना है, वह समाजविज्ञान के अहाते में क्यों नहीं जाता ? आलोचना का कार्यकर्ता बनना है या कुछ और, पहले तय तो कर लो भाई। मीडिया का मीडियाकर बनना है तो भी तय कर लो कि क्या यह आलोचना का क्षेत्र है या नहीं ? कभी पत्रकारिता और साहित्य में जो बहनापा था, वह आज नहीं है। क्या मीडिया पर काम करने वालों ने या अड़तीस किताबों के लेखक ने यह कहीं कहा है कि आज के साढ़े निन्यानबे फीसदी पत्रकार साहित्यिक रूप से निरक्षर होते हैं ? लिक्खाड़ लेखक ने किस किताब के किस पेज पर यह लिखा है पत्रकार क्रिकेट के खिलाड़ियों के चौके-छक्के और सेंचुरी देख कर उसे हीरो या भगवान लिखते हैं, उसे मिलने वाले पुरस्कारों के आधार पर नहीं। पर साहित्य में आज लेखक को उसके पुरस्कारों के आधार पर महान समझते हैं, रचनाओं के आधार पर नहीं। मैंने कई बार यहाँ पत्रकारों को चुनौती दी है कि अमुकजी और ढ़मुकजी के किसी लेख या कविता का नाम मालूम है ? ‘‘साहित्य और पत्रकारिता’’ नामक लेख में इस पर विस्तार से कहा है। इस उल्लेख का आशय सिर्फ यह है कि अड़तीस किताबों में नया क्या कहा है, इससे महत्व निर्धारित होता है, किताबों की संख्या से नहीं। मेरे शहर के एक आलोचक ने पिछले चालीस साल की कविता पर सबसे ज्यादा लिखा है, पर सब अविश्वसनीय और कूड़ा। अड़तीस किताबें तो बड़े सुकुल जी के पास नहीं थीं। छोटे सुकुल के पास तो बस कुछ लेख हैं। मैंने अपने एक लेख ‘‘ नई सदी की काव्यालोचना की मुश्किलें’’ में या किसी और लेख में ध्यान खींचा था कि नई सदी की आलोचना की मुश्किलों में युवा आलोचकों की कतरनबाजी और कबूतरबाजी भी है। लेकिन यह तो और भी खतरनाक बात है कि साठ के करीब पहुँचने वाले झूठमूठ के आलोचकों में भी यह बीमारी खूब है। कतरनबाजी और कबूतरबाजी आलोचना का धर्म नहीं है। अच्छी बात यह कि इसे आज के सचेत युवा आलोचक भी स्वीकार करते हैं कि वे स्मृति और अनुभव की व्यापकता की कमी की वजह से उद्धरण शैली अपनाते हैं। दुर्भाग्य यह कि यह दोष युवा आलोचकों से कहीं अधिक झूठमूठ के आलोचकों में दिखता है। ये आलोचक जैसे दूसरों का उद्धरण देने के लिए ही पैदा हुए हैं। अपनी कोई बात नहींे। एक भी बात अपनी नहीं। जब कुछ जीवन में अपना नहीं होगा। सब जुगाड़ का होगा तो नई बात क्या खाक कहेंगे ? फिर तो यह आलोचना शुद्ध मुंशीगीरी हुई। मुंशी जी लिखते जा रहे हैं, एक,दो,चार,पाँच,दस,बीस,तीस....किताबें। फिर किताबें। एक,दो,पाँच,सात,आठ...। हद है। यह तो नित्यकर्म से ज्यादा हो गया भाई। आलोचना में आशुलेखन और अतिलेखन की दरिद्रता का देश का सबसे अच्छा उदाहरण मेरे शहर में ही है। सच तो यह कि मेरा शहर हो या कोई शहर, एक से बढ़कर एक मिलेंगे। हाथी जितना खायेंगे और हाथी जितना करेंगे। अरे भाई बेशक हाथी जितना खाइए, लेकिन उतना कीजिए मत। बहुत पढ़ना तब अच्छी बात है, जब आप का हाजमा ठीक हो। पचाइए। आलोचना का शेर बनिए। शेर वह कभी बन ही नहीं सकता, जो शेर को उसके हाथ-पैर बाँध कर फतह करने की बेवकूफी करता है। उसे धोखे से मारता है। किसी नामवर आलोचक से लड़ना है तो शेर बनिए। हाथी तो बिल्कुल नहीं।
        नामवर आलोचक से टकराने का अर्थ यह नहीं कि आप यह कहते फिरें कि उसने अमुक को नौकरी दी, अमुक को नहीं। अमुक को प्रधानशिष्य बनाया, अमुक को नहीं। यह आलोचना का विषय नहीं है। यह हिंदी की लंका का विषय है। पर आप तो उत्तर आधुनिकता को छोड़कर कुछ जानते ही नहीं। यह भला आपको कहाँ पता है कि देश भर के हिेदी विभाग कमोबेश हिंदी की लंका ही हैं। भटके हुए लेखकनुमा जीव अज्ञानवश कभी-कभी हिंदी के राक्षसों से साथ हिंदी के मर्द पर पीछे से घात करते हैं। ये अस्वस्थलोचन देख ही नहीं पाते कि ये हिंदी की लंका के लिए काम कर रहे हैं कि हिंदी के पुरखों की धरती के लिए। अरे भाई, कोई छोटी लंका है। कोई मझोली लंका। कोई बड़ी लंका। सबसे बड़ी तो खैर यहाँ है। लंका नहीं, आलोचक हैं तो आलोचना के परिसर में पटकिए। पर पहले अपना पोछीटी तो ठीक से बाँध लीजिए। छोटे सुकुल ने अभी इस किताब को खैर लिखा तो नहीं है, पर बेवकूफियाँ ऐसे ही बढ़ती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लिख मारेंगे कि ‘‘नामवर आलोचक से कैसे टकराइए’’। ‘‘रचना, आलोचना और पत्रकारिता’’ नामक आलोचना की किताब में एक लेख है-‘‘कविता का चाँद और आलोचना का मंगल’’। उसमें नामवर आलोचक से टकराने का उदाहरण मौजूद है। नामवर आलोचक को विवेकच्युत समझना ऐतिहासिक भूल होगी। नामवर आलोचक की भावयित्री प्रतिभा को अदेख करना अपने लोचन को ही नहीं बल्कि अपनी पूरी पीढ़ी को शर्मिन्दा करना होगा। प्रतिभा होना और बात है और बेईमान होना और बात है। अभी हाल में ही मैंने अपने समय की आलोचना में ईमान, साहस और धीरज की कमी की बात की है। ऐसा इसलिए कि आज हमें आलोचना के दिग्गज बेईमानों से संघर्ष करना है। उनके प्रमोट करने के धंधे के खिलाफ लड़ना है। इसलिए उन्हें वहीं-वहीं और वैसे-वैसे ही घेरना है। नामवर आलोचक कहेंगे कि अब छंद की वापसी का समय आ गया है। छंद रामबाण है। छंद महान कविता की गारंटी है। कविता का जीवन है छंद। इस मुद्दे पर घेरने के लिए नामवर आलोचक से पूछना पड़ेगा कि भाई छंद महान कविता की गारंटी है तो आपके निकट संबंधी तो गीतों से कविता की दुनिया में आये हैं, वे क्यों नहीं महान कवि बनने के लिए छंद में लिख रहे हैं। नई पीढ़ी को क्यों उल्टा लटका रहे हैं ? क्या इसलिए नहीं कि किसी छलछंद वाले कवि को प्रमोट करना है, इसलिए यह झूठ बोल रहे हैं। आखिर छंद में ‘‘रामचरितमानस’’ भी है और ‘‘रामचंद्रिका’’ भी। पर ‘‘रामचंद्रिका’’ जन-जन का कंठहार नहीं है। आशय यह कि छंद में अच्छी कविता भी होती है और खराब कविता भी। उसी तरह छंदमुक्त कविता में अच्छी कविता भी होती है और खराब कविता भी। सवाल छंद और छंदमुक्त का नहीं है। सवाल अच्छी कविता और खराब कविता का है। ऐसे पकड़िए हाथ। शेर की तरह। हाथी मत बनिए। यह सिर्फ अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए। ऐसा आप तब करेंगे, जब आपकी आलोचना के केंद्र में रचना होगी। आप सिर्फ विचारधारा का हाथी लेकर घूमिएगा तब तो आप कर चुके आलोचना। विचारधारा बुरी चीज नहीं है। उसे बुरी चीज मत बनाइए। विचारधारा को ताकत बनाइए, कमजोरी नहीं। सिर्फ विचारधारात्मक लेखन आलोचना नहीं है। आप हिंदी के किसी भी बड़े आलोचक को देख लीजिए। ये छुटभैये हैं, जिनके पास भावयित्री प्रतिभा नहीं है। ये सिर्फ विचारधारा के हल्लाबोल से हिंदी का जग जीतना चाहते हैं। है न वज्रमूर्खता की बात। प्रतिभा और ईमान के साथ आइए मैदान में। घेरिए महाबली को। कहिए कि लेखक संघ के आजीवन अध्यक्ष पद को छोड़िए। लेखक संधों के जरिए साहित्य का भ्रष्टाचार खत्म कीजिए। कहिए कि प्रमोट करने का धंधा बंद कीजिए। प्रमोटी कवियों को घेरिए। उन्हें उनका सच बताइए। आलोचना का आईना दिखाइए। ऐसा आप तब करेंगे, जब आलोचना में आप कहीं खड़े होंगे। अपने पैरों पर। परजीवी नहीं होंगे। आपकी अपनी छाप आलोचना में दिखेगी। अरे भाई जब चोर की हथेली की छाप दरवाजे पर पड़ जाती है तो आप तो प्रतिभाशाली हैं आपकी छाप आपके लिखे में नहीं दिखनी चाहिए ? एक निजीछाप हर बड़े आलोचक और रचनाकार के पास होती है। विचारधारा में भी सभी भूसा नहीं तौलते हैं। मुक्तिबोध प्रेम के प्रतीक चाँद को अपनी कविताई से उल्टा लटका देते हैं। उसे पूँजीवाद का प्रतीक बना देते हैं। कहते हैं, चाँद का मुँह टेढ़ा है। ऐसे ही कुछ अपनी आलोचना में कीजिए। आप लोग मुझ रचना के कार्यकर्ता को जब-तब आलोचना के मैदान में आने के लिए विवश मत कीजिए। मुझे अपना काम करने दीजिए। आप आलोचक हैं तो अपना काम अच्छी तरह कीजिए। साहित्य में कोई किसी को अपना उत्तराधिकारी नहीं घोषित करता। कुर्सी को छीन कर बैठना पड़ता है। जो नामवर आलोचकों की गोद में बैठते हैं, वे जिन्दगी भर अँगूठा चूसते रह जाते हैं। मर्द बनिए मर्द। शमशेर ने मुक्तिबोध को मर्द कवि कहा था। आप भी मर्द आलोचक बनिए। मर्द लेखकों के साथ रहिए। अफसोस, आज के आलोचक के पास अकेले चलने का तनिक भी साहस नहीं है। आलोचक ही नहीं, सभी लेखकों के पास। किसी को विचारधारा का साथ चाहिए, किसी को लेखक संगठन का, किसी को किसी गुप्त समूह का। आलोचना का काम है सच का आईना दिखाना। आलोचना के सच का आलोक जब आलोचकों के पास नहीं होगा तो वे अपने समय के अँधेरे से क्या खाक लड़ेंगे ?
                                                                                                            
(यह लेख ‘समालोचन’ पर है। अब यहाँ भी दे रहा हूँ।)







शनिवार, 7 जुलाई 2012

कविता और आलोचना के नये केंद्र कहाँ हैं

                                                                                        -                       - गणेश पाण्डेय
     अरुण, यह साहित्य का मधुमय देश नहीं है। देश भी है या अरण्य। काँटों, खाइयों और घात-प्रतिघात में लगे हुए हिंस्र पशुओं का परिसर। जो है, चाहता है कि सारा जंगल उसके नाम हो जाय, सब उसके अधीन रहें, उसकी इच्छा ही नियम हो, तर्क की कसौटी हो, प्रतिमान हो। उसकी धोती या पाजामे की सफेदी या दुर्गन्ध ही उसकी यश का आधार हो। डरे हुए लोगों का मजमा है जहाँ, लूटमार करने वालों का गिरोह है, जहाँ मंसूर हो जाना बेवकूफी की बात है और झुककर जीना गर्व की बात, जहाँ, जीते-जागते, हँसते-बोलते, लड़ते-झगड़ते और अपनी भाषा में अपनी तान छेड़ते लोग नहीं दिखते हैं, निडर लोग नहीं दिखते हैं, जैसे कोई बिराना देश है। जहाँ हमारा या दूसरों का अंचल नहीं दिखता है। अपने लोग नहीं दिखते है। यह कोई कागज का देश है या रबड़ के बबुआ जैसे लोग रहते हैं यहाँ। चेहरे की किताब की जिल्द और पन्ने सब जैसे फटे हुए, आड़ी-तिरछी रेखाओं वाले चेहरे पर पत्थर जैसा मृत खुरदुरापन। जैसे यह कोई परिसर नहीं, कोई बूचड़खाना है। कविता का कोई कारखाना है, जिसमें एक जैसी कविताएँ कई दशकों से ढ़ाली जा रही हैं। जैसे बीसवीं सदी अभी कविता और आलोचना की दुनिया में खत्म ही नहीं हुई। लगता तो यहाँ तक है कि नई सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद भी हम बीसवीं सदी से एक डग भी आगे नहीं बढ़े हैं। साहित्य की घड़ी की सुइयाँ इतनी सुस्त क्यों हैं, वे कौन लोग हैं जो इन सुइयों को पकड़ कर बैठ गये हैं या कि उसके पेंडुलम पर लटक गये हैं। ये लोग कवि हैं या आलोचक या दोनों ?
  एक ऐसे समय में जब पुरानों ने कबाड़ बहुत फैला रखा है और हिलने-डुलने भर की जगह नहीं छोड़ी है, अटा पड़ा है कविता का परिसर ऐसे कातिल बुजुर्गों से। गौरतलब यह कि छोटी-सी दिल्ली ने कविता में देश भर की जगह को घेर रखा है। दिल्ली के बाहर के लोग चाहे गोरखपुर के हों या कहीं और के, उसी में तलुए भर की जगह के लिए जिस-तिस के तलुए छू रहे हैं। कुछ तो कुछ संस्थाओं के संड़ास में साहित्यिक मुक्ति की तलाश कर रहे हैं। ऐसे में नई सदी की कविता और आलोचना पर बात करना खासा मुश्किल काम है। इस मुश्किल काम को करना मुश्किल तो है पर इतना भी नहीं कि नई सदी की रचनाशीलता में भरोसा करने वाले लोग कर न सकें। एक कोशिश तो कर ही सकते हैं।
  बीसवीं सदी को यदि हम विचारधाराओं और आंदोलनो की सदी कहें तो बहुत बुरा न होगा। बीसवीं सदी की हिंदी कविता को आंदोलनों की सदी की कविता के रूप में भी देखा जाता है। विचारधाराओं के संघर्ष के तनाव से उपजी समृद्ध रचनाओं का काल है बीसवीं सदी। जीवन के संघर्ष का भी शिखर इस दौर की कविता यात्रा में देखा जा सकता है। व्यक्ति और समाज के तनाव का भी एक बड़ा परिसर मौजूद है। उसके बाद पूरी बीसवीं सदी की जद्दोजहद कविता में है। विचारधारात्मक निष्कर्षों की विफलता और मुक्त विचारों के अन्तर्विरोध और निरर्थकता के अनुभव का समय भी बीसवीं सदी है। अलबत्ता, पुरानी लीक पर चलने वाले नकली और असली दीवानों के तेवर में कोई कमी नहीं आयी है। वे अभी भी कविता को घूमफिर कर उसी बाड़े में रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि स्वप्न महत्वपूर्ण होता है, जीवन नहीं। वे यह भी मानते हैं कि टूट-फूट केवल जीवन में होती है, स्वप्न तो अक्षुण्ण होते हैं। स्वप्न कभी नहीं मरते हैं। हत्यारे स्वप्नों को नहीं मारते या अपने ही लोग अपने स्वप्नों की ओर बंदूक की नली करके गोली दाग देने की बेवकूफियाँ नहीं करते हैं। वे मानते हैं कि ऐसे अनेक हादसे केवल जीवन में होते हैं। स्वप्न को जीवन या जीवन की विफलताओं के आलोक में नहीं देखना चाहिए। वे मानते हैं कि कविता केवल स्वप्न का अनुवाद है, जीवन का पर्याय नहीं। मुश्किल यह कि ऐसे ही स्वप्न पर या इसी थीम पर हजारों कविताएँ जहाँ लिखी गयी हों, वहाँ नए कवि को उन्हीं कविताओं की तरह कविता लिख कर कविता को नये विचारधारात्मक अनुकरण की लीक पर चलना चाहिए या अपने समय और समाज और जीवन और अपने अंचल के मुहावरे और टोन में कविता का नया परिदृश्य रचना चाहिए ? कविता में चरित्रों की आवाजाही में किसी ताजगी की जरूरत क्यों नहीं महसूस की जानी चाहिए ? एक जैसे चरित्रों की भरमार क्यों ? इतना ही नहीं किसी पुराने कवि की कविता को चुनौती के रूप में क्यों नहीं लेना चाहिए ? उससे आगे का चरित्र क्यों नहीं गढ़ना चाहिए ? आगे का दृश्य क्यों नहीं रचना चाहिए ? आगे का समय क्यों नहीं आना चाहिए ? क्या जब तक यह दुनिया या यह देश किसी खास विचार पद्धति के आधार पर अपना तंत्र बना नहीं लेता, तब तक सारे कामकाज बंद कर देने चाहिए ? लोगों को बाथरूम नहीं जाना चाहिए या शादी-विवाह नहीं करना चाहिए ? प्यार-व्यार की बेवकूफी में फंसना चाहिए या नहीं ? किसी बच्चे की करतब पर फिदा होना चाहिए या नहीं या हिंदी के मठाधीशों के खिलाफ कुछ कहना चाहिए या नहीं ? एक चुप, हजार चुप रहना चाहिए ? प्रकृति और समाज को देखना चाहिए या अपनी आँखें फोड़ लेनी चाहिए ? या सब छोड़छाड़ कर लेखक संगठनों में भर्ती हो जाना चाहिए ? आजीवन लेखक संघों का अध्यक्ष बने हुए लोगों के विरुद्ध कुछ नहीं कहना चाहिए ? राजनीति में कुछ करने वालों का विरोध करना चाहिए और लेखक संघ के अध्यक्षों के पीछे दुम दबाकर चलते रहना चाहिए ? इस बात पर गौर नहीं करना चाहिए कि राजनीति या सामाजिक कार्य के परिसर में कुछ लोग चाहे सौफीसदी भ्रष्ट हों पर अपने समय की जनता की आवाज बनने की कोशिश कैसे करते हैं और साहित्य के धुरंधर पचासों साल से साहित्य की मंडी में कटहल क्यों तौल रहे हैं ? देश भर में बुराई की जड़ केवल सांप्रदायिक संगठन हैं तो भाई तुम सब कई-कई लेखक संगठन लेकर अब तक क्या कर रहे थे, कुछ ठोस किया क्यों नहीं ? क्यों नहीं ऐसे सांप्रदायिक संगठनों के सामने अपने लेखक संगठनों को ताकतवर बनाया और उसे लोगों के बीच ले गये ? क्या इस संघर्ष में सारा कसूर दूसरों का ही है, लेखकों का नहीं ? कह सकते हैं कि लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हो सकता, उस तरह राजनीति नहीं कर सकता है, राजनीति के लोग जिस तरह साहित्य नहीं कर सकते हैं, फिर बनते क्यों हो भाई सत्तामुखी लेखक ? राजनीति और देश को छोड़ो, यह तो बताओ खुशफहमी में रहने वाले लेखको कि साहित्य के भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्या किया है अब तक ? क्या जिस-तिस का चरणरज लेकर पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर लाखों के पुरस्कार तक पाने के लिए लोग नाक नहीं रगड़ते रहे ? साहित्य अकादमियों में अलेखक और अपात्र प्रोफेसरों की आवाजाही को तो रोका नहीं जा सका , संसद से दागी लोगों को दूर करने की बात किस मुँह से कर सकते हैं भाई ? जाओ अपने मुँह पहले ठीक से धुल आओ। फिर सोचो कि अब किया क्या जाय ? यह बहुत मुश्किल काम है। इसे करने के लिए अपने भीतर के साहित्य के राक्षस को मारना होगा, कितने लोग इस मुश्किल काम को कर पायेंगे ? साहित्य का यह राक्षस औसत रचना और औसत आलोचना दोनों क्षेत्रों में उत्पात मचाये हुए है। जाहिर है कि ये राक्षस साहित्य की सत्ता के हाथ पैर हैं। यह अलग बात है कि हिंदी के मौजूदा परिदृश्य पर कई सचमुच के राक्षसों को गोरखपुर में बैठ कर मैं देख रहा हूँ। पता नहीं और दूसरे शहरों में रहता तो देख पाता या नहीं ? जैसे बहुत से लोग यह मानते ही नहीं होंगे कि हिंदी साहित्य की मौजूदा दुनिया में राक्षस-वाक्षस भी हो सकते हैं। हो सकता है कि कहें कि यह मेरा भ्रम है। भूत-प्रेत और राक्षस-वाक्षस कहीं नहीं होते हैं। पर हिंदी की दुनिया में देवताओं और परोपकारियों का सैलाब देखने वाले सज्जनों से कहना चाहूँगा कि गोरखपुर शहर को देखे बिना ऐसी कोई भूल हरगिज-हरगिज न करें। मेरे पहले कविता संग्रह में शामिल गुरु सीरीज की दस कविताएँ देख लेंगे तो भी आप से आप समझ जायेंगे कि जो कुछ कह रहा हूँ, कितना सच कह रहा हूँ। सच तो यह कि कहाँ नहीं होते हैं ऐसे लोग ? बस हमारा स्वार्थ, चाहे छोटे-बड़े पुरस्कार की लालसा हमें राक्षस को देवता समझने के लिए विवश करती है। यही है, हमारे समय के हिंदी की दुनिया का सच। ये पुरस्कार दुनिया को बदलने के काम में लगे हुए पुरस्कारवादी कवियों को भी मजबूर करते हैं। कहना यह चाहता हूँ कि इसी वजह से ये कविता की दुनिया का सच देख नहीं पाते हैं या स्वीकार नहीं कर पाते हैं। राक्षस कविता का हरण कर लेते हैं और हम अपनी कविता को छुड़ाने की जगह लंका के पुरस्कार रूपी सोने के चक्कर में पड़े रहते हैं। यह जो बारबार राक्षस कह रहा हूँ, कोई अनाड़ी ही होगा जो सचमुच का राक्षस समझेगा, ये राक्षस धोती और पाजामा और पतलून पहनने वाले राक्षस हैं, बड़ी-बड़ी संस्थाओं के पदाधिकारी होते हैं, संपादक होते हैं, आलोचक होते हैं। जाहिर है कि मेरा आशय बुरे लोगों से है।
    बुरे आलोचक अपने समय की कविता के साथ बुरा सलूक तो करते ही हैं, आने वाले समय की कविता को भी भ्रष्ट करते हैं। पिछले चालीस साल की कविता पर सबसे ज्यादा लिखने वाले आलोचक हमारे शहर को छोड़ कर पूरे देश में कहीं और नहीं है। यहाँ तक कि साहित्य की राजधानी भी ऐसा लिक्खाड़ आलोचक नहीं पैदा कर पायी है। जो मिनट-मिनट पर रिव्यू लिखता फिरता रहा हो। ऐसा आलोचक कहीं कोई और हो तो बताएँ। अधिक नहीं, हजार रुपये का इनाम ले जायंे। लेकिन इतना सारा लिखने के बाद भी हमारे समय की कविता का मुक्म्मल चेहरा इस या किसी आलोचक की आलोचना में क्यों नहीं है ? हमारी पीढ़ी का हमारा ढ़िलपुक दोस्त भी खूब रिव्यू लिखता रहा है, उसने भी अपने समय की कविता के मुकम्मल चेहरे के बारे में सोचा ही नहीं। ऐसा क्यों , यह सवाल जरूरी है। आलोचना मुशीगीरी नहीं है। आलोचना सेहरा लिखने और शादी-ब्याह में गाने का काम नहीं है। पर हुआ यही है। आलोचक बैठा हुआ है कि संग्रह पैदा हो और वह ढ़ोलक की थाप पर सोहर तुरत गाये। लोकार्पण समारोह में पहुँच कर डिठौना तुरत लगायें। पैदा होते ही भारतभूषण नाम का झुनझुना तुरत थमायें। मैं जानता हूँ कि यह सब उन्हें नहीं अच्छा लगेगा जिन्हांेने दो-चार स्मरणीय कविताएँ लिख कर प्रतिष्ठा अर्जित नहीं की है, बल्कि साहित्य अकादमी के या व्यास या अन्य पुरस्कारों के नाते प्रतिष्ठा अर्जित की है। साहित्य अकादमी के या दूसरे पुरस्कारों को पाने वाले सभी लेखक कमजोर नहीं होते हैं। कई तो बहुत ताकतवर हैं। पर मैंने अपने ढ़िलपुक दोस्त से जब पूछा कि अमुक अकादमी पुरस्कार वाले कवि की यादगार कविताएँ कौन-सी हैं तो उसने उस कवि के पहले कवितासंग्रह की एक शीर्षक कविता का नाम लिया और कहा कि बस। यह एक उदाहरण है। अफसोस यह कि अफलातून वे बने फिर रहे हैं, जिन्होंने स्मरणीय कुछ किया ही नहीं और दूसरे कवियों के बारे में फतवे जारी करते हैं। वे बता रहे हैं कि कौन-सी कविता बहुत अच्छी है और कौन-सा कवि महत्वपूर्ण। क्या विडम्बना है कि इस अंचल में लंबे समय से रहने वाला कोई कवि इन्हें दिखता ही नहीं। यह मैं किसी और मकसद से नहीं कह रहा हूँ कि लोग आयें और उसे देखें। बल्कि कभी-कभी आरोप लगाने वाले को कुछ सबूत भी देने पड़ते हैं, ये बातें उन्हीं सबूतों की कड़ी के रूप में हैं।
  ऐसे समय में जब कविता का परिदृश्य साहित्य की राजनीति से संचालित हो रहा हो, कुछ जरूरी बातों को कहने के लिए खतरे उठाने ही होंगे। आज कविता का संसार औसत का संसार है। आज कितने ऐसे कवि हैं जो कविता लिखने से पहले एक बार सोचते हैं कि कविता क्यों ? यश, पुरस्कार और क्रांति वाला प्रयोजन पुराना और बकवास है। मैं आगे की बात कर रहा हूँ कि कवि सोचे कि आखिर दृश्य पर वह नया क्या देख रहा है ? किस नये कोण से देख रहा है ? कविता को देख भी रहा है या कुछ और देख रहा है ? कविता को किस आँख से देख रहा है ? मुझे तो लगता है कि कविता को देख ही नहीं रहा है। उसे पता भी है या नहीं कि जैसे हम कभी-कभी दूसरों की देह ही नहीं , अपनी देह के साथ भी बुरा बर्ताव करते हैं, उसी तरह अपनी कविताओं के साथ भी बुरा बर्ताव करने लगते हैं, दूसरों की कविताओं के साथ तो करते ही हैं। जैसे स्त्रियाँ खराब सौंदर्य प्रसाधन की वजह से या ब्यूटी पार्लरों की दिक्कत की वजह से अपना चेहरा खराब कर लेती हैं, उसी तरह कवि और आलोचक भी कविता की संवेदनशील त्वचा को जलाते ही नहीं, बाजदफा कोई महत्वपूर्ण हिस्सा   ( आत्मा-वात्मा ) भस्म कर देते हैं। जैसे भड़कीले लिपिस्टिक से स्त्री कुछ का कुछ लगने लगती है और आलोचक अपनी मूँछ मुँड़ा कर कुछ का कुछ लगने लगता है ( यहाँ मूँछ सिर्फ मुहावरे में है, सच में है तो मेरे पास भी नहीं ) उसी तरह कविता को उसके आसन से नीचे बैठा दिया जाता है। जैसे एक सुंदर देह में सुदर्शन मुखड़े के साथ, ग्रीवा, वक्ष, भुजाएँ और हाथ और उंगलियाँ इत्यादि सब का सुडौल होना अच्छा माना जाता है और सबसे बढ़ कर अच्छे विचार और अच्छे भाव और आत्मा की जरूरत होती है, वैसे ही एक अच्छी कविता में कई चीजों का सम्यक मेल जरूरी है। पर इस आपाधापी वाले वक्त में किसके पास इतना समय है कि यह सब सोचे ? उसे तो रात में कविता लिख कर सुबह आलोचक और संपादक की कृपा मात्र से पुरस्कार लेना है। उसका पहला काम अच्छी कविता लिखना नहीं है बल्कि कोई भी पुरस्कार हथियाना है। क्या यह गलत है ? उसे इस बात की चिंता नहीं कि वह कविता लिख रहा है या रबड़ की गुड़िया बना रहा है। बिना किसी संकोच के कहना चाहूँगा कि ऐसा राजधानी से जुड़े कवियों में अधिक दिखता है। बाहर के तमाम कवि भी राजधानी और उसके दरबार की ओर टकटकी लगाये रहने वाले ही हैं। यह राजधानी की बुराई नहीं है, सिर्फ एक प्रवृत्ति है। आखिर बाहर के किसी कवि को जो दिल्लीमुखी नहीं है या इस-उस लेखक संघ का सदस्य नहीं है या इस-उस मठाधीश का दरबारी नहीं है, यह क्यों कहना पड़ता है कि-
    ‘‘मैं कहाँ हूँ/इस सूची में नहीं हूँ/उस सूची में नहीं हूँ/इस पृष्ठ पर नहीं हूँ/उस पृष्ठ पर नहीं हूँ/इस चर्चा में नहीं हूँ/उस चर्चा में नहीं हूँ/इस अखबार में नहीं हूँ/उस अखबार में नहीं हूँ/इस किताब में नहीं हूँ/उस किताब में नहीं हूँ/इसकी जेब में नहीं हूँ/उसकी जेब में नहीं हूँ /इस संगठन में नहीं हूँ/उस संगठन में नहीं हूँ/मैं कहाँ हूँ/कहाँ हूँ ,कहाँ हूँ ,कहाँ हूँ/आलोचक की आँख में नहीं हूँ/संपादक की काँख में नहीं हूँ/युवा लेखकों के आगे नहीं हूँ/वरिष्ठ लेखकों के पीछे नहीं हूँ /मैं कहाँ हूँ/यह इक्कीसवीं सदी है /कि हिंदीसमय की वही नदी है /जो निकलती है राजधानी से सारा कचरा लेकर /और फैल जाता है पूरे देश में जहर/यह रचना का कैसा देश है/यह आलोचना का कैसा देश है /जिसमें बने हुए हैं दाएँ-बाएँ /बड़े-बड़े बाड़े और फाँसीघर/एक स्वाधीन लेखक क्या चुने/जाये तो जाये किधर/किससे पूछँू कि मैं कहाँ हूँ/कौन-सा देश है मैं जहाँ हूँ/मैं हूँ कि नहीं हूँ/नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ /हिंदी का कोई कवि हूँ /कि कविता का कोई भूत हूँ /प्रेत हूँ /किस देवता से पूछूँ/किस असुर से पूछूँ  /थक गया हूँ पूछते-पूछते/खग मृग बाघ सबसे पूछते-पूछते/मैं कहाँ हूँ ’’
   यह सिर्फ एक पक्का सबूत है। कुछ और नहीं। कुछ और समझने से पहले अपने बारे में सौ बार सोचना जरूरी है कि आखिर कविता और उसकी आलोचना को लेकर दिक्कत कहाँ है ? कहना बेहद जरूरी है कि जैसे गद्य को कवियों की कसौटी कहा गया है, शायद उसी तरह विचारधारात्मक गद्य और सभ्यता समीक्षा में लगे हुए आलोचकों के लिए काव्यालोचना को कसौटी कहा जा सकता है। काव्यालोचक ही बड़े आलोचक हुए हैं। अपवाद की बात नहीं करता। पर हिंदी आलोचना का दृश्य ऐसा ही है। लेकिन जो सबसे बड़ी मुश्किल है आज काव्यालोचना के लिए वह यह कि आज के जमाने में हिंदी काव्यालोचना काजल की कोठरी है। मैं यह बात केवल अपने समय की कविताओं और आलोचना के संदर्भ में कह रहा हूँ। दुर्भाग्यवश इधर आयी आलोचकों की पीढ़ी में उत्साह का अतिरेक इतना अधिक है कि आलोचक का काव्यविवेक उसके तीव्र प्रवाह में पता नहीं कहाँ बह जाता है। ऐसे आलोचक जिस भी कविता या कवि को छुएंगे, उसके लिए दुनिया का सबसे बड़ा लट्टू बन जायेंगे या जिसे पसंद नहीं करेंगे या तो उसे चिंदी-चिंदी करके ही दम लेंगे या सबसे आसान तरीका ढ़ूँढ़ेंगे कि उसे फूटी आँख से भी न देखें। वैसे यह बीमारी नई नहीं है। अपने समय के बुजुर्ग आलोचकों से आनुवांशिक रूप से मिली है। इससे सबसे बड़ा नुकसान खुद आलोचना का होता है कि वह पाठक और रचनाकार, दोनों का भरोसा खो देती है। ऐसे उदाहरणों से आलोचना का मौजूदा संसार अटा पड़ा है। आलोचक ही नहीं इस दौर के कई बड़े कहे जाने वाले कवि भी अपने बड़प्पन की ऐसीतैसी खुद ही करते हैं। खासतौर से कमजोर कवियों को ईमान के केंद्र से भटके हुए आलोचकों की तरह गलत ढ़ंग से प्रमोट करने की कोशिश के रूप में। जाहिर है कि यह दुर्गुण बड़े कवि और आलोचक दोनों में एक ही तरीके से आया है। अच्छे आलोचक हों, यह जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है कि अच्छे कवि भी हों। अच्छी आलोचना और अच्छी कविता दोनों के विश्वसनीय केंद्र जरूरी हैं। कविता और आलोचना, दोनों  का अच्छा होना तो जरूरी है ही। यह नई सदी का दूसरा दशक है और हम कहाँ हैं ? जो अच्छी कविता लिखने में भरोसा करते हैं वे मठवृक्षों के इर्दगिर्द नाचते नहीं हैं और जो उनके इर्दगिर्द नाचते हैं अच्छी कविता नहीं लिखते हैं। अच्छी कविता लिखना मुश्किल काम है। पक्की सड़क बनाने जैसा कई चरणों वाला। एक बार में संभव नहीं। कविता भी इधर छोटी और लंबी खूब लिखी जा रही है। पर कभी लगता है कि छोटी कविता का सामान लंबी कविता में खपाने की कोशिश की जा रही है तो कभी लगता है कि लंबी कविता का सामान ठूँस-ठूँस कर छोटी कविता में अँटाने की कोशिश की जा रही है। छोटी कविता में ब्योरे जहाँ कम से कम होंगे, वहीं लंबी कविता में ब्योरे कई बार अंतहीन भी हो सकते हैं। कथात्मकता दोनों में दिख सकती है, पर एक का वृत्त छोटा होगा तो दूसरे का परिसर चौड़ा। केंद्र दोनों में होंगे पर एक में केंद्र प्रायः कोई भाव या विचार या किसी चरित्र की झलक होगी तो दूसरे में किसी चरित्र या घटना-परिघटना या किसी बड़ी मानवीय समस्या का अंतःसंघर्ष महत्वपूर्ण होगा। एक में लय की एक मद्धिम गति होगी तो दूसरे में शांत प्रवाह या तीव्र वेग। संवेदना अपने लिए जहाँ कई बार भाषा और मुहावरे का चुनाव खुद करती है, वहीं कई बार कवि अर्जित या स्वनिर्मित काव्यभाषा के मोह को छोड़ नहीं पाता और किसी भी कथ्य के लिए एक जैसी काव्यभाषा दुहराता रहता है। अच्छी कविता जहाँ पारदर्शी रूपविधान का वरण करती है, वहीं प्रायः अस्पष्ट और किसी हद तक जटिल बुनावट की कविताएँ अपने कथ्य को या अपनी संवेदना को दुरूह बना लेती हैं। इस तरह की दिक्कतें सभी तरह की कविताओं के साथ होती हैं। राजनीतिक आशय की कविता हो या प्रेम की या सामाजिक सरोकारों की या स्त्रीविमर्श की। स्त्रीविमर्श से जुड़ी कविताओं के साथ तो दिक्कत इस हद तक है कि जन्म लेने वाले बच्चों के चेहरे तो एक जैसे नहीं होते हैं पर इनकी कविताएँ एक जैसी मुहावरे, एक जैसे चरित्र और एक जैसी नाराजगी में लिखी गयीं लगती हैं। अलग चरित्र नहीं। अलग टोन नहीं। अलग पहचान नहीं। यह बात मैं सभी कवयित्रियों के संदर्भ में नहीं कह रहा हूँ। यह बात केवल पाँच हजार दोस्तों वाली कवयित्रियों के बारे में है। क्योंकि उनके यहाँ अविस्मरणीय कविता लिखने से ज्यादा जरूरी है खूब ज्यादा कविता लिख और छप कर छा जाना। वे छा जाने के लिए कविता लिख रही हैं, न कि किसी गंभीर रचनात्मक असहमति की विकलता में। मजे की बात यह कि हर जगह के मठाधीश ऐसी कवयित्रियों में दिलचस्पी लेते हैं। हमारे शहर के एक आलोचक को तो लगता है कि वे साहित्य की सेवा के लिए नहीं बल्कि ऐसी कवयित्रियों की सेवा के लिए पैदा हुए हैं। एक बार फिर कह दूँ कि यह औसत कवयित्रियों के बारे में कह रहा हूँ। सभी के बारे में नहीं। कुछ बिल्कुल नई कवयित्रियाँ अपनी अच्छी कविताओं से ध्यान भी खींचती हैं। यहाँ जब किसी का नाम नहीं लिया है तो उनका भी नाम नहीं ले रहा हूँ। यह अलग बात है कि यह जमाना ही औसत का है। औसत कवि भी रोज लिखने और रोज छपने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। जाहिर है कि रोज-रोज दाढ़ी-मूँछ बनायी जा सकती है, कुछ और रोज-रोज किया जा सकता है, पर जैसे रोज-रोज बच्चा नहीं पैदा किया जा सकता है, उसी तरह रोज-रोज कविकर्म संभव नहीं है। अलबत्ता रोज-रोज हमारे शहर के महान आलोचक रिव्यू लिखने का काम कर सकते हैं। वे तो रोज कई-कई रिव्यू लिखने का काम करते हैं। सुबह इसकी, दोपहर उसकी, शाम को किसी और की। यही नित्य का कर्म। ऐसे जल्दबाज कवि कविता को पलट कर देखते भी नहीं। पर सभी कवि ऐसे नहीं होते हैं। जो ऐसे नहीं होते हैं, वही स्मरणीय कविता लिखने का काम करते हैं। वही आगे की कविता लिखने का काम करते हैं। दिक्कत यह है कि कविता को प्रमोट करने वालों ने नये कवियांें में गजब की दौड़ पैदा की है। उन्हें चर्चित होना है। उन्हें इनाम पाना है। मजे की बात यह कि बहुत बड़े कवि भी जो दावा करते हैं कि उन्होंने कोई हजार कविताएँ लिखी हैं, उनके यहाँ भी अविस्मरणीय कविताओं का टोटा है। अच्छी कविता और खराब कविता पर अपने एक अन्य लेख ‘कविता का चाँद और आलोचना का मंगल’ में काफी कुछ कह चुका हूँ। सच तो यह कि अच्छी कविता और खराब कविता के साथ अविस्मरणीय कविता को मिला कर कविता के इस त्रिकोण को हल किये बिना कविता और आलोचना के किसी भी इम्तहान से गुजरने की बात बेमानी है। क्या बेवकूफी है कि अनाज उम्दा चाहिए, मसाले में मिलावट नहीं होनी चाहिए, तेल शुद्ध पीले सरसों का हो, दवाएँ नकली कतई न हों, रुपया बिल्कुल असली हो, गड्डी में एक भी जाली नोट नहीं चलेगा, और कविताएँ कैसी भी हों तो चलेगा। यह दृष्टिकोण कविता का भला नहीं कर सकता। यह दृष्टिकोण भी कविता भी का भला नहीं कर सकता कि राजधानी के कुछ लोग कविता के प्रमाणपत्र बांटते फिरें या दिल्ली के बाहर दिल्ली संस्कृति के एजेंट ऐसा करते फिरें। दिल्ली केंद्रित कविता नहीं, उससे आगे  कवितादेश की बात सोचने का समय आ गया है। अनेक शहरों में कविता के अनेक नये केंद्रों को ढ़ूँढ़ने और उन्हें स्वीकार करने का समय आ गया है। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है तो इसके पीछे की दिक्कतों पर भी नई सदी की कविता के कार्यकर्ताओं को सोचना होगा।
    नई सदी की कविता के केंद्र क्या वही होंगे जो पुरानी सदी की कविता के केंद्र रहे हैं ? या पुरानी सदी के उपकरणों और काव्यचिंतन के आलोक में कविता के नये केंद्रों की खोज और निर्मिति का काम नई सदी के कवि करेंगे ? देश और दुनिया के मुहावरे से इतर अपने असगाँव-पसगाँव ओर अपने अंचल और अपने लोगों के दुख दर्द में भी कविता को शरीक करने का काम शुरू करेंगे ? अपने परिवेश , अपने घर-दुआर और बाल-बच्चों के बीच कविता की लालटेन जलाने का काम करेंगे ? कभी कहीं न दिखने और न छपने वाली स्त्रियों के संसार और स्वप्न को भी स्वर देंगे ? स्त्रीविमर्श से इतर किसी स्त्री की गर्वीली बिन्दी को भी भासमान करेंगे ? जीवन की गाड़ी में साथी बैल बन कर जुती हुई स्त्री के साझा संघर्ष को भी रेखांकित करेंगे ? कई गौरतलब कविताएँ इधर की याद आ रही हैं। ऐसी भी कई कवयित्रियाँ हैं जिनकी कविताओं की तारीफ भी करता हूँ।
    सवाल यह कि पुराने कवियों की नकल से इधर के कवि बचेंगे कैसे ? बचेंगे तभी जब ऐसे नकल करने वाले कवियों की भूरिभूरि नकली प्रशंसा से नामीगिरामी आलोचक बचेंगे। सच तो यह कि आलोचकों ने अपनी नावों को खुद ही समुद्र में डुबो कर डूबने की ठान ली है। ये आज की कविता के संकट का हल क्या ढ़ूँढ़ेंगे जब  आज की आलोचना के सामने ईमान के संकट के साथ, काव्यालोचना की भाषा और पारिभाषिक शब्दावली को लेकर भी संकट है। वे पुराने बटखरों से नई सदी की कविता को देखने का काम कर रहे हैं। पारंपरिक आलोचनात्मक शब्दावली और पदो ंके साथ तत्सम बहुलता से इस हद तक ग्रसित हैं कि लगता है कि वे आलोचना नहीं बल्कि कोई विचारधारात्मक राजनीतिक लेख लिख रहे हैं या वैज्ञानिक या तकनीकी विषयों पर केंद्रित कोई लेख। जिसमें भाषा के नाम पर ऐसी हिंदी दिखती है जैसे वह यहाँ की नहीं बल्कि पश्चिम के किसी देश की हिंदी हो। आखिर वे आलोचना को रचना की भाषा में और ताजगी के साथ लिखने की पहल क्यों नहीं करते ? लगता है कि जैसे जानबूझ कर आलोचना के असली दाँतों की जगह भाषा के नकली दाँतों का पूरा सेट अपने जबड़े में फंसा रखा है। जाहिर है कि ऐसे आलोचकों के लिए कंठस्थ शब्दावली का वमन ही आलोचना का आदर्श है। आलोचकों ने यह सब कचरा खुद किया है, जाहिर है कि इसकी सफाई की जिम्मेदारी भी आलोचकों की है, पर ऐसे आलोचक जो खुद चलाचली की बेला में हैं, वे अब करेंगे भी क्या खाक ? सफाई तो दूसरे लोग ही करेंगे। यह दूसरी पीढ़ी कहीं बाहर से नहीं आयेगी। नई सदी में जो नयी पीढ़ी के लोग हैं उन्हीं में से कुछ होंगे, जिन्हें इसी नई सदी के भीतर से कविता और आलोचना के नये और भरोसेमंद केंद्र के रूप में अपने को बनाने का ऐतिहासिक काम करना है। ये केंद्र सूर्य हों चाहे चंद्रमा हों या न हों, जुगनू जैसे भी हों तो चलेगा भाई। एक कोशिश तो हो।